— सुनील —
किशन पटनायक को राजनीति और मीडिया की मुख्य धारा में स्थान क्यों नहीं मिला? साथी जोशी जेकब ने मुझसे यह सवाल पूछा और इसपर लिखने को कहा है। इसके दो आयाम हैं। एक तो किशन पटनायक के विचार, व्यक्त्तित्व और कार्यशैली। दूसरा स्वयं राजनीति और मीडिया का अपना चरित्र। दोनों शायद एक दूसरे के लिए बेमेल थे। यह बेमेलपन दोनों पर एक टिप्पणी है।
किशन जी को मैं पहली बार मिला, तब मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था। किशन जी और उनके जैसे कुछ व्यक्तियों से मिलने के बाद राजनीति के बारे में मेरे विचार बदल गए। इसके पहले आम लोगों की तरह मैं भी समझता था कि राजनीति गन्दी चीज है। दुष्ट और बेईमान लोगों का क्षेत्र है। मुझे इससे क्या लेना-देना? लेकिन किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा रामइकबाल बरसी, जसवीर सिंह, चेंगल रेड्डी जैसे लोगों के सम्पर्क में आने के बाद राजनीति के प्रति मेरा नजरिया ही बदल गया। तब समझ में आया कि राजनीति एक मिशन भी हो सकती है। राजनीति एक सपना भी हो सकती है- देश व दुनिया को बदलने और बेहतर बनाने का। बल्कि समाज में सामूहिक रूप से किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप अनिवार्य रूप से राजनैतिक होगा। मुझे पता चला कि राजनीति के साथ एक पूरा विचार एवं विचारधारा का भी जोड़ हो सकता है। राजनीति में वैचारिक लोग भी हैं। समाज के लिए कुछ करनेवालों के लिए राजनीति एक अनिवार्य चुनौती है।
धीरे-धीरे इसका नशा मुझे चढ़ता गया और पता नहीं कब मेरे जीवन का ध्येय और रास्ता ही बदल गया। मेरे इस रूपांतरण में किशन पटनायक का एक महत्त्वपूर्ण योगदान था।
किशन पटनायक ने पता नहीं ऐसे कितने नौजवानों को प्रभावित व प्रेरित किया होगा। एक ऐसे समय में जब राजनीति में आदर्शों और मूल्यों का तेजी से लोप होता जा रहा है, किशन पटनायक जैसे नेता व विचारक बहुत बड़े संबल व प्रेरणा स्रोत थे।
बहुत कम उम्र में संसद के नौजवान सदस्य बन जानेवाले किशन पटनायक के जीवन का उत्तरकाल इस देश में समाजवादी आंदोलन के पराभव का काल था। समाजवादी आंदोलन, समाजवादी पार्टी, समाजवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरावट को किशन पटनायक ने बहुत नजदीक से देखा, समझा, महसूस किया और व्यथित हुए। इस गिरावट में शामिल होना उन्हें मंजूर नहीं था। इससे व्यथित होकर चुप बैठ जाना व निष्क्रिय हो जाना भी उन्हें कबूल नहीं था।
समाजवादी आंदोलन और समाजवादी विचार को बचाने तथा पुनः स्थापित करने के लिए किशन जी ने लगातार अथक संघर्ष किया। अकेले पड़ जाने का जोखिम उठा कर भी उन्होंने गिरावट की इन प्रवृत्तियों का विरोध किया और चेतावनी दी। उनकी चेतावनियां बाद में सच साबित हुईं। यदि उनके साथी उन चेतावनियों पर ध्यान देते, तो शायद इतिहास आज दूसरा होता। 1977 में जनता पार्टी से बाहर रहनेवाले वे शायद अकेले समाजवादी नेता थे। लेकिन जनता पार्टी का जो हश्र हुआ, उसने किशन पटनायक को सही साबित किया। इस मामले में किशन पटनायक दूरद्रष्टा और निर्मोही थे। वे पहले ही ताड़ लेते थे और मोह छोड़कर पतन की प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष में लग जाते थे। लोहिया विचार मंच, छात्र-युवा संघर्ष समिति, समाजवादी जन परिषद, जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, लोक राजनैतिक मंच, चौरंगी वार्ता, सामयिक वार्ता- ये सब उनके लगातार, अथक आजीवन संघर्ष के प्रमाण हैं। कैसे मृत्युपर्यन्त, शरीर जर्जर हो जाने के बाद भी, अपने मूल्यों और लक्ष्य के लिए प्रयास किया जा सकता है, हम उनसे सीख सकते हैं।
आमतौर पर उम्र बढ़ने के साथ आदमी की नयी पहल करने की क्षमता चुक जाती है। पुराने के साथ उसको मोह हो जाता है। बुढ़ापे में वह कुछ नया कदम उठाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। किशन पटनायक इसके एक जबरदस्त अपवाद थे।
समाजवादियों की गिरावट पर किशन पटनायक निर्मम प्रहार करते थे। इस मामले में वर्ष 1980 या 81 का एक प्रसंग मुझे याद है। इंदौर में समता युवजन सभा का प्रादेशिक शिविर हुआ था, जिसमें मैं दिल्ली से आकर शरीक हुआ था। उन दिनों समाजवादियों को फिर से एक करने की बात बहुत चलती थी। कई भोले समाजवादी कार्यकर्ता सोचते थे कि ऐसा हो गया तो चमत्कार हो जाएगा और समाजवादी आंदोलन के सुनहरे दिन लौट आएंगे। शिविर में किसी ने इस विषय में प्रश्न किया। किशन जी ने जो जवाब दिया, वह मेरे दिमाग पर अंकित हो गया, जिसे मैं भी बाद में दुहराता रहा। किशन जी ने एक रूपक पेश करते हुए कहा कि जिस प्रकार से जाति का निर्धारण जन्म से हो जाता है, फिर उस व्यक्ति का कर्म, चरित्र, आचरण या विचार कुछ भी हो, उसकी जाति वही बनी रहती है, उसी प्रकार से समाजवादी होना भी एक जात बन गया है। जो कभी सोशलिस्ट पार्टी में था जिसका राजनैतिक जन्म कभी इस पार्टी में हुआ, वह आज चाहे जिस पार्टी में हो, उसका विचार, आचरण और कर्म आज चाहे समाजवादी हो या न हो, वो सारे लोग फिर भी ‘समाजवादी’ कहलाते हैं। ऐसे ‘समाजवादी’ न तो एक जगह आ सकते हैं और न उनको एक जगह लाने से कुछ हासिल होगा। किशन जी का यह निष्कर्ष भी सही साबित हुआ।
समाजवादियों की गिरावट को बहुत पहले पहचान कर किशन जी अपने कुछ थोड़े से साथियों के साथ समाजवादी आंदोलन को नए सिरे से खड़ा करने में जुट गए थे। समाजवादी विचार और समाजवादी धारा को इस कठिन समय में जिन्दा रखने का काम किशन पटनायक, सच्चिदानन्द सिन्हा, केशवराव जाधव जैसे लोगों ने किया।
अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में किशन पटनायक ने ‘सामयिक वार्ता’ में लोहियावादियों पर एक लेख लिखा। अंग्रेजी में यह लेख ‘जनता’ में ‘आउटग्रोईंग राममनोहर लोहिया’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिन्दी लेख का शीर्षक मुझे अभी याद नहीं है। इस लेख में उन्होंने लोहियावादियों को काफी लताड़ा था। उन्होंने कहा कि लोहिया के अनुयायी आज भी बीस वर्ष पुराने लोहिया के नारों व मुहावरों को दुहराते हैं। इसका मतलब है कि उन्होंने लोहिया के विचार को आत्मसात नहीं किया है। यदि करते, तो अपनी भाषा और अपने मुहावरों में उनको अभिव्यक्त करते। किशन जी का यह लेख कई लोहियावादी समाजवादी नेताओं को पसंद नहीं आया। किशन जी के समवयस्क समता संगठन के कुछ नेताओं ने भी टिप्पणी की कि किशन स्वयं को लोहिया से बड़ा समझने लगा है। लेकिन किशन पटनायक की यह चेतावनी भी सोलह आने सच साबित हुई। लोहिया के ज्यादातर अनुयायी समाजवादी विचार और राजनीति को पूरी तरह छोड़ते चले गए।
लोहियावादियों और समाजवादियों का यह पतन क्यों हुआ, यह एक अनुसंधान का विषय है। लेकिन किशन पटनायक जैसे चंद नेताओं ने इस गिरावट को रोकने का जो अथक संघर्ष किया, वह भी इतिहास में दर्ज होगा।
लोहिया और किशन पटनायक में कई समानताएँ थीं। लोहिया की भाँति किशन पटनायक भी मूलतः एक विचारक थे और संगठन निर्माण तथा प्रचलित राजनीति में उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली। लेकिन अपने विचारों को फैलाने और उनकी अलख जगाने में वे लगातार लगे रहते थे। इसलिए गोष्ठियों, सेमिनारों और शिविरों का आमन्त्रण मिलने पर वे मना नहीं कर पाते थे। वे बहुत धीरे-धीरे बोलते थे, और आम सभाओं के लिए वे बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे, यह वे खुद कहते थे। हालांकि सम्मेलनों और आम सभाओं के उनके कुछ जोशीले भाषण सुननेवालों को आज भी याद हैं।
किशन पटनायक के विचार मूलतः गांधी और लोहिया से प्रेरित थे, लेकिन नये संदर्भों में नये ढंग से नये रूपकों व उदाहरण के साथ, अपने विचारों को रखने का काम वे बखूबी करते थे। लोहिया उनके गुरु थे, लेकिन अपने लेखों व भाषणों में लोहिया का नाम वे कभी नहीं लेते थे और न लोहिया को उद्धृत करते थे। अलबत्ता गांधी का जिक्र उनके लेखों में आता है और गांधी पर उन्होंने बोला व लिखा भी है। बाबा वाक्यं प्रमाणम् की प्रवृत्ति के वे सख्त खिलाफ थे।
पर्यावरण और विकास के प्रश्न लोहिया के समय उतने उभर कर नहीं आए थे, लेकिन किशन पटनायक ने इन प्रश्नों पर बार-बार बोला व लिखा और इसे समाजवादी विचार का एक केंद्रीय हिस्सा बनाया। उनका सबसे अच्छा लेखन विकास व तकनालाजी के मुद्दों पर ही है।
वैश्वीकरण के खिलाफ चेतावनी देनेवाले सर्वप्रथम लोगों में वे भी एक थे। उनमें एक गजब की अंतर्दृष्टि थी और कई घटनाओं और प्रवृत्तियों को वे पहले ही देख लेते थे। वैश्वीकरण के संपूर्ण विरोध का बार-बार आह्वान उन्होंने किया तथा इस बात पर भी जोर दिया कि वैश्वीकरण के विकल्प की बात किये बगैर यह लड़ाई अधूरी और एकांगी रहेगी।
किशन पटनायक मार्क्स के पूरे विरोधी नहीं थे और मार्क्स के विचारों का कुछ असर उनके ऊपर दिखायी देता था। 1977 में ‘सामयिक वार्ता’ में जयप्रकाश नारायण का साक्षात्कार प्रकाशित किया गया था, जिसमें इस बात को प्रमुखता दी गयी थी कि जेपी ने ‘वर्ग संघर्ष’ की अनिवार्यता को स्वीकार किया। लेकिन मार्क्सवादियों से बहस चलाना और भारतीय कम्युनिस्टों पर वैचारिक प्रहार करना उनका प्रिय शगल था, हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन कौशल और टिकाऊपन के कुछ पहलुओं की वे तारीफ करते थे और उनसे सीखने का आग्रह करते थे। हर मुद्दे पर मार्क्सवादियों के विचारों का खंडन उनके भाषणों में अनायास आता था जो हमें कभी-कभी अटपटा और अप्रासंगिक लगता था। वे उस युग के थे जब पूरी दुनिया में विचारधाराओं का द्वन्द्व चल रहा था और अब हम विचारहीनता के युग में जी रहे हैं, जब वैचारिक बहस उत्तरोत्तर कम होती जा रही है। यह भी एक बड़ी चुनौती है, जिसका मुकाबला करने में किशन पटनायक हमारे मददगार हैं।
(यह लेख किशन जी के निधन के बाद उन पर केंद्रित सामयिक वार्ता के जनवरी 2005 के अंक में प्रकाशित हुआ था। उनकी जयंती पर इस लेख की पहली किस्त। कल पढ़िए दूसरी किस्त )