5 जुलाई। सोमवार को जैसे ही फादर स्टैन स्वामी की मृत्यु की खबर आई, देशभर में लोकतंत्र, समता और बंधुता में आस्था रखनेवाले तथा शोषणमुक्त समाज का सपना देखनेवाले तमाम संस्थाओं, संगठनों, समूहों और नागरिकों में शोक की लहर दौड़ गयी। पर कुछ ही पलों में शोक से ज्यादा आक्रोश-भरी प्रतिक्रियाओं से सोशल मीडिया भर गया। फादर स्टैन स्वामी 84 साल के थे। इतनी आयु में मृत्यु कोई बहुत असामान्य बात नहीं मानी जाती। अगर वह जेल से बाहर होते, तो शायद उनकी मृत्यु को इसी तरह लिया जाता। लेकिन उनकी मौत एक स्तब्ध कर देनेवाली खबर बन गयी तो इसलिए कि उसे स्वाभाविक ही मौजूदा केंद्रीय शासन की चरम क्रूरता के प्रमाण की तरह देखा गया।
बहुत-से लोगों ने फादर स्टैन स्वामी की मृत्यु को हिरासत में हत्या का मामला करार दिया है। क्या इसमें अतिशयोक्ति है? आखिर अस्सी पार कर चुके एक व्यक्ति को आतंकवाद निरोधक कानून के तहत बंदी बनाने का क्या औचित्य था? जो अपना गिलास भी नहीं पकड़ सकता था उससे किसको खतरा था? खतरे की कहानी बुनी गयी ताकि स्टैन स्वामी को कैद में डाला जा सके। उनका गुनाह असल में यह था कि वे दशकों से झारखंड में आदिवासियों के हकों और हितों के लिए लड़ते आ रहे थे और कॉरपोरेट द्वारा आदिवासियों की जमीन हथियाए जाने की षड्यंत्रपूर्ण योजनाओं के आड़े आ गए।

जो लोग कृषि क्षेत्र को कॉरपोरेट के हवाले करने के लिए लाखों किसानों को सात महीनों से घरबार छोड़कर सर्दी, गर्मी, बरसात, लाठियां, गालियां, गुंडागर्दियां झेलने के लिए विवश कर सकते हैं उन्हें यह कैसे गवारा होता कि एक बूढ़ा, रोगग्रस्त व्यक्ति सबसे वंचित लोगों की तरफ से सबसे ताकतवर लोगों के सामने खड़ा हो? लिहाजा, स्टैन स्वामी को भीमा कोरेगांव और एलगार परिषद की कहानी से जोड़ दिया गया। यह कहानी ऐसी है जिसमें देश के अनेक नामचीन बुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता अर्बन नक्सल और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताये जाकर बंदी जीवन बिताने के लिए अभिशप्त कर दिए गए हैं। विचाराधीन कैदी के रूप में वे कैद हैं, बिना न्यायिक कार्यवाही के।
इसमें दो राय नहीं कि स्टैन स्वामी मौजूदा शासन की क्रूरता के शिकार हुए, लेकिन सवाल उठता है कि न्यायपालिका और मानवाधिकार आयोग से उन्हें राहत क्यों नहीं मिल पायी? अदालतें क्यों जमानत देने से कतराती रहीं और मानवाधिकार आयोग क्यों सोया रहा? ये संस्थाएं क्या इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि अपने दायित्व का पालन करने से बचने में ही इन्हें अपनी भलाई नजर आती है? महामारी और 84 साल की उम्र के बावजूद स्टैन स्वामी को जमानत नहीं मिली, न भीमा कोरेगांव मामले में फंसाए गए अन्य लोगों को। जबकि इन्हें रिहा करने की अपील कई नोबेल विजेताओं समेत दुनिया भर से उठ चुकी है।
फादर स्टैन को श्रद्धांजलि देते हुए यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या मोदी और आरएसएस के राज में गरीबों, वंचितों के लिए लड़ना सबसे बड़ा गुनाह हो गया है?
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