— सच्चिदानंद सिन्हा —
(सच्चिदा जी का यह लेख सामयिक वार्ता के अप्रैल 2003 के अंक में पहली बार प्रकाशित हुआ था। जैसा कि इसमें आए हुए हवाले से जाहिर है, साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर तब हुआ घमासान इसकी पृष्ठभूमि में है। लेकिन उस तात्कालिक संदर्भ को छोड़ दें, तो इसमें कुछ भी तात्कालिक नहीं है, रचने-सोचने-लिखने-बोलने की आजादी के मद्देनजर यह लेख सदा प्रासंगिक है।)
साहित्य, इतिहास और समाजशास्त्र जैसे बौद्धिक कार्यों के क्षेत्र, जिनसे समाज को दिशा मिलती है, भारत में स्वयं अपना स्वतंत्र और स्वायत्त चरित्र खोते दिखायी देते हैं। कुछ लोग यह सवाल भी करेंगे कि यह स्वायत्तता या इसकी चिंता हमारे बौद्धिकों में पहले भी रही है क्या? अभी साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर जिस तरह के विवाद उठे उससे स्पष्ट दिखायी दिया कि चुनाव प्रचार की तल्खी के पीछे वह मानसिकता काम कर रही थी जिसका शिकार देश का इतिहास लेखन और शिक्षा संस्थान पिछले दिनों होते रहते हैं। महाश्वेता देवी को तो शायद इसकी कल्पना भी नहीं रही होगी कि उऩकी उम्मीदवारी को साहित्य अकादेमी की पिछली अक्षमताओं और पक्षपात के आरोपों के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया जाएगा। साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाओँ की अध्यक्षता का पद मूलतः प्रतिष्ठा का होता है या होना चाहिए क्योंकि आमतौर से बड़ा साहित्यकार न तो संस्कारों से प्रशासक होता है और न ही उसके पास ऐसे कामों के लिए यथेष्ट अवकाश भी हो सकता है।
यह भी पूछा जा सकता है कि साहित्य सृजन के लिए समुचित वातावरण तैयार करने में किसी स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था की भूमिका हो सकती है क्या? दुनिया के ज्यादातर बड़े साहित्यकारों और कलाकारों ने व्यवस्था और स्वयं अपनी विधाओं में स्थापित मानकों को चुनौती देकर ही अपना सृजन-कर्म किया है। साहित्य और कलाओं के बड़े प्रतिष्ठानों की भूमिका नगण्य रही है या प्रत्यक्ष रूप से बाधक। इस तरह की संस्थाओं की स्थापना में यह खतरा निहित होता है कि आर्थिक या अन्य तरह के समर्थन की ख्वाहिश से ये संस्थाएं स्थापित राज्यसत्ता या प्रभुतासंपन्न वर्गों के प्रभाव में काम करने लगे। अपने क्षेत्र में किसी नई धारा या सोच को प्रसारित करने के लिए साहित्यकारों की अपनी संस्थाओँ का होना अलग बात है। ऐसी संस्थाओं के बीच होनेवाली बहस और आपसी संवाद से सृजन की नई दिशाएं निकलती हैं। राजाश्रय से चलनेवाली संस्थाओं में चापलूसी ही अधिक चलती है।
स्थापित संस्थाओं के प्रभाव से मौलिकता को बचाये रखने की चिंता बड़े विचारकों और दार्शनिकों के सामने सदा रही है।
बर्ट्रेंड रसेल ने यह सुझाव दिया था कि मौलिक कार्य संभव हो इसके लिए समाज को इस बात की गारंटी देनी चाहिए कि कोई भी आदमी न्यूनतम आवश्यक वस्तुओं यथा भोजन-वस्त्र आदि से वंचित नहीं हो चाहे वह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त उद्यम में लगा हो अथवा नहीं। लेकिन इससे अधिक वह समाज से तभी पाए जब वह समाज द्वारा मान्य कोई कार्य करे। अगर कोई रचनाकार अपने विशेष रुझानों के लिए सुविधाओं से वंचित रहने को तैयार है तो उसे इसकी छूट होगी। ऐसे में कलाधर्मी या साहित्यकार अपनी रचना के प्रति विश्वास और उसके लिए वर्जनाओं को बर्दाश्त करने की शक्ति से ही सफलता की आशा कर सकता है। इसमें स्पष्टतः सफलता के मानक उसके अपने कलाधर्म में ही निहित होंगे, सफलता के बाहरी प्रतीक यानी धन, पद, यश आदि नहीं।
साहित्यकार या कलाकार की असली समस्या यह नहीं होती कि उसे किसी प्रतिष्ठान की सहायता मिलती है या नहीं बल्कि यह है कि वह अपनी अनुभूतियों को ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त कर सकता है या नहीं।
बर्तोल्त ब्रेष्त ने, जिसकी पुस्तकों की होली सत्ता में आने के तुरंत बाद दस मई 1943 को नाजियों ने जलाई थी, रचनाकारों के लिए यह सूत्र दिया था- कोई भी व्यक्ति जो आज झूठ और अज्ञान से संघर्ष करना चाहता है और सच्ची बातें लिखना चाहता है उसे पांच नियमों का पालन करना होगा। उसनें इसका साहस होना चाहिए कि सच्ची बातें लिखे, भले ही इसे हर जगह दबाया जा रहा हो, यह कला आनी चाहिए कि इसकी पहचान कर सके, हालांकि हर जगह इसपर पर्दा डाला जा रहा हो, यह कला आनी चाहिए कि इसे साफ औजार की तरह इस्तेमाल कर सके, उन लोगों को पहचानने का विवेक होना चाहिए जिनके हाथ में यह कारगर हो सके। यह कठिनाई उन लोगों के लिए बहुत अधिक है जो फासीवाद के तहत रह रहे हैं लेकिन यह खतरा उन लोगों के लिए भी है जो वहां से निकल भागे हैं, उनके लिए भी जो नागरिक आजादी वाले देशों में लिख रहे है।
इस सूत्र में यह बात निहित थी कि कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं के भीतर भी लेखकों की नियति इससे भिन्न नहीं हो सकती। इससे असली निष्कर्ष यह निकलता है कि बिना भेदभाव के सभी तरह की व्यवस्थाओं के भीतर साहित्यकारों में अपनी लेखकीय स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने की प्रतिबध्दता होनी चाहिए। साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाओं की भूमिका को इसी पृष्ठभूमि में आंकना चाहिए।
साहित्य अकादेमी के चुनाव के पीछे घनीभूत होती आशंका का कारण यह है कि संघ परिवार और इसके साये में चलनेवाली सरकार निश्चित रूप से फासीवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा हे रही है। अभी तक पुस्तकों को जलाने का अभियान तो नहीं शुरू हुआ है लेकिन जिस तरह वाराणसी में दीपा मेहता की ‘वाटर’ फिल्म के निर्माण को हिंसक आक्रमण से रोक दिया गया और मुम्बई में शिव सैनिक समय-समय पर फिल्मों के प्रदर्शन आदि को लेकर हंगामा करते रहे हैं वह इसी मानसिकता का दूसरा रूप है। मुरली मनोहर जोशी पुस्तकों को जलाने के बदले उनके प्रकाशनों को नियंत्रित करके और एक खास कार्यसूची के तहत कुछ को प्रोत्साहित कर वही ध्येय हासिल करना चाहते हैं जिसे हिटलर ने पुस्तकों की होली जलाकर हासिल किया था, यानी विचारों की निर्बाध अभिव्यक्ति एवं सभी तरह के विचारों से अवगत होने के लोगों के अधिकार को नकारना। यह भी एक विडंबना ही है कि यह सब तब किया जा रहा है जब सूचना के अधिकार का सबसे अधिक ढिंढोरा पीटा जा रहा है। लोगों में आशंका यह है कि अब साहित्य अकादेमी भी वैसे ही नियंत्रण में जा रही है, जैसे अभी इतिहास, समाजशास्त्र आदि की संस्थाएं चल रही हैं। लेकिन इस आशंका के पीछे शायद रचनाकारों में पर-निर्भयता और राज्याश्रय की तरफ निहारने की प्रवृत्ति भी काम कर रही है। अगर यह सोच नहीं है तो रचनाकारों के लिए इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि इस सरकारी साहित्यिक संस्था पर कौन लोग हावी हैं। अगर यह संस्था साहित्यकार की स्वायत्तता और साहित्य की गुणवत्ता का तिरस्कार करती है तो साहित्यकार भी इसे और इसके पुरस्कारों को अस्वीकार कर सकते हैं।
इन बातों पर विचार करने से लगता है कि विवादों के पीछे सृजन की आजादी के प्रति गहरी प्रतिबध्दता का अभाव है। यह कोई अचरज की बात भी नहीं है। भारतीय साहित्यकारों में इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़ ज्यादातर लोग कभी भी अपने देश या दूसरे देशों में साहित्यकारों की आजादी पर हुए हमले के खिलाफ खड़ा होने का मन नहीं बना पाए हैं या साहस नहीं जुटा पाते हैं। 1975-77 के आपातकाल को ही लें। उस काल में दो-चार आदर-योग्य अपवादों को छोड़ दे तो- जिनमें कुछ लोग इस पूरे काल में मीसा के तहत बंद रहे- सभी साहित्यकार मौन रहे और उन्होंने कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे जोखिम उठाना पड़े। अभी सबसे अधिक चिंतित दिखायी देनेवाले प्रगतिशील धारा से जुड़े साहित्यकारों का एक हिस्सा इस काल के दमन का समर्थक ही बना रहा।
भारतीय साहित्य में प्रगतिशील या जनवादी कही जानेवाली साहित्यिक धारा में लेखन और चिंतन की बिना शर्त आजादी को कभी बुनियादी मूल्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। मनुष्य की आजादी भी इस धारा के लोगों के लिए ठीक वैसा ही है जैसा फासीवादी धारा के लिए, अपने आप में निर्विवाद मूल्य नहीं। आजादी के अधिकारी वे ही हैं जो ‘क्रांति’ के हित में हैं या लिखते-बोलते हैं, बाकी लोगों का स्थान तो इतिहास के कूड़ेदान में है। और इसी तर्क से उनकी रचनाओं का स्थान भी वहीं होना चाहिए।
लेखकीय आजादी के प्रति इसी दृष्टि का नतीजा था कि सोवियत यूनियन के साहित्यकारों और कलाकारों के ऊपर होनेवाले निर्मम दमन के खिलाफ भारत के प्रगतिवादी एवं जनवादी लेखकों ने कभी आवाज नहीं उठायी। स्टालिन के मरने के बाद ख्रुश्चेव द्वारा लाये गये परिवर्तनों के काल में भी जब सोवियत यूनियन के बाहर की कई कम्युनिस्ट पार्टियों और इस धारा से जुड़ी साहित्यिक संस्थाओं ने सोवियत यूनियन के लेखकों के खिलाफ होनेवाले दमन की आलोचना की, भारत की जनवादी धारा ने कभी भी ऐसे दमन के खिलाफ आवाज नहीं उठायी।
लेखकीय कार्य के लिए दमन का सबसे कुख्यात नमूना सोवियत यूनियन में 1966 में एंद्रे सिन्यावस्की और यूरी दैनियल का मुकदमा और उनकी सजा थी। यह मुकदमा उनके व्यंग्य लेखन को सोवियत यूनियन से बाहर छपवाने के संबंध में था और उन्हें इसके लिए क्रमशः सात वर्ष और पांच वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गयी थी। इस मुकदमे के खिलाफ दुनियाभर के लेखकों और बुध्दिजीवियों ने आवाज उठायी। गुंटर ग्रास, ग्राहम ग्रीन, मौरिया, आर्थर मिलर और इग्नाजियो सिलोने ने उनके मामले को संसार भर के बुध्दिजीवियों के लिए गहरी चिंता विषय बताया था। संसार भर के हजारों लेखकों और बुध्दिजीवियों ने सोवियत सरकार को लिखकर अपना विरोध प्रदर्शित किया था, ‘पेन’ की अनेक देशों की इकिइयों ने अपना विरोध जताया था। पेन के अखिल भारतीय केन्द्र से सोफिया वाडिया ने विरोध प्रकट किया था। संभवतः दुनिया के कम ही बड़े लेखक और बुध्दजीवी रहे हों जिन्होंने अपना विरोध न प्रकट किया हो। यहां तक की ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी जॉन गोलान ने भी ‘डेली वर्कर’ में इसकी आलोचना की। इसी तरह फिनलैंड, डेनमार्क और नार्वे की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्रों में भी इसकी आलोचना हुई। भारत में विजयलक्ष्मी पंडित, राममनोहर लोहिया, पीएन सप्रू आदि सांसदों के अलावा सौ से अधिक लेखकों, शिक्षाविदों ने इसके विरोध में सोवियत सरकार को तार भेजे। लेकिन इन नामों में कहीं किसी जनवादी बड़े साहित्यकार का नाम नहीं था। यह लेखकों के अधिकार के मामले में दिल दहलानेवाली तटस्थता थी। दरअसल आज भारत में हम लेखकों की आजादी और स्वयं उनके अपने कर्तव्य के बारे में वही विरासत ढो रहे हैं।
वे साहित्यकार जो अपनी प्रतिबध्दता के लिए कोई बड़ा जोखिम उठाना नहीं चाहते, साहित्येतर दुनिया के प्रतिष्ठानों और शासन का सहारा सहज भाव से ढूंढ़ते हैं। कोई जरूरी नहीं कि वह स्थापित सत्ता ही हो। यह सहारा भविष्य में सत्ता का कोई वैकल्पिक और विश्वसनीय दावेदार भी हो सकता है। इस दृष्टि के समर्थन में साहित्येतर कसौटियों जैसे प्रगतिशील, प्रतिगामी के आधार पर साहित्य को बांटने की कोशिश होती है। साहित्य की ऐसी कसौटियां भी होती हैं। लेकिन इस कसौटी पर घटिया साहित्य को ऊंचा दर्जा नहीं दिया जा सकता।
चूंकि जनवादी साहित्यकारों में अधिकांश मार्क्सवादी होने का दावा करते हैं उन्हें याद दिलाना जरूरी है कि स्वयं मार्क्स ने साहित्य का आकलन अपने वैचारिक रुझान से नहीं किया। मार्क्स अपने काल का सबसे बड़ा साहित्यकार बालजाक को मानते थे जो उस समय की उदीयमान पूंजीवादी संस्कृति का आलोचक था और उसकी अपनी सहानुभूति पुराने मरणासन्न समाज की मर्यादाओं से थी। हालांकि गोर्की स्वयं सोवियत संघ में साहित्यकारों पर होनेवाले दमन के बारे में प्रायः मौन रहे लेकिन एक बार उन्होंने किसी विदेशी को साक्षात्कार में ‘सोशलिस्ट रियलिज्म’ को ‘गरीब लोगों के लिए गरीब कला’ कहा था। प्रगतिशील लेखकों का साहित्य के संबंध में आकलन उनका निजी मामला है। लेकिन जब तक वे सिध्दांततः साहित्य के क्षेत्र में किसी भी राजकीय संस्था के हस्तक्षेप को अस्वीकार नहीं करते, लेखकीय आजादी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नियंत्रित करने के प्रयासों का विश्वसनीय रूप से विरोध नहीं कर सकते। यह चुनौती है जिसे सभी साहित्यकारों और कलाकर्मियों को स्वीकार करना चाहिए- यानी वे अपने समुदाय के बाहर के किसी सरकारी या गैर-सरकारी आकलन और उनके पुरस्कारों को अपने आकलन में नजरअंदाज करते रहेंगे।