मुख्यधारा को मोड़नेवाला कर्मयोगी : तीसरी किस्त

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किशन पटनायक (30 जून 1930 - 27 सितंबर 2004)
सुनील (4 नवंबर 1959 – 21 अप्रैल 2014)

— सुनील —

स्सी के दशक के शुरू में सच्चिदानंद सिन्हा ने ‘आन्तरिक उपनिवेश’ की अवधारणा पर एक लंबा परचा लिखा। देश के विभिन्न आंदोलनों को समझने और एक सूत्र से जोड़ने की वैचारिक दृष्टि इससे मिलती है। किशन पटनायक की भी यही दृष्टि थी। किशन जी और सच्चिदा जी में काफी वैचारिक साम्यता रही। विकेन्द्रीकरण, विकास, तकनालाजी, साम्प्रदायिकता, निःशस्त्रीकरण, वैश्वीकरण, आरक्षण, जातिवाद, देश की राजनीति आदि पर दोनों ने, मामूली मतभेदों को छोड़कर, एक ढंग से चीजों को देखा। उनकी दृष्टि मूलतः गांधी व लोहिया की दृष्टि है, लेकिन मार्क्स और आम्बेडकर का भी कुछ असर दिखाई देता है। समाजवादी विचार को आगे बढ़ाने में दोनों का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाएगा।

किशन पटनायक ने अपने लेखन व भाषणों में देश के बुध्दिजीवियों को बार-बार संबोधित किया। उन्हें लताड़ा भी, आह्वान भी किया। ‘प्रोफेसर से तमाशगीर’ उनका जबरदस्त लेख है। भारतीय बुध्दजीवियों के ‘गुलाम दिमाग में छेद’ तो एक मुहावरा बन चला है। शास्त्रों और सामाजिक विज्ञान को नए ढंग से लिखने, गुलामी की विरासत से मुक्त कराने और हमारी मुक्ति के संघर्ष में सहायक बनाने का आह्वान उन्होंने किया। मीडिया को भी वे लताड़ते थे। उन्होंने मीडिया को खुश करने की कोशिश कभी नहीं की और न ही आधुनिक नेताओं व एक्टिविस्टों जैसा मीडिया प्रबन्ध किया। दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, गरीबों तक राजनीति को ले जाने, उन्हें संगठित करने, उऩका नेतृत्व उभारने की जरूरत उऩ्होंने प्रतिपादित की। उऩके नेतृत्व में 1980 में समता संगठन के साथियों ने जमीनी राजनीति करने और सघन क्षेत्र बनाने का निश्चय किया, जो जनता पार्टी की शिखर व हवाई राजनीति के अनुभव का एक जवाब था। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में मध्यम वर्ग के कार्यकर्ताओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होगी, यह भी वे मानते थे। इसलिए मध्यम वर्ग को संबोधित करने और उद्वेलित करने में भी वे लगे रहते थे।

विचारों में किशन पटनायक जितने कट्टर थे, राजनैतिक व्यवहार और संगठित मामलों में काफी उदार थे। संगठन की कमेटियों की बैठकों और शिविरों में वे कम तथा सारगर्भित बोलते थे और उन्हें उत्तेजित या क्रोधित होते हुए बहुत कम देखा गया। अन्य समाजवादियों तथा बड़े राजनैतिक दलों के प्रति वे काफी आलोचक रहे, लेकिन जीवन के उत्तर काल में वे अन्य समाजवादी समूहों, जन संगठनों और जन आंदोलनों के साथ ज्यादा मेलजोल हो, तथा देश में कोई बड़ा आंदोलन खड़ा हो, कोई बड़ा माहौल बने, बड़ी राजनैतिक धारा बने- इसके समर्थक थे। अन्य समूहों व संगठनों की गलत बातों को वे नजरअंदाज कर रहे हैं, ऐसा मेरे जैसे कुछ साथियों को कभी-कभी लगता था और झुंझलाहट होती थी। जून 2004 में उनके भोपाल प्रवास के दौरान उनसे इस विषय पर चर्चा हुई थी। बाद में उन्होंने एक लंबा पत्र मुझे लिखा।

सांसारिक पैमानों पर नापें, तो किशन पटनायक एक असफल व्यक्ति थे। देश में कोई बड़ा जन आंदोलन वे नहीं खड़ा कर पाए, देश को हिला नहीं पाए, बड़ी वैचारिक हलचल भी वे पैदा नहीं कर पाए। पिछले नौ वर्षों से जिस राजनैतिक दल ‘समाजवादी जन परिषद’ की स्थापना उन्होंने अन्य साथियों के साथ मिलकर की, उसे भी अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी है। उनके कई अनुयायी और साथी उन्हें छोड़कर चले गए, कई तो मुख्य धारा की राजनीति में चले गए। शिवानंद तिवारी, नीतीश कुमार, भक्तचरण जैसों की एक सूची है। लेकिन किशन जी की खूबी यह थी कि वे निराश नहीं हुए, अपने रास्ते से डिगे नहीं, ‘एकला चलो’ की हिम्मत उनमें थी और वे नए व युवा साथी खोजते हुए ‘चरैवेति-चरैवेति’ के सूत्र का पालन करते रहे।

फिर सफलता-असफलता का पैमाना क्या है, यह भी सोचना पड़ेगा। किशन पटनायक तो उन महान व्यक्तियों में से हैं, जिनके कृतित्व, व्यक्तित्व और विचारों का असर उनकी मृत्यु के बाद भी रहता है। उनके योगदान का फैसला सिर्फ उनके जीवन काल से नहीं हो सकता। वैसे देखें तो मार्क्स, गांधी, लोहिया और जयप्रकाश को भी असफल माना जा सकता है। इन सब ने अपना कर्तव्य पूरा किया और इतिहास पर अपनी छाप छोड़ी है। किशन पटनायक भी मृत्युपर्यन्त अपने मिशन और लक्ष्य में लगे रहे। अपना काम उन्होंने बखूबी व मुस्तैदी से किय़ा। यह अब उनके बाकी साथियों, बाकी समाज, देश और दुनिया के ऊपर है कि वे उनके जैसे महान पुरुष का कितना उपयोग कर पाते हैं और उनके मार्गदर्शन व विचारों की विरासत का कितना लाभ उठा पाते हैं।

ऊपर की बातों से यह स्पष्ट हो गया होगा कि किशन पटनायक क्यों मुख्य धारा की राजनीति में नहीं चल पाए और मीडिया में लोकप्रिय क्यों नहीं हो पाए। किशन पटनायक तो मुख्य धारा से बगावत करने वाले और उसे मोड़ने का हौसला रखने वाले योध्दा थे। वे उस वैद्य की तरह थे जो बीमार समाज को स्वस्थ बनाने के लिए कड़वी दवा देना चाहते थे। यह दवा बहुतों को पसंद नहीं आती थी, लेकिन आज या कल इस कड़वी दवा को पीने से ही समाज स्वस्थ हो पाएगा।

प्रश्न को पलट कर राजनीति और मीडिया से भी पूछना पड़ेगा कि तुम किशन पटनायक जैसे मनीषी, कर्मयोगी, विचारक, योद्धा और महात्मा के लायक क्यों नहीं बन पाए और उनको अपने अंदर स्थान क्यों नहीं दे पाए? यह प्रश्न बार-बार पूछेंगे और इसका जवाब खोजेंगे, तो ही शायद दुनिया को बदलने का रास्ता खुलेगा और किशन पटनायक जैसे मनीषियों की मेहनत सफल हो सकेगी।

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