जेपी की कारावास की कहानी – तीसरी किस्त

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(26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई तो जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर तत्कालीन सरकार ने जेल में डाल दिया। विपक्षी दलों के तमाम नेता भी कैद कर लिये गए। कारावास के दौरान जेपी को कुछ लिखने की प्रेरणा हुई तो 21 जुलाई 1975 से प्रायः हर दिन वह कुछ लिखते रहे। जेल डायरी का यह सिलसिला 4 नवंबर 1975 पर आकर रुक गया, वजह थी सेहत संबंधी परेशानी। इमरजेन्सी के दिनों में कारावास के दौरान लिखी उनकी टिप्पणियां उनकी मनःस्थिति, उनके नेतृत्व में चले जन आंदोलन, लोकतंत्र को लेकर उनकी चिंता, बुनियादी बदलाव के बारे में उनके चिंतन की दिशा और संपूर्ण क्रांति की अवधारणा आदि के बारे में सार-रूप में बहुत कुछ कहती हैं और ये ‘कारावास की कहानी’ नाम से पुस्तक-रूप में सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी से प्रकाशित हैं। आज जब लोकतंत्र को लेकर चिंता दिनोंदिन गहराती जा रही है, तो यह जानना और भी जरूरी हो जाता है कि जेपी उन भयावह दिनों में क्या महसूस करते थे और भविष्य के बारे में क्या सोचते थे। लिहाजा कारावास की कहानी के कुछ अंश हम किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। यहां पेश है तीसरी किस्त।)

21 अगस्त

ज तीन दिनों के बाद पुनः लिखने बैठा हूँ। छात्रों के आंदोलन ने मुझे उच्चतर लक्ष्यों के लिए, यानी सम्पूर्ण क्रांति के लिए, एक शान्तिपूर्ण जनान्दोलन में उसे परिवर्तित करने का अवसर प्रदान किया। यहाँ दो बातें स्पष्ट हो जानी चाहिए। एक तो यह कि बिहार आंदोलन को शुरू करने में मेरा प्रत्यक्ष कोई हाथ नहीं था; यद्यपि दिसम्बर 1973 में ‘लोकतंत्र के लिए युवा’ (‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’- जे.पी. ने यह अपील 11 दिसम्बर 1973 को आचार्य विनोबा भावे के पवनार आश्रम में लिखी थी। विनोबा को जब कुसुम देशपाण्डे ने यह अपील दिखायी तो उन्होंने इसका अनुमोदन किया था।) नामक अपील के प्रकाशन के बाद मैंने खासतौर से विश्वविद्यालय के छात्रों पर ध्यान केन्द्रित किया था और पटना विश्वविद्यालय में छात्रों की दो खासी-अच्छी सभाओं में भाषण भी दिये थे। इन दोनों सभाओं की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के सभापति ने की थी। उत्तर प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालय केन्द्रों में भी मैंने भाषण दिये थे और अपने भाषणों में राज्य विधानसभा के शीघ्र ही होनेवाले आम चुनाव के सन्दर्भ में अपनी उस अपील की प्रासंगिकता की ओर मैंने संकेत किया था। इन सभाओं में 1942 की क्रांति का स्मरण दिलानेवाली कुछ बातें मैंने कही थीं। निस्संदेह इन बातों से बहुसंख्यक छात्र समुदाय का हृदय आन्दोलित हो उठा। गुजरात में छात्र आन्दोलन शुरू होने के पहले मैं वहाँ गया तो नहीं था, परन्तु उसके कुछ प्रमुख नेताओं ने दावा किया था कि उन्होंने मेरे ही नेतृत्व का अनुसरण किया है।

इसके और भी पहले, मैंने राजनीतिक भ्रष्टाचार (दल, शासन और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार) के विरुध्द काफी कुछ लिखा था और बोला था। साथ ही मैंने उसको रोकने के उपाय सुझाये थे तथा चुनाव-सम्बन्धी कानून एवं पध्दति में सुधार लाने की आवश्यकता बतायी थी। खासतौर से इन्हीं बातों के सम्बन्ध में चर्चा करने के लिए मैं 1973 में दो बार प्रधानमंत्री से मिला भी था। लेकिन उनसे बिलकुल निराश होकर ही लौटा था उसी समय मैंने एक लेख लिखा था जिसमें मैंने घोषणा की थी कि इस देश के लोग जिस भ्रष्ट व्यवस्था से पीड़ित हैं, उससे मुक्त्ति पाने के लिए उन्हें स्वयं संघर्ष करना चाहिए और उनके संघर्ष के तरीके सहज रूप से शान्तिपूर्ण होने चाहिए।  भ्रष्टाचार के अलावा भूख, बेकारी, मुद्रा-स्फीति से, अनेक प्रकार के सामाजिक एवं आर्थिक अन्यायों से तथा वर्तमान व्यर्थ, वर्गनिष्ठ शिक्षा-व्यवस्था से भी संघर्ष करना चाहिए; क्योंकि यह शिक्षा-व्यवस्था एक ओर तो हमारे अधिकांश बच्चों को अशिक्षित छोड़ देती है और दूसरी ओर वह बच्चों को गलत ढंग से शिक्षित करती है। अतः मैंने जनता और छात्रों का आवाहन स्वयं अपनी समस्याएँ हल करने के लिए किया, और इसी पृष्ठभूमि में  गुजरात और बिहार में आन्दोलन हुए।

अस्तु, यह सही है कि दो महीनों या करीब इसी अर्से के दौरान छात्र-समुदाय से मेरा एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध स्थापित हो गया।

दूसरी बात, 5 जून 1974 को गांधी मैदान (पटना) में छात्रों और नागरिकों की जो विशाल सभा राजभवन तक जुलूस ले जाने और राज्यपाल को माँगपत्र समर्पित करने के बाद हुई थी, उसमें मैंने घोषित किया था कि बिहार आंदोलन अब केवल 12 प्रारम्भिक माँगों तथा 18 मार्च के बाद जोड़ी गयी कुछ अन्य माँगों तक (जिसमें सबसे प्रमुख माँगें मंत्रिमण्डल के त्यागपत्र और विधानसभा के विघटन की थीं) सीमित छात्र-आंदोलन नहीं रहा, बल्कि अब इस आंदोलन का या इस संघर्ष का अन्तिम लक्ष्य सम्पूर्ण क्रांति है। मेरी इस घोषणा का स्वागत जोरदार हर्ष-ध्वनि से किया गया था, और इस प्रकार उसपर छात्र तथा जनता की उत्साहपूर्ण स्वीकृति की मुहर भी लग गयी थी। इस लक्ष्य का भी कोई विरोध नहीं हुआ, बल्कि मेरे छात्र बन्धु तथा अन्य सहयोगी बार-बार यही माँग कर रहे थे कि सम्पूर्ण क्रान्ति के लक्ष्य का स्पष्टीकरण और उसकी व्याख्या मैं करूँ। अनेक चर्चाओं तथा सार्वजनिक भाषणों में मैंने ऐसा किया भी और वह सारा ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ नाम की पुस्तिका में प्रकाशित हुआ है। (मैं संक्षेप में इसकी व्याख्या बाद में करूँगा।)

यहाँ इतना कहना काफी होगा कि छात्रों की सीमित माँगें भी- जैसे भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी का निराकरण, शिक्षा में क्रान्ति आदि सर्वांगीण सामाजिक क्रान्ति, जो सम्पूर्ण क्रान्ति का वास्तविक अर्थ है, के बिना पूरी नहीं की जा सकती हैं। आगे मैंने यह भी बताया (जो पूर्वोक्त्त वाक्य में निहित है) कि केवल मंत्रिमण्डल का त्यागपत्र या विधानसभा का विघटन काफी नहीं है, आवश्यकता एक बेहतर राजनीतिक व्यवस्था निर्माण करने की है।

यहाँ अपने लिए थोड़ा विषयान्तर करना शायद उचित ही होगा। जब मैं उच्च विद्यालय में था, तब ही क्रांति का विचार मेरे मन में अंकुरित हो गया। उस समय वह राष्ट्रीय क्रान्ति, राष्ट्रीय स्वतंत्रता का विचार था। इसी विचार से जब गांधीजी ने असहयोग का आह्वान किया, तो मैंने इस विचार से प्रभावित होने के कारण उसका प्रत्युत्तर दिया। (असहयोग आन्दोलन का ज्वार जब भाटे में बदल रहा था, तो असहयोग करने के बीस महीने बाद मैं अमरीका चला गया, क्योंकि मैं आगे भी पढ़ना चाहता था, परन्तु ब्रिटिश या उससे सहायता–प्राप्त विश्वविद्यालयों में लौटने, यहाँ तक कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी जाकर पढ़ने के लिए भी मैं तैयार नहीं था और जिन विद्यापीठों की स्थापना उस समय हुई थी, वहाँ विज्ञान के अध्ययन की सुविधाएँ नहीं थीं, जबकि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था।) उच्च विद्यालय में पढ़ते समय मैंने स्वामी सत्यदेव परिव्राजक के भाषणों और लेखों से यह जान रखा था कि गरीब घरों के विद्यार्थी काम करते हुए अमरीकी विश्वविद्यालयों में पढ़ सकते हैं; वहाँ कमाई और पढ़ाई साथ चल सकती है।

क्रान्ति करने की जो तीव्रता मेरे मन में थी, वह मुझे मार्क्सवाद की तथा राष्ट्रीय आजादी के आन्दोलन से गुजरकर लोकतान्त्रिक समाजवाद की ओर और फिर विनोबाजी की ‘प्रेम से क्रान्ति’ की ओर खींच ले गयी। विनोबाजी के आन्दोलन में शामिल होने के पूर्व उनके साथ चर्चाएँ कर मैं आश्वस्त हो गया था कि उनका लक्ष्य मात्र जमीन बाँटना नहीं, बल्कि मनुष्य एवं समाज का सम्पूर्ण परिवर्तन करना है, जिसे मैंने दोहरी क्रान्ति, मानवीय क्रान्ति के द्वारा सामाजिक क्रान्ति की संज्ञा दी थी।

क्रान्ति (राष्ट्रीय क्रान्ति के बाद सामाजिक क्रान्ति) के साथ मेरा ऐसा पुराना लगाव होने के कारण जब मुझे लगा कि ग्राम-स्वराज्य आन्दोलन से वह अहिंसक क्रान्ति (जिसकी चर्चा हम पूरे बीस साल तक यानी 1954 में जब मैं विनोबाजी के साथ हुआ तब से 1974 तक करते रहे) होनेवाली नहीं है तो मैं दूसरे रास्ते की तलाश करने लगा। साथ-साथ इन वर्षों के दौरान गोष्ठियों एवं सम्मेलनों के माध्यम से सरकार की नीति और उसकी नियोजन-पद्धति में तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में जिसमें चुनाव-सम्बन्धी सुधार भी शामिल थे, परिवर्तन कराने की कोशिश की थी। आरम्भिक वर्षों में इन गोष्ठियों और सम्मेलनों में सत्तारूढ़ दल के प्रमुख नेताओं को भी मैं शामिल करता था। परन्तु ये सारे प्रयास जवाहरलाल जी के रहते हुए भी बेकार सिद्ध हुए। तिमिंगल अपने ही रास्ते चलता गया। इन प्रयासों की परिणति 1973 में श्रीमती गांधी के साथ मेरी मुलाकात में हुई और मैं उस निष्कर्ष पर पहुँचा जिसके बारे में ऊपर लिख चुका हूँ।

इस प्रकार जब बिहार में छात्रों के आन्दोलन ने जोर पकड़ा, उसकी पुकार उठी और उसे कुछ हद तक जनता की- ग्रामीण जनता की भी- सहानुभूति, समर्थन एवं सहयोग प्राप्त हुआ, तब मैंने सोचा कि आन्दोलन को सम्पूर्ण क्रान्ति की दिशा में मोड़ने का समय आ गया है। 5 जून 1974 की सभा के बाद आन्दोलन में शामिल विपक्षी दलों ने भी जब सम्पूर्ण क्रान्ति से सहमति व्यक्त्त की- यह मैं नहीं कह सकता कि उनका उसमें विश्वास और उनकी प्रतिबद्धता किस हद तक वास्तविक थी- तो सम्पूर्ण क्रान्ति व्यापक रूप से संघर्ष का लक्ष्य मान ली गयी। फिर क्या था, आदिवासी पृष्ठ-प्रदेश को छोड़ पूरे बिहार में यह नारा और गीत गूँजने लगा- “सम्पूर्ण क्रान्ति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।”

यह गीत तो नहीं, पर इस नारे की अनुगूँज भारत के सभी हिन्दी-भाषी और हिन्दी समझने वाले राज्यों में तेजी से फैली। तो क्या यह एक राष्ट्रव्यापी क्रान्तिकारी आन्दोलन की शुरुआत थी? मेरे देशव्यापी दौरों से निस्संदेह एक उत्साहवर्धक जन-जागरण पैदा हुआ था। परन्तु बिहार आन्दोलन के देशव्यापी होने का समय आ गया है, इसमें मुझे शंका थी। शंका इसलिए थी कि मुझे समुचित नेतृत्व का अभाव नजर आता था।

दूसरी बात यह कि ज्यों-ज्यों आम चुनाव नजदीक आने लगा, प्रतिपक्ष का ध्यान अधिकाधिक चुनाव की ओर और जो नवजागरण पैदा हुआ था, उसका उपयोग चुनाव जीतने के लिए किया जा सकता है, इस संभावना की ओर मुड़ने लगा था। मैं न केवल इसके विरुद्ध नहीं था, बल्कि केंद्र में कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ने के लिए उत्सुक भी था। इसलिए समग्र सामाजिक परिवर्तन के लिए चल रहे आंदोलन से प्रतिबद्ध होने और आनेवाले चुनावों में उस संघर्ष से उत्पन्न वातावरण का लाभ लेने के लिए उन्हें मैंने प्रोत्साहित भी किया।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैंने यह भी कोशिश की कि सभी विपक्षी दल मिलकर एक दल बना लें अथवा गुजरात के जनता मोर्चे की तरह एक मोर्चा गठित कर लें। इन सब बातों में मेरी दिलचस्पी इसलिए थी कि सत्ता पर कांग्रेस का एकाधिकार तोड़ने के अलावा मैं चाहता था कि जन-संघर्ष से विपक्षी दलों की प्रतिबद्धता का इस्तेमाल किया जा सके और केंद्र में तथा राज्यों में सफलता प्राप्त होने की स्थिति में नयी सरकारें हमारे क्रांतिकारी आंदोलन की सहायक बनें और उसमें भाग भी लें।

अब मैं जनसंघर्ष के एक महत्त्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट करना चाहूंगा जिसकी चर्चा मैं बहुत कर चुका हूं और जिसको अब भी लोग पूरी तरह समझ नहीं पाये हैं, ऐसा मुझे भय है। इस संबंध में किसी दूसरे दिन लिखूंगा। साथ ही यह भी बताऊंगा कि यह क्रांति सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया से क्यों नहीं हो सकती।

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