विभाजन : विफलता बनाम जिम्मेदारी

0


— नंदकिशोर आचार्य —

(यह लेख तब लिखा गया था जब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी पाकिस्तान गये थे और जिन्ना के बारे में उनके एक कथन को लेकर विवाद मचा था, उनके वक्तव्य से सबसे ज्यादा खफा खुद संघ परिवार के लोग थे। इस लेख की शुरू की कुछ पंक्तियों में ही उस तात्कालिक संदर्भ का हवाला है, बाकी पूरा लेख भारत विभाजन पर है और इस बारे में संतुलित समझ और दृष्टि बनाने में सहायक हो सकता है।)

मोहम्मद अली जिन्ना की भूमिका को लेकर चल रही ताजा बहस भारत-विभाजन से संबंधित कुछ मुद्दों की ओर पुनः ध्यान आकर्षित करने में भी कामयाब रही है और इसने भाजपा और उससे जुड़े दलों के समर्थक बुद्धिजीवियों को पुनः एक अवसर दिया है कि वे भारत-विभाजन की मूल जिम्मेदारी नेहरू-पटेल और कुछ हद तक स्वयं गांधी पर डाल सकें। यह आश्चर्यजनक है कि इस मसले पर जिन्ना को सेकुलर और राष्ट्रवादी बताने का विरोध करनेवाले हिन्दुत्ववादियों और जिन्ना के उन प्रशंसकों में कोई मतभेद नहीं है जो यह मानते हैं कि गांधी-नेहरू के बढ़ते प्रभाव के कारण हुई उपेक्षा से आहत जिन्ना द्वारा सांप्रदायिक आधार पर विभाजन की मांग किये जाने की वास्तविक जिम्मेदारी गांधी-नेहरू की मानी जानी चाहिए। दरअसल, आडवाणी के जिन्ना संबंधी वक्तव्य की पृष्ठभूमि में भी कुछ हद तक यही दृष्टि काम कर रही है जिसे समझने में संघ परिवार के लोग विफल रहे हैं।

यह ठीक है कि अन्ततः नेहरू और पटेल भी विभाजन के लिए सहमत हो गये थे और इस मसले पर उनके द्वारा गांधीजी की उपेक्षा भी की गयी थी। क्योंकि अंतरिम सरकार में शामिल मुस्लिम लीग के रवैये ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश कर दिया था कि एक एकीकृत मगर कमजोर भारत के बजाय विभाजित, पर मजबूत भारत अधिक श्रेयस्कर है। लेकिन विभाजन की मूल माँग उनकी नहीं थी और उसका स्वीकार उनकी मजबूरी थी, जिसके पीछे मुस्लिम लीग की सीधी कार्रवाई से उत्पन्न भयंकर हिंसक वातावरण और सरकार में हर मसले पर लीग का अड़ियल रवैया जिम्मेदार था।

आश्चर्य तो यह है कि नेहरू को विभाजन के लिए जिम्मेदार बतानेवाले संघ परिवार के लोग इस सिलसिले में उन सरदार पटेल का नाम नहीं लेते जिन्हें वे अपना आदर्श मानते हैं-.लेकिन जो नेहरू से भी पहले विभाजन के लिए सहमत हो गये थे और गांधीजी के असहमत होने पर उत्तेजित होकर उन पर भी बरस पड़े थे। दरअसल, नेहरू-पटेल या एक हद तक गांधीजी की यह विफलता तो मानी जा सकती है कि वे विभाजन को टालने में सफल नहीं हो सके- गांधी तो स्वयं अपनी विफलता को स्वीकार भी करते हैं- लेकिन इस कारण उन्हें जिम्मेदार मानना अन्याय होगा। विभाजन की मांग करनेवालों, उसके लिए देश में घृणा और हिंसा का ताण्डव पैदा करनेवालों और संसदीय लोकतन्त्र के सभी मान्य सिद्धांतों की हत्या करते हुए अपनी ही सरकार के कामों में अड़ियल रुख अपनाकर कांग्रेस नेतृत्व को विभाजन को स्वीकार करने के लिए विवश कर देनेवालों के साथ उन लोगों को समान स्तर पर जिम्मेदार नहीं माना जा सकता जो सैद्धांतिक स्तर पर विभाजन को स्वीकार न करने के बावजूद उसे मानने के लिए परिस्थिति द्वारा मजबूर कर दिये गये थे।

दरअसल, नेहरू-पटेल पर विभाजन की जिम्मेदारी डालने का सवाल मौलाना आजाद की पुस्तक इण्डिया विन्स फ्रीडम के कारण पैदा होता है। इस पुस्तक में मौलाना ने कहा है कि नेहरू यदि 1937 के चुनावों के बाद मुस्लिम लीग के दो प्रतिनिधियों चौधरी खलीकुज्जमा और नवाब इस्माइल ख़ान, को सरकार में शामिल करने के लिए सहमत हो जाते तो यूपी में लीग के प्रभाव को बढ़ने से रोका जा सकता था और इससे वहां पाकिस्तान की माँग को समर्थन नहीं मिलता। यह उल्लेखनीय है कि लीग के दो प्रतिनिधियों में से एक को सरकार में शामिल करने के लिए कांग्रेस सहमत थी क्योंकि उसे अपने मुस्लिम सदस्यों को भी सरकार में लेना था। लेकिन यदि मुस्लिम लीग यह निर्णय नहीं कर पायी कि उसका कौन-सा प्रतिनिधि सरकार में शामिल होगा तो इसे नेहरू की जिम्मेदारी नहीं माना जा सकता- खासकर तब, जबकि कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त था।

यदि कोई दल सिर्फ इस कारण विभाजनवादी हो जाता है कि उसके सभी प्रतिनिधि सरकार में शामिल नहीं किये जा रहे हैं तो जाहिर है कि वह दल अपनी मूल मंशा में ही अलगाववादी है और बुनियादी तौर पर उसकी नीयत साफ नहीं है। यह उल्लेखनीय है कि खुद मौलाना आजाद ने शिमला कॉन्फ्रेंस में जिन्ना की इस मांग का दृढ़तापूर्वक खण्डन किया था कि अन्तरिम सरकार में मुस्लिम सदस्यों को नामजद करने का अधिकार केवल मुस्लिम लीग को होना चाहिए। कांग्रेस कार्यसमिति तो इस बात के लिए भी तैयार थी कि उसके पाँच सदस्यों में केवल दो हिंदू होंगे, जिसका तात्पर्य यह होता है कि अन्तरिम सरकार में मुसलमान सदस्यों की संख्या हिंदू सदस्यों से बहुत अधिक होगी। लेकिन जिन्ना के इसके लिए सहमत न होने के कारण ही वैवेल योजना विफल हो गयी थी। क्या इस हठधर्मिता के लिए भी नेहरू-पटेल जिम्मेदार थे? स्मरणीय है कि उस समय स्वयं मौलाना आजाद ही कांग्रेस के अध्यक्ष और बातचीत में उसकी ओर से एकमात्र प्रतिनिधि थे।

मौलाना आजाद नेहरू के एक वक्तव्य को भी विभाजन के लिए जिम्मेदार मानते हैं। कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों के संबंध में एक प्रेस-वक्तव्य में नेहरू ने कहा था कि संविधान सभा एक संप्रभुता-संपन्न संस्था होगी जो किसी अन्य संस्था या शक्ति द्वारा बाधित नहीं होगी तो इसे जिन्ना ने कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों का अतिक्रमण मानते हुए लीग को इन प्रस्तावों से अलग कर लिया था। मौलाना आजाद नेहरू की आलोचना करते हैं कि उनके इस वक्तव्य ने जिन्ना को मौका दे दिया कि वे विभाजन के अपने मूल प्रस्ताव पर वापस चले जाएं।

मौलाना भी यह तो मानते हैं कि कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को स्वीकार कर लेने के बाद जिन्ना बहुत दबाव में थे और उन्हें इस बात के लिए कोसा जा रहा था कि कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव ठीक हैं तो फिर इसके लिए पाकिस्तान या विभाजन की बात करने की जरूरत ही क्या थी, क्योंकि इतना तो कांग्रेस वैसे भी देने को तैयार थी। साफ है कि यदि जिन्ना को केवल एक बहाना चाहिए था तो वह कुछ भी हो सकता था। बात यदि नेहरू के बयान की ही होती तो जिन्ना को कांग्रेस कार्यसमिति के उस वर्धा प्रस्ताव से संतुष्ट हो जाना चाहिए था जो नेहरू के बयान के बाद 8 अगस्त, 1946 को दिया गया था और जिसमें यह कहा गया था कि कांग्रेस कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को समग्रतः स्वीकार करती है और उनकी सीमाओं के अन्तर्गत ही संविधान बनाने का काम किया जाएगा।

मौलाना इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि जिन्ना न केवल पाकिस्तान की मांग पर अड़े रहे, बल्कि उन्होंने सीधी कार्रवाई दिवस मनाने का आह्वान किया जो भारतीय इतिहास का घनघोर काला दिन था, जब बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार के समर्थन से साम्प्रदायिक गुण्डों द्वारा निरीह नागरिकों के जान-माल से खेला गया। स्वयं मौलाना यह स्वीकार करते हैं कि सुहरावर्दी की सरकार इस सब के पीछे थी। इसलिए यह और दुखद लगता है जब इस भयंकर त्रासदी के लिए भी मौलाना अपने मित्र जवाहरलाल नेहरू को बड़ी हद तक जिम्मेदार ठहराते हैं। जिन्ना और लीग की विवेकहीनता के लिए नेहरू या पटेल को जिम्मेदार ठहराना किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता।

यह ठीक है कि कांग्रेस नेतृत्व में सबसे पहले सरदार पटेल ही विभाजन के लिए सहमत हुए। लेकिन इसकी वजह अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग का वह अड़ियल रवैया था जिसके कारण सबको यह लगने लगा कि लीग के साथ मिलकर काम नहीं किया जा सकता।

मौलाना कहते हैं कि यदि लीग को वित्त मन्त्रालय की बजाय गृह-मन्त्रालय दे दिया गया होता तो वह रोड़े अटकाने में कामयाब नहीं हो सकती थी। साफ है कि मौलाना मानते हैं कि लीग रोड़े अटकाना चाहती तो थी। गृह मन्त्रालय पाकर भी लीग उतनी ही गड़बड़ी कर सकती थी- शायद और भी बड़ी गड़बड़ी- क्योंकि तब पुलिस व्यवस्था पर भी उसका नियंत्रण रहता। उसकी एक खेप तो बंगाल में सीधी कार्रवाई  के तहत पूरी हो चुकी थी। इसलिए मौलाना का यह कहना न्यायसंगत नहीं लगता कि भारत-विभाजन के लिए पटेल जिन्ना से भी अधिक जिम्मेदार थे।

सच तो यह है कि अपनी आत्मकथा में मौलाना को इस बात का विश्लेषण करना चाहिए था कि कांग्रेस जैसी पार्टी के लगातार छह वर्षों तक अध्यक्ष रहने के बावजूद वह स्वयं मुस्लिम सम्प्रदाय को उस तरह क्यों प्रभावित नहीं कर पाये- जैसा जिन्ना कर पाय़े थे। उसके कारण केवल व्यक्तिगत हैं या ऐतिहासिक परिस्थितियों के दबाव की भी उसमें कोई भूमिका है? क्या पाकिस्तान के बनने से इस महाद्वीप के आम मुसलमानों की जिन्दगी में कोई विशेष खुशहाली या बेहतरी मुमकिन हो सकी? या उनकी एक बड़ी संख्या को लगातार जमींदारी, साम्प्रदायिक कट्टरता और किसी-न-किसी प्रकार की तानाशाही के अन्तर्गत रहने के लिए विवश होना पड़ा? क्या पाकिस्तान या बांग्लादेश के आम मुसलमान भारत के आम मुसलमानों की तुलना में अधिक स्वतन्त्र और कहें कि अधिक धार्मिक हैं? यदि नहीं तो विभाजन का वास्तविक अर्थों में राजनीतिक या धार्मिक औचित्य क्या है? और इसकी मूल जिम्मेदारी लीग की अलगाववादी भावना पर है या नेहरू-पटेल पर?

कुछ लोग यह मानते हैं कि गांधीजी को विभाजन को अस्वीकार कर उसके खिलाफ आन्दोलन करना चाहिए था। वे यह भूल जाते हैं कि सीधी कार्रवाईके बाद साम्प्रदायिक हिंसा का जो वातावरण बना हुआ था, उसमें कोई अहिंसक आन्दोलन सम्भव नहीं था। गांधीजी के नेतृत्व को माननेवाला कांग्रेस संगठन विभाजन को- विवशता में ही सही- स्वीकार कर चुका था। लीग की तो वह माँग ही थी और उसे तत्कालीन मुस्लिम मतदाता वर्ग के छियासी प्रतिशत लोगों का समर्थन हासिल था। अखण्ड भारत की बात करनेवाले हिन्दुत्ववादी स्वयं द्विराष्ट्रवाद के प्रस्तोता थे। डॉ. आम्बेडकर न केवल पाकिस्तान की माँग के समर्थक थे, बल्कि लीग के समर्थन से संविधान सभा के लिए चुने गये थे। साम्यवादी आत्मनिर्णय  के सिद्धांत के आधार पर पाकिस्तान की माँग के ही नहीं, सभी उपराष्ट्रीयताओं के स्वतन्त्र राष्ट्र-राज्य होने के समर्थक थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोग अवश्य विभाजन के विरोधी थे- लेकिन वे भी तब तक गांधीजी के व्यक्तित्व को आदर देते हुए भी उनके सिद्धांतों से सहमत नहीं थे। शायद यही कारण था कि गांधी अपनी विफलता स्वीकार करते हैं, लेकिन किसी काम में सारे प्रयत्नों के बावजूद विफल होने और उसके लिए घृणा और हिंसा फैलानेवालों की जिम्मेदारी में मूल्यगत अन्तर होता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here