नेहरूजी के जीवन में सादगी थी या विलासिता

0

Pankaj Mohan

— पंकज मोहन —

नेहरूजी के जीवन में सादगी थी या विलासिता, पटेल से उनके सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण थे या वैमनस्यपूर्ण, इसकी जानकारी प्राप्त करने के लिये हमें इतिहास के मौलिक स्रोत जिनमें समकालीन स्वतंत्रता सेनानियों के संस्मरण सम्मिलित हैं, पर दृष्टि डालने की जरूरत है। आज छब्बीस जनवरी है। दिसम्बर 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने रावी नदी के तट पर तिरंगा ध्वज फहराया था और नेहरू के नेतृत्व में ही देश ने पूर्ण स्वराज की घोषणा की थी। आज जब क्रीतमीडिया या सोशल मीडिया के फेकन्युज द्वारा भारत के स्वतंत्रता संग्राम के मार्गदर्शक और लोकतांत्रिक भारत के निर्माता पंडित नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व को धूमिल करने का प्रयास किया जा रहा है, हमारे लिये प्रामाणिक मूल स्रोत के आधार पर इतिहास को समझना अत्यन्त आवश्यक हो गया है।

1. सरदार पटेल का आशीर्वाद

जवाहरलाल और मैं साथ-साथ कांग्रेस के सदस्य, आजादी के सिपाही, कांग्रेस की कार्यकारिणी और अन्य समितियों के सहकर्मी, महात्माजी के जो हमारे दुर्भाग्य से हमें बड़ी जटिल समस्याओं के साथ जूझने को छोड़ गये हैं- अनुयायी, और इस विशाल देश के शासन-प्रबन्ध के गुरुतर भार के वाहक रहे हैं। इतने विभिन्न प्रकार के कर्मक्षेत्रों में साथ रह कर और एक दूसरे को जान कर हम में परस्पर स्नेह होना स्वाभाविक था । काल की गति के साथ वह स्नेह बढ़ता गया है और आज लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि जब हम अलग होते हैं और अपनी समस्याओं और कठिनाइयों का हल निकालने के लिए उन पर मिल कर विचार नहीं कर सकते, तो यह दूरी हमें कितनी खलती है। परिचय की इस घनिष्ठता, आत्मीयता और भ्रातृतुल्य स्नेह के कारण मेरे लिए यह कठिन हो जाता है कि सर्व-साधारण के लिए उसकी समीक्षा उपस्थित कर सकें। पर देश के आदर्श, जनता के नेता, राष्ट्र के प्रधान मन्त्री और सबके लाड़ले जवाहरलाल को, जिनके महान् कृतित्व का भव्य इतिहास सब के सामने खुली पोथी-सा है, मेरे अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं है।

दृढ़ और निष्कपट योद्धा की भाँति उन्होंने विदेशी शासन से अनवरत युद्ध किया। युक्तप्रान्त के किसान-आन्दोलन के संगठन कर्ता के रूप में पहली ‘दीक्षा’ पाकर वह अहिंसात्मक युद्ध की कला और विज्ञान में पूरे निष्णात हो गये। उनकी भावनाओं की तीव्रता और अन्याय या उत्पीड़न के प्रति उनके विरोध ने शीघ्र ही उन्हें ग़रीबी पर जहाद बोलने को बाध्य कर दिया। दीन के प्रति सहज सहानुभूति के साथ उन्होंने निर्धन किसान की अवस्था सुधारने के आन्दोलन की आग में अपने को झोंक दिया। क्रमशः उनका कार्यक्षेत्र विस्तीर्ण होता गया, और शीघ्र ही वह उस विशाल संगठन के मौन संगठनकर्ता हो गये जिसे अपने स्वाधीनता-युद्ध का साधन बनाने के लिए हम सब सर्मापत थे। जवाहरलाल के ज्वलन्त आदर्शवाद, जीवन में कला और सौन्दर्य के प्रति प्रेम, दूसरों की प्रेरणा और स्फूति देते की अद्भुत आकर्षण- शक्ति और संसार के प्रमुख व्यक्तियों की सभा में भी विशिष्ट रूप से चमकनेवाले व्यक्तित्व ने, एक राजनीतिक नेता के रूप में, उन्हें क्रमशः उच्च से उच्चतर शिखरों पर पहुँचा दिया है। पत्नी की बीमारी के कारण की गयी विदेश यात्रा ने भारतीय राष्ट्रवाद-सम्बन्धी उनकी भावनाओं को एक आकाशीय अन्तर्राष्ट्रीय तल पर पहुँचा दिया। यह उनके जीवन और चरित्र के उस अन्तर्राष्ट्रीय झुकाव का आरम्भ था जो अन्तर्राष्ट्रीय अथवा विश्व-समस्याओं के प्रति उनके रवैये में स्पष्ट लक्षित होता है। उस समय से जवाहरलाल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा; भारत में भी और बाहर भी उनका महत्त्व बढ़ता ही गया है। उनकी वैचारिक निष्ठा, उदार प्रवृत्ति, पैनी दृष्टि और भावनाओं की सचाई के प्रति देश और विदेशों की लाख-लाख जनता ने श्रद्धांजलि अर्पित की है।

अतएव यह उचित ही था कि स्वातन्त्र्य की उषा से पहले के गहन अन्धकार में वह हमारी मार्ग-दर्शक ज्योति बनें, और स्वाधीनता मिलते ही जब भारत के आगे संकट पर संकट आ रहा हो तब हमारे विश्वास की धुरी हों और हमारी जनता का नेतृत्व करें। हमारे नये जीवन के पिछले दो कठिन वर्षों में उन्होंने देश के लिए जो अथक परिश्रम किया है, उसे मुझसे अधिक अच्छी तरह कोई नहीं जानता । मैंने इस अवधि में उन्हें अपने उच्च पद की चिन्ताओं और अपने गुरुतर उत्तरदायित्त्व के भार के कारण बड़ी तेजी के साथ बढ़े होते देखा है।

आयु में बड़े होने के नाते मुझे कई बार उन्हें उन समस्याओं पर परामर्श देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जो शासन-प्रबन्ध या संगठन के क्षेत्र में हम दोनों के सामने आती रही हैं। मैंने सदैव उन्हें सलाह लेने को तत्पर और मानने को राजी पाया है। कुछ स्वार्थ-प्रेरित लोगों ने हमारे विषय में भ्रान्तियाँ फैलाने का यत्न किया है और कुछ भोले व्यक्ति उनपर विश्वास भी कर लेते हैं, किन्तु वास्तव में हम लोग आजीवन सहकारियों और बन्धुओं की भाँति साथ काम करते रहे हैं। अवसर की माँग के अनुसार हमने परस्पर एक दूसरे के दृष्टिकोण के अनुसार अपने को बदला है, और एक दूसरे के मतामत का सर्वदा सम्मान किया है जैसा कि गहरा विश्वास होने पर ही किया जा सकता है। उनके मनोभाव युवकोचित उत्साह से लेकर प्रौढ़ गम्भीरता तक बराबर बदलते रहते हैं, और उनमें वह मानसिक लचीलापन है जो दूसरे को झेल भी लेता है और निरुत्तर भी कर देता है।

2. “संस्मरण” — आचार्य नरेन्द्र देव

सन् 1928 में कलकत्ते में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। वहाँ कांग्रेस के लक्ष्य के बारे में बड़ी बहस हुई। एक दिन जवाहरलालजी और श्रीप्रकाश जी के साथ मैं कलकत्ते में पैदल जा रहा था। थोड़ी दूर पर सुभाष बाबू, अपने साथियों के साथ, आगे-आगे जा रहे थे। उन्हें देख कर जवाहरलालजी ने कहा कि सुभाष बाबू में यह बड़ा गुण है कि वह अपने सहयोगियों के साथ समानता का व्यवहार करते हैं और बजाय इसके कि खुद मोटर से चलें, सबके साथ सभा-भवन में पैदल ही जाते हैं। उन्होंने यह भी संकेत किया कि हम लोगों को भी ऐसा ही करना चाहिए। उस समय आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों को लेकर उनके मन में बड़ी हलचल मची थी और इस विषय में उनका गान्धीजी तथा मोतीलालजी से गहरा मतभेद हो गया था। इससे वह बहुत दुःखी थे। महात्माजी जवाहरलालजी की कीमत को समझते थे और जवाहरलालजी भी यह जानते थे कि गान्धी-युग में महात्माजी को साथ लेकर ही कुछ हो सकता है। इसीलिए वह जो कुछ मनवा सकते थे उसे मनवा कर सन्तुष्ट हो जाते थे। इसके लिए वह कभी-कभी जिद भी कर बैठते थे और झल्ला भी जाते थे। गान्धीजी प्रायः शान्ति के साथ उनकी सख्त बात भी बरदाश्त कर लेते थे । कभी-कभी गान्धीजी भी अपनी राय का स्पष्ट इजहार कर देते थे और उनका यह संकेत होता था कि अमुक बात नहीं होने पायेगी।

सन् 1942 में में उनके साथ पकड़ा गया भौर अहमदनगर क्रिले में रखा गया। हम लोग निरन्तर साथ रहे। जब अहमदनगर का कैम्प टूटा तब भी में उनके साथ बरेली सेंट्रल जेल भेजा गया। वहाँ से हम लोगों का तबादला अलमोड़ा हो गया, और एक ही दिन हम लोग वहाँ से छूटे। जेल में रात-दिन का साथ होता है, कोई अपना गुण-दोष छिपा नहीं सकता । लगभग तीन साल के जेल जीवन में उनको बहुत नजदीक से देखने का मुझको अवसर मिला। उनका जीवन बड़ा संयत है। नियम से वह कसरत करते थे, स्नान कर चाय पीते थे और तब टेबुल पर बैठ जाते थे। भोजन के बाद तुरंत काम करने लगते और लगभग 3 बजे अगर कभी नींद आयी, तो थोड़ा सो जाते थे। जेल में शाम को बैडमिंटन खेलते थे और थोड़ा टहलते थे। रात को 9 बजे से 11 बजे तक फिर काम करते थे। ज्यादातर पुस्तकें और अखबार पढ़ते थे। पुस्तकों के नोट भी लेते थे। देशी-विदेशी अखबार खूब आते थे और नयी-नयी पुस्तकें भी आया करती थीं । वह अपने मित्रों और साथियों से बड़ा स्नेह करते हैं। यदि कोई साथी बीमार पड़ जाय तो उसकी शुश्रूषा बड़ी सावधानी से करते हैं। एक बार डाक्टर मह‌मूद बहुत बीमार पड़ गये थे। रात को बारह बजे तक जवाहरलालजी उनके पास बैठे रहते थे और कई बार देखने आते थे। में शुरू में लगभग एक साल तक बीमार रहा। हर तीसरे सप्ताह दौरा आ जाता था। इससे काफ़ी कमजोर हो गया था। सब को बड़ी चिन्ता हुई। जवाहरलालजी ने मुझ से सलाह की और उनकी राय से मैंने ‘हैलिवरोल’ लेना शुरू किया। इससे काफी लाभ हुआ और साँस के दौरे बन्द हो गये। ‘मेस’ का इन्तजाम हम लोग बारी-बारी से करते थे। जवाहरलालजी अंडा और चाय बनाना कैदियों को सिखलाते थे। हम लोग खास-खास दिन त्यौहार भी मनाते थे। उस दिन खाने का कमरा सजाया जाता था। इसमें जवाहरलालजी का विशेष हाथ रहता था। हम जहाँ रखे गये थे वहाँ एक बड़ा भारी आँगन था।

उसमें जवाहरलालजी ने फूल-पत्तियाँ लगायी थीं। इससे स्थान सुन्दर हो गया था। उनको सफ़ाई और व्यवस्था बहुत पसन्द है। जब जेल के बाहर रहते हैं तब भी उनका जीवन नियमित रहता है। केवल खेलने का मौक़ा नहीं मिलता और पुस्तक पढ़ने का भी समय कम मिलता है। तिस पर भी सफ़र में वह इसके लिए मौक़ा निकाल लेते हैं। जहाँ रात-दिन का साथ हो वहाँ खटपट हो ही जाती है। ऐसे दो-एक अवसर आये पर जल्दी ही लोग शान्त हो गये। कभी-कभी बहस में गर्मी आ जाती थी। हमारा एक काफ़ी क्लव था । उसमें किसी न किसी विषय पर बहस होती थी, या लोग क़िस्से सुनाते थे। डाक्टर महमूद बड़े दिलचस्प क़िस्से सुनाते थे। बहस में कभी-कभी झड़प हो जाती थी। राजनीतिक कार्यकर्ताओं में झापसी बहस में कभी-कभी झगड़े भी हो जाते हैं। हर एक अपनी बात पर अड़ा रहता है, अपने मत के लिए उसका विशेष आग्रह होता है। उसका मत बन गया है। दूसरे की युक्तियाँ चाहे कितनी ही ठीक क्यों न हों, उसकी राय को नहीं बदल सकतीं। मेरी समझ में ऐसे लोगों से बहस करना बेकार है। जवाहरलालजी दूसरे के पक्ष को समझने की कोशिश करते हैं। हर सवाल के दो पहलू होते हैं और दोनों में कुछ सचाई होती है। जिनका ऐसा विचार होता है उनको एक निश्चित मत बनाने में बड़ी कठिनाई होती है। जवाहरलालजी इसी विचार के हैं और इसी लिए वह कभी-कभी निर्णय नहीं कर पाते। इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका किसी बात पर कोई निश्चित मत ही नहीं है। जिस विषय में उनका मत्त निश्चित हो चुका है उस पर वह दृढ़ रहते हैं। किन्तु कई विषयों में उनको अन्तिम निर्णय करने में दिक्कत होती है।

जवाहरलालजी जनता से शक्ति लिया करते हैं। बड़े-बड़े मजमे उनको अच्छे लगते हैं। अपनी लोकप्रियता देखकर उनको यह विश्वास होता है कि मेरे प्रबन्ध से जनता सन्तुष्ट है। इसमें कभी-कभी धोखा भी हो जाता है। बह जिन लोगों से घिरे रहते हैं उनका विशेष रूप से उन पर प्रभाव पड़ता है। उनकी यूरोपीय शिक्षा-दीक्षा होने के कारण वह इस वर्ग के लोगों के साथ अधिक आत्मीयता का अनुभव करते हैं। परन्तु पिछले 15 साल (1930 के दशक के आरम्भ) से प्राचीन भारतीय सभ्यता का उन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा है। श्रीमती विजयलक्ष्मी के पति आर० एस० पंडित (जिन्होने संस्कृत के कुछ प्रमुख ग्रन्थों का अंग्रेजी में अनुवाद किया) ने उनकी अभिरुचि इस विषय में उत्पन्न की थी जो निरन्तर बढ़ती गयी। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि मुझे यदि यह विश्वास हो जाय कि भारत के लोग निकम्मे हैं तो में उसके लिए क्यों काम करूँ, लेकिन मेरे देश का प्राचीन इतिहास बताता है कि भारत एक महान् देश था, उसने इतिहास का उत्थान-पतन देखा है और उसने बड़े-बड़े आदमी पैदा किये हैं। मध्यम श्रेणी से उनको आशा नहीं थी उसको वह पतनोन्मुख समझते थे । किन्तु उनको यहाँ की साधारण जनता में जीवन दिलाई पड़ता है। उसी के आधार पर वह देश का भविष्य उज्ज्वल मानते हैं।

3. “जवाहर का जौहर” — हरिभाऊ उपाध्याय

जवाहर के “बन्दरपन” का एक क़िस्सा उनके पिता के ही मुँह से सुनिए। पूना-अस्पताल में महात्मा जी का आपरेशन हुआ था। स्व० पं० मोतीलाल जी उनसे मिलने गये। उस समय मैं बापू पर पंखा झल रहा था। और बातों के साथ पं० मोतीलाल जी अपने लाड़ले बेटे की करतूतों का बयान महात्मा जी से करने लगे “मैं जानता हूँ, राजनीतिक विषयों पर तो आप राय नहीं देंगे। परन्तु जवाहर से एक दो बातें तो आपको कहनी ही होंगी।” बापू ने कहा, “हाँ, इसमें आपको पूरा संतोष दूंगा ।” पंडित जी कहने लगे, “एक तो यह कि वह हमारा तो कहना मानता नहीं। चना-चबेना खा लेता है, भरी गर्मी में भी थर्ड क्लास में सफ़र करता है। यह हमसे कैसे देखा और सहा जा सकता है? आपका कहना मानता है तो आप उससे जरूर कहें। त्याग और कष्ट को मैं भी पसन्द करता हूँ, पर यह जहालत है। इससे मुझे काफ़ी दुःख होता है। दूसरे, उसके बन्दरपन की एक हरकत सुनिए- आपने सुनी भी होगी। माघ मेले पर संगम के किनारे इन्तजाम के लिए पुलिस ने बल्लियों से रोक लगा रखी थी; मालवीय जी ने इसका विरोध करने को सत्याग्रह की आवाज उठायी। बस, जवाहर भी वहां जा पहुँचा, और बन्दर की तरह उछल कर बल्लियों के पार संगम में कूद पड़ा। तब से मैं इन्दु से कहने लगा, तेरा बाप तो बन्दर है। इस तरह वह आव देखता है न ताव, बन्दरपन कर बैठता है। इन दो बातों के लिए आप उससे जरूर कहिए।” बापू ने बहुत विश्वास के साथ उस वत्सल पिता को आश्वासन देकर विदा किया ।

4.. “कुछ संस्मृतियाँ” — श्रीप्रकाश

अक्टूबर सन्‌ 1929 में जब महात्मा गान्धी युक्तप्रान्त में दौरा कर रहे थे, हम सब लोगों ने यह उचित समझा कि मसूरी में उन्हें एक सप्ताह का विश्राम दिया जाय, यद्यपि उनके जीवन में ऐसे विश्राम का कोई स्थान नहीं था जिसे हम विश्राम समझते हैँ ।
मसूरी में जवाहरलाल और मैं होटल के एक ही कमरे में ठहरे थे। मुझे सिर के दर्दे की शिकायत छोटी शअवस्था से है और एक रात्रि को–दस बजे से कम का समय न रहा होगा–मैं बड़ी पीड़ा में अपने बिस्तर पर करवटें ले रहा था और मेरा नौकर नागेश्वरसिंह मेरे सिर को दबाने का प्रयत्न कर रहा था । इतने में जवाहरलाल कमरे में आये भौर इस अवस्था में मुझे देख कर फ़ौरन ही बाहर चले गये और थोड़ी देर बाद ‘वेरामन’ नाम की औषधि की एक शीशी लेकर लौटे । दूकान से उसे लाने के लिए उस ठंडी रात में वह अवश्य ही तीन मील चले होंगे । जो लोग उन्हें जानते हें वे यह भी जानते हैं कि बह अपने पास के लोगों का कितना विचार रखते हैं, चाहे वह घर पर हों, जेल में हों, सभा में हों या रेल में सफ़र करते हों । मैंने इसके पहले वेरामन’ का नाम भी नहीं सुना था, यद्यपि सिर का दर्द मुझे कितने ही वर्षों से होता था। इस दवा से मुझे थोड़ी ही देर में शान्ति मिली। तब से मैं इस दवा को हमेशा अपने पास रखा है।

5. “एक सच्चा फ़क़ीर”

1. पटना से (श्री रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्पादन में) निकलने वाली पत्रिका “युवक” के दिसम्बर 1929 के अंक में नेहरूजी पर एक लेख छपा था जिसमें “प्रताप” (सम्पादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी) में प्रकाशित “एक सच्चा फ़क़ीर” नामक लेख के अधोलिखित अंश उद्धृत थे।

“जवाहरलाल जी के सदृश कर्मनिष्ठ पुरुष आज तक मैंने नहीं देखा। प्रातः काल ५ बजे से रात के दस बजे तक मैंने जवाहर को जीवन कर्म करते बहुत नजदीक से देखा है। क्या मजाल कि एक दिन भी उनका नियमित अध्ययन या भोजनोपरांत उनका सूत काटना छूट जाता?
अपना काम आप करना, दूसरों की सहायता की अपेक्षा न करना, यदि कोई उनका काम करने को आवे तो निहायत दृढ़ता, लेकिन मधुरता से उसकी सहायता को स्वीकार न करना, तो जवाहरलाल की नित्य की बातें थी। जवाहरलाल ने बहुत दिनों से अपने आप को de-class करने–अपने श्री-संपन्न श्रेणी जन्य संस्कारों को दूर करने– की क्रिया आरम्भ कर दी थी। वही क्रम जेल में भी जारी था। अपने कपडे आप धो लेना, अपने बिस्तरे को धूप में डालना, अपनी पुस्तकों को स्वयं संभालना, अपने बर्तन आप मांजना–आदि बातें वे स्वयं अपने हाथों करते थे।

जब कभी हमलोग बैठ जाते, तो काव्य चर्चा शुरू होती और जवाहरलाल उस समय पद्यों की जो नपी तुली आलोचना करते, वह सुनने ही बनती थी।उपन्यास, नाटक, काव्य — सब दिशाओं में जवाहरलाल की अद्भुत प्रगति है। गेट का फ़ाउस्ट उन्हें बहुत प्रिय है। रूसी उपन्यासकारों में वे टॉलस्टॉय की अपेक्षा तुर्गनेव को ज्यादा पसंद करते हैं। उनके भारतीय संस्कारों के बारे में मोतीलाल जी ने कहा था, ‘जब जवाहर हैरो में पढता था, तब रोज रात को सोते वक्त गीता का पाठ करता था और गीता को सिरहाने रखकर सोता था’। जवाहरलाल में पूर्व की सेवा भावना और पश्चिम की कर्मशीलता का सुन्दर सम्मिश्रण हुआ है।

जेल में एक टुकड़ी ऐसे आदमियों की बन गयी, जो नित्य कवायद किया करती थीं। मैं उस टुकड़ी का कप्तान था। मैं कड़ककर कहता, स्क्वाड अटेन… शन, और एक सच्चे सिपाही की तरह जवाहरलाल फ़ौरन अकड़कर, तनकर, सावधानी से खड़े हो जाते. मैं आर्डर देता, स्क्वाड, डबल… मार्च। भागे हुए चले जा रहें हैं जवाहरलाल। “

Leave a Comment