क्या उप्र विधानसभा चुनाव अगले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल होगा?

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— डॉ अनिल ठाकुर —

भारत की राजनीति अब पूरे साल चुनाव के मूड में रहती है। आनेवाले कुछ महीनों  में फिर से पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा एवं मणिपुर में चुनाव होने हैं। अभी कुछ ही महीनों पहले पांच राज्यों में चुनाव संपन्न हुए हैं जिनमें पश्चिम बंगाल सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य बन गया था। निश्चित रूप से लोकतंत्र में चुनाव सबसे महत्त्वपूर्ण हथियार है। जिससे लोकतंत्र जिंदा रहता है। चुनाव को लोकतंत्र का पर्व माना जाता है। अब आनेवाले समय में यानी  करीब आठ महीने बाद फिर से लोकतंत्र का पर्व दिखने वाला है।

इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश है। उत्तर प्रदेश को दिल्ली यानी केन्द्र की सत्ता का  द्वार माना जाता है। क्योंकि उत्तर प्रदेश देश का सबसे सबसे ज्यादा सीटों वाला राज्य है। यहां लोकसभा की अस्सी सीटें हैं। उत्तराखंड के पास चार लोकसभा सीटें हैं। दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है। अगली लोकसभा का चुनाव 2024 में होना है। लेकिन पांच राज्यों के होनेवाले चुनावों को राजनीतिक विश्लेषकों ने अभी से अगले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल मानना शुरू कर दिया है। सिर्फ राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं, विपक्ष के साथ-साथ सत्ताधारी दल भी उसी मोड में आ गया है।

इसकी कुछ दिलचस्प कहानी है। क्योंकि बीजेपी एवं मोदी सरकार ने बंगाल चुनाव को एक इज्जत का सवाल बना लिया था। जिसमें सफलता नहीं मिली।

इसके अलावा कोराना, महंगाई, बेरोजगारी के साथ-साथ आठ महीनों से चल रहा किसान आंदोलन बीजेपी के लिए संकट का सबब बन गया है।

देश आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। करोड़ों लोग इस कोराना के दौर में  बेरोजगार हो चुके हैं, उसपर से महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही है। पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। इस दौर में गरीब, मजदूर के साथ-साथ मध्यम वर्ग भी परेशान है। खासकर जो लोग प्राइवेट कंपनियों में काम करते थे उनमें से बहुतों की नौकरी चली गई है या उनकी तनख्वाह कम हो गया है। वे घर, मकान, गाड़ी का ईएमआई नहीं दे पा रहे हैं या अपने बच्चों की स्कूल-फीस जमा नहीं कर पा रहे हैं। वैसे कोराना के दौर में पूरी दुनिया आर्थिक तंगी से जूझ रही है लेकिन भारत की स्थिति बहुत ही ख़राब है।

भारत की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था पहले से ही, जीएसटी एवं नोटबंदी के समय से ही खराब हो चुकी है। वर्तमान समय में सरकार चारों तरफ से घिरी हुई है।

भारत सिर्फ आंतरिक समस्याओं से नहीं घिरा हुआ है बल्कि सीमा की स्थिति भी अच्छी नहीं है। पहले से ही कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान से उलझा हुआ था अब तो चीन ने भी सीमा विवाद में फंसाकर भारत को घेरने का प्रयास शुरू कर दिया है।

पश्चिम बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश का चुनाव बहुत ही निर्णयाक भूमिका तय करने वाला होगा। यह बात सत्ताधारी दल के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषक  भी मानते हैं। अभी मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया है। पूरे उत्तर प्रदेश से प्रधानमंत्री सहित सोलह मंत्री हैं। नये मंत्रिमंडल गठन में सात नये मंत्रियों को शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री ने सभी जातियों का समावेश करने का प्रयास किया है। हालांकि प्रधानमंत्री खुद उत्तर प्रदेश से संबंधित हैं। उनका लोकसभा क्षेत्र बनारस है। दो बार से वहां से सांसद हैं। उन्होंने बनारस को क्योटो बनाने का सपना भी दिखाया था। लेकिन कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश का चुनाव 2022 की शुरुआत में प्रधानमंत्री के लिए एक लिटमस टेस्ट भी होगा।

निश्चित रूप पिछले सात साल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना जलवा स्थापित किया। प. बंगाल सहित कुछ राज्यों के नेतृत्व को छोड़ दिया जाए तो यह स्पष्ट है कि केन्द्र के स्तर पर कोई विपक्ष मुकाबले के लिए तैयार नहीं हैं।

हालांकि उत्तर प्रदेश में अभी जो परिस्थिति है उस में प्रधानमंत्री मोदी की स्थिति उतनी मजबूत नहीं दिख रही है। उसके बहुत सारे कारण हैं। 

विधानसभा चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव का रास्ता साफ कर देगा। अभी उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत चुनाव तथा प्रखंड पंचायत हुए हैं। जिला पंचायत के सदस्यों के चुनाव में बीजेपी के उसकी उम्मीद से बहुत कम सदस्य चुनकर आए। इससे बीजेपी के नेतृत्व में एक बड़ी बेचैनी सी दिख रही है। हालांकि बीजेपी ने पंचायत अध्यक्ष के साथ- साथ प्रखंड प्रमुख के चुनाव में जी-जान लगाकर ज्यादा से ज्यादा पद जीतने का प्रयास किया है। सफलता भी मिली लेकिन बीजेपी के ऊपर बड़ा आरोप लगा है कि उसने प्रशासन के साथ मिलकर अपने वर्चस्व को स्थापित करने का प्रयास किया है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। हालांकि समाजवादी पार्टी ने वर्तमान नेतृत्व को बड़ा चैलेंज देने का प्रयास किया है। अगले विधानसभा चुनाव में इसका कितना प्रभाव दिखता है यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा। जबकि कांग्रेस तथा बीएसपी की भूमिका बहुत ही गौण रही है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने पंचायत चुनाव के द्वारा यह दिखाने का प्रयास किया  है कि कैसे बीजेपी वर्तमान में भी अपनी हैसियत बनाये हुए है। लेकिन जिस तरह की सफलता मिलनी चाहिए वो नहीं दिखी। खासकर कोराना काल में इस हिंदी प्रदेश को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है।

बड़े पैमाने पर मजदूरों का पलायन हुआ। मजदूर बेरोजगार हुए। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर हुई। उससे ज्यादा करोना में आम लोगों की परेशानी देखने को मिली। आम लोगों को आक्सीजन से लेकर बेड और दवाई की दिक्कत का सामना करना पड़ा। इससे भी ज्यादा लोगों की मौत का मसला शामिल है। आमलोगों को अंतिम संस्कार के लिए जगह नहीं मिली। आरोप है कि लोगों को अपने परिजनों की लाशों को नदियों में बहाना पड़ा। इससे आमलोगों में गुस्सा देखने को मिला।

दूसरा कारण पिछले आठ महीनों से चल रहा किसानों का आंदोलन है। भाजपा के लिए खास चिंता की बात इसमें पश्चिम उत्तर प्रदेश की भागीदारी है। यहां का किसान किसी भी हालत में बीजेपी सरकार को दोबारा नहीं देखना चाहता है।

यह जाट बहुल इलाका है। पिछले चुनाव में जो बीजेपी के समर्थन थे वे आज खासे नाराज हैं। इतना ही नहीं, यहां के किसानों का गन्ने का बकाया लंबे समय से लंबित है। जबकि भाजपा ने पिछले चुनाव में आश्वासन दिया था कि सत्ता में आते ही भुगतान कर देंगे। लेकिन उसने वादा पूरा नहीं किया। इस तरह किसान की नाराजगी साफ दिख रही है।

तीसरा कारण यह है कि यहां शिक्षित युवा सड़कों पर उतरे हुए हैं। बेरोजगारी को लेकर युवा पूरे प्रदेश में आंदोलित है। सड़कों पर धरना दे रहे हैं। 

चौथा कारण जाति समीकरण है। आरंभ से ही बीजेपी का समर्थक ब्राह्मण एवं जाट रहा है। निश्चित रूप से अयोध्या के राम मंदिर निर्माण के समय से इनका झुकाव बीजेपी की तरफ रहा है लेकिन इस चुनाव में दोनों जातियां खासी नाराज दिख रही हैं

खासकर जाट किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं वहीं विकास दुबे हत्याकांड के बाद ब्राह्मण समाज भी बहुत ज्यादा नाराज है। योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरवाद का आरोप है।

हालांकि केन्द्रीय नेतृत्व ने पिछड़ी जातियों को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह देकर पिछड़ा समीकरण साधने का प्रयास किया है लेकिन यह  समय ही बताएगा कि यह प्रयोग कितना सफल रहेगा। ज्यादातर जातियां योगी आदित्यनाथ से नाराज दिख रही हैं। अपनी पार्टी के साथ-साथ उनके अपने सहयोगी ओमप्रकाश राजभर एवं संजय निषाद बहुत ही नाराज़ हैं। उन्होंने तो मुख्यमंत्री को सबक सिखाने का धमकी दे रखी है।

पांचवां कारण यह है कि प्रधानमंत्री एवं योगी आदित्यनाथ में भी बहुत अच्छा रिश्ता नहीं दिख रहा है।

प्रधानमंत्री चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन चाहते थे लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री को यह पसंद नहीं था। प्रधानमंत्री खासकर पश्चिम बंगाल चुनाव के परिणाम से थोड़ा सशंकित मूड में आ गये। उन्हें लगने लगा कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में रिस्क लेने की जरूरत नहीं है। हालांकि साढ़े चार साल से सबकुछ ठीक चल रहा था। लेकिन कोराना के बाद उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ जिस तरह का आक्रोश बढ़ा है उसको कम करने एक उपाय यह सूझा कि वर्तमान मुख्यमंत्री को बदल दिया जाए या उस सत्ता में थोड़ा परिवर्तन कर दिया जाए। जिससे आम लोगों का गुस्सा  कम हो सके।

लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे अपने प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर हटने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप दोनों के बीच में एक गांठ सी बन गयी। हालांकि आरंभ से ही प्रधानमंत्री मोदी योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे। पूर्व मंत्री मनोज सिन्हा का नाम तय हो गया था। लेकिन अंतिम समय में नाम बदलना पड़ा। अब देखना है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव क्या रंग लाता है।

कट्टर हिन्दूवादी सोच वाले लोगों को अब प्रधानमंत्री मोदी के बजाय योगी आदित्यनाथ ज्यादा रास आते हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक और कार्ड खेलने का प्रयास कर रहे हैं।

वे जनसंख्या नियंत्रण कानून उत्तर प्रदेश में लाना चाहते हैं जिसमें दो बच्चों से ज्यादा वाले नागरिकों को सभी सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाय। योगी को सबसे ज्यादा फिक्र यह है कि हिंदू वोट को कैसे एकजुट कर सकें। यह मुद्दा उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में एक विवाद का विषय बन गया है। यह कितना महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन पाता है यह तो आनेवाला समय ही बताएगा।

यदि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भाजपा हार जाती है तो अगला लोकसभा चुनाव उसके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव बीजेपी जीत जाती है तो योगी आदित्यनाथ केन्द्र के लिए प्रबल दावेदार बन सकते हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश, जिसे केन्द्र की राजनीति का द्वार कहा जाता है, अब देखना है कि आनेवाले समय में क्या करवट लेगा।

इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण सवाल है कि विपक्ष कुछ करने की स्थिति में है या नहीं? वैसे तो पूरे देश में विपक्ष एकजुट नहीं है। हालांकि पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम ने विपक्ष में एक जोश त़ो भरा है लेकिन वो कितना उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में परिणाम के रूप बदलेगा यह तो समय ही बतायेगा। क्योंकि इस प्रदेश में कांग्रेस एवं बीएसपी कोई अपनी भूमिका उस रूप में नहीं दिखा पा रही है जिस रूप में दिखानी चाहिए। वैसे समाजवादी पार्टी की भूमिका कुछ हद तक दिख रही है।

पार्टी ने राष्ट्रीय लोकदल एवं चन्द्रशेखर (रावण ) के साथ गठजोड़  बनाकर एक विकल्प देने की कोशिश शुरू समाजवादी की है।

अभी समाजवादी पार्टी गठबंधन ने जिला पंचायत एवं प्रखंड पंचायत चुनाव में बीजेपी को चुनौती देने का काम किया है। हालांकि जितनी सफलता मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिली है। वैसे योगी आदित्यनाथ ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर इसे अपने पक्ष में बदलने का प्रयास किया है। लेकिन क्या यह परिणाम विधानसभा के चुनाव में बीजेपी के पक्ष में जाएगा? 2016 के चुनाव में यह परिणाम समाजवादी पार्टी के पक्ष में था। लेकिन समाजवादी पार्टी 2017 का विधानसभा चुनाव हार गई थी।

किसान आंदोलन एवं कोराना, ‌महंगाई और बेरोजगारी, ये सब मुद्दे वर्तमान सरकार के खिलाफ हैं। इस चुनाव में जातीय समीकरण खासकर ब्राह्मण, जाट एवं मुस्लिम की भूमिका अहम होनेवाली है कि वो एकजुट होकर कहां वोट करते हैं? क्या पश्चिम बंगाल की तरह बीजेपी के खिलाफ सारा विपक्ष का वोट एकजुट हो पाएगा? वैसे सारे विपक्ष के एकजुट होने के संकेत तो नहीं दिख रहे हैं। क्या इसका फायदा बीजेपी को होगा? या जनता पश्चिम बंगाल की तर्ज पर बीजेपी के खिलाफ वोट करनेवाली है? यह चुनाव के परिणाम के बाद ही पता लग पाएगा।

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