(यह गोवा की आजादी की आजादी का साठवां साल है और गोवा क्रांति दिवस का पचहत्तरवां साल। एक और महत्त्वपूर्ण संयोग यह है कि यह मधु लिमये की जन्मशती का वर्ष भी है जिन्होंने गोवा मुक्ति में सत्याग्रही के अटूट साहस, तप और सहनशक्ति का परिचय दिया था। 18 जून 1946 को डॉ राममनोहर लोहिया ने गोवा मुक्ति आंदोलन आरंभ किया था। इस आंदोलन का दूसरा चरण 1954-55 का सत्याग्रह था जिसमें मधु लिमये की अग्रणी भूमिका रही। चंपा लिमये ने उन दिनों की कुछ झलकियां शब्दबद्ध की हैं। चंपा जी का यह लेख ‘गोवा लिबरेशन मूवमेंट ऐंड मधु लिमये’ पुस्तक का हिस्सा है जिसका हिंदी अनुवाद ‘रविवार’ साप्ताहिक में छपा था, शायद 1987-88 में। ‘रविवार’ में प्रकाशित वही लेख यहां प्रस्तुत है।)
गोवा की भारतीय कॉन्सुलेट बंद होने के बाद हमें इजिप्शियन एंबैसी और पुर्तगाल की ब्राजीलियन एंबैसी के जरिये काम करना पड़ता था।
1956 की फरवरी में मैं अनिरुद्ध को लेकर गोवा गयी। मेरे साथ हमारे मित्र श्री विनायक भी थे। आठ महीनों के बाद नन्हा-सा मुन्ना अपने पिताजी से मिलनेवाला था।
सुबह की भेंट में गवर्नर जनरल ने मुलाकात की इजाजत दी। मैंने उनसे लिखित अनुमति मांगी थी। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया, “आप चिंता मत कीजिए, मैंने आपको वचन दिया है, आप निश्चिन्त होकर जाइए।”
दोपहर मांडवी नदी पार करके हम बेत्तीवेरे नामक गांव गये और वहां से टैक्सी लेकर आग्वाद पहुंचे। किले के दरवाजे पर हमें रोका गया, “आज गोवा के स्थानीय बंदियों से मुलाकात का दिन है। आज उनके रिश्तेदार उनसे मिलेंगे। आप लोग चूंकि विदेशी हैं, आपको भेंट नहीं मिलेगी”, यह कहकर उस दुभाषिये ने हमें निराश कर दिया। जब गवर्नर जनरल की अनुमति का मैंने उल्लेख किया, तब उसने कहा, ‘आपके आने की हमें कोई सूचना नहीं है। आपके पास कोई लिखित पत्र है?’ वास्तविकता यह थी कि अंदर मधु जी को उन्होंने बताया था कि आपकी पत्नी और आपका बेटा आपसे मिलने के लिए आ रहे हैं। सुबह से वे आशा लगाये बैठे थे। अब निराशा का भारी झटका देकर वे लोग पाशविक आनंद का लाभ उठा रहे थे। भारत सरकार ने उस दुभाषिये को जासूसी के आरोप में बंबई से निकाल दिया था, इसी का बदला वह ले रहा था। दूसरे दिन इजिप्शियन कॉन्सल के मार्फत मैंने आग्वाद जेल की घटना का ब्योरा गवर्नर जनरल तक पहुंचाया। तब दूसरे दिन प्रदीर्घ अवधि के बाद भेंट हो सकी। वह क्षण दिल को बड़ा छूने वाला था।
अक्तूबर 1956 में मैं अपने देवर मोहन के साथ फिर गोवा गयी। अब गोवा आंदोलन ठंडा हो चुका था। महाराष्ट्र में संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन ने जोर पकड़ा था। अब आग्वाद जेल का नया पुर्तगाली दुभाषिया हमें सताने के बजाय हमसे मजाक करता था। पहलेवाला गोवा का दुभाषिया अँगरेजी में बोलने के लिए हमें मजबूर करता था, अपनी मातृभाषा मराठी में बोलने नहीं देता था, आधे घंटे की मुलाकात का नियम दिखाता था। सताने के उसके पास पचासों तरीके थे। यह नया दुभाषिया हँसकर मुझसे पूछता था, “आप अपने हबी से कुछ व्यक्तिगत बातें नहीं करतीं? हमेशा सभा-सम्मेलन, परिषद प्रस्ताव, निवेदन-प्रदर्शन यही विषय आपकी बातचीत में कैसे?” मैं उससे पूछती थी, “भला, अपनी निजी बातें कोई दूसरों के सामने कर सकता है? दस लोगों के सामने खुलेआम ये बातें कभी कही जा सकती हैं?” अब वह हमें काफी समय देता था। अनिरुद्ध के साथ वे सब लोग खेलते थे।
धीरे-धीरे दिन बीत रहे थे। गोवा के सवाल को सभी लोग भूल गये थे। जब आंदोलन जोर पकड़ता है, तब लोगों में उत्साह की लहर दौड़ती है, जैसे ही आंदोलन ठंडा पड़ता है, लोगों के ध्यान से वे बातें निकल जाती हैं। सिर्फ सत्याग्रही लोगों के परिवार ही उसमें उलझे रहते हैं। 1957 का जनवरी महीना था। एक शाम स्पैननिश मिशनरी के फादर करीनो हमारे घर आए। वे आए थे एक बड़ी खुशखबरी लेकर। गोवा स्थित भारतीय राजबंदियों को इंटरनेशनल एमनेस्टी मिलनेवाली थी। जल्दी ही सब लोग रिहा होनेवाले थे। यह ‘अमृतवाणी’ उनके मुंह से सुनकर हम सब खुशी से झूम उठे। रात दिन सब जगह यही चर्चा शुरू हो गयी।
वहां भी एक फरवरी को एक इटालियन पत्रकार मधु जी से मिले। उन्होंने भी इंटरनेशनल एमनेस्टी की खबर उन्हें सुनायी।
2 फरवरी की सुबह के चार-साढ़े चार बजे होंगे। छोटा अनिरुद्ध मुझे जगाकर कह रहा था, ‘मां, उठो। बेलगांव चलो। पिताजी रिहा हो गये। उनको लाना है।’ मन में जो बातें हैं, वे ही सपने में नजर आती हैं। दिन-रात घर पर या बाहर इसी बात की चर्चा होती थी, इसलिए उस नन्हें को भी वही सपने में दिखायी दिया।’
लेकिन सुबह रेडियो पर सचमुच समाचार मिला, ‘भारतीय सत्याग्रहियों की आज सुबह रिहाई हुई और उन्हें गोवा की सीमा पर लाया गया।’ शाम को मधु जी के मित्र बंडू गोरे मुझे और अनिरुद्ध को पूना ले गये। सुबह पूना स्टेशन पर काफी भीड़ थी। सत्याग्रहियों के स्वागत के लिए शाम को बंबई वी.टी. स्टेशन पर अपार जनसागर उमड़ पड़ा था। लोग खुशी से पागल हो उठे थे। आज घर फिर से खिल उठा। खुशी की चांदनी से चमकने लगा। सुख का दीप जलने लगा।
वास्तव में गोवा की मेरी निजी कहानी यहीं पर समाप्त होती है। लेकिन उसका उपसंहार बड़ा रोचक है। गोवा के आधुनिक मुक्ति आंदोलन का सूत्रपात डॉ. लोहिया ने किया था। तब से कई लोगों ने इस बलिवेदी पर अपनी कुरबानी दी, त्याग किया, जुल्म सहा। फिर भी पंडित नेहरू शांति का जप करते रहे। आखिर उन्हें 19 दिसंबर 1961 को सेना भेज कर गोवा को मुक्त करवाना पड़ा। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने गोवा प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। परमिट पद्धति की रुकावट दूर करने के लिए स्वयं मधु जी को सत्याग्रह करना पड़ा।
बाद में पुर्तगाल में तख्ता पलट गया। सालाजारशाही की प्रदीर्घ बर्फीली रात समाप्त हुई और पुर्तगाल में प्रजातंत्र के नये युग का प्रारंभ हुआ। आगे चल कर समाजवादी दल के नेता मारियो सोआरिस वहां के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने गोवा मुक्ति का स्वागत करके भारत के साथ दोस्ती के रिश्ते कायम किये। 1978 के जून महीने में पुर्तगाली समाजवादियों ने मधु जी को पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन आने का निमंत्रण दिया। गोवा मुक्ति संग्राम के एक सैनिक तथा समाजवादी साथी – इन दोनों रिश्तों से पुर्तगाली सरकार ने, संसद ने तथा समाजवादी दल ने मधु जी का भावभीना स्वागत किया। पुर्तगाली तथा भारतीय जनता के बीच पिछली पांच शताब्दियों से खड़ी साम्राज्यशाही की दीवार टूट गयी, उसी का यह प्रमाण था। गोवा मुक्ति संग्राम की यह परिणति सुखद थी।