एक ऐसे अँधेरे वक्त में जब लोकतंत्र की संस्थाएं और लोकतंत्र के आचार-विचार गिरावट की ओर हैं, संयुक्त किसान मोर्चा का वोटर्स व्हिप जारी करना एक लोकतांत्रिक नवाचार की श्रेणी में गिना जाएगा। ठीक उस समय जब संवैधानिक-तंत्र कमजोर पड़ रहा है, सड़कों पर लोकतंत्र पर दावा जताती आवाजें बुलंद हो रही हैं। कहते हैं ना कि सृजन के बीज अकसर अँधेरे में अंखुआते हैं।
वोटर्स व्हिप के पीछे एक सीधा सा लेकिन ताकतवर विचार काम कर रहा है। संसदीय लोकतंत्र की शुरुआत के साथ ही हर पार्टी ने व्हिप नियुक्त किया जिसे काम दिया कि वह पार्टी के निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को अनुशासन में रखे। संविधान की 10वीं अनुसूची में दल-बदल निरोधी प्रावधानों के दर्ज होने के साथ व्हिप की इस भूमिका को वैधानिक स्वीकृति मिल गयी। अब हर पार्टी अपने विधायकों और सांसदों को व्हिप जारी कर सकती है और करती भी है। व्हिप जारी करके पार्टियां अपने सांसदों-विधायकों से कहती हैं कि फलां दिन जरूर सदन में मौजूद रहना है और फलां तरीके से वोट करना है। इसके पीछे मूल विचार है कि मतदाता अपनी पार्टी के जरिये सांसदों और विधायकों से अपनी मर्जी की बातें कहता है, सो सांसदों और विधायकों को चाहिए कि वे पार्टी के आदेश का उल्लंघन ना करें। लेकिन मतदाता पार्टी के मार्फत नहीं बल्कि सीधे-सीधे ही आदेश देना चाहे तो वह क्या करे? मतदाता राजनीतिक दलों को परे करते हुए अपने प्रतिनिधियों से क्यों ना कहे कि संसद को अमुक रीति से चलाया जाए?
एक लोकतांत्रिक नवाचार
वोटर्स व्हिप यही काम करता है। संयुक्त किसान मोर्चा ने इस मानसून-सत्र में किसानों की तरफ से सभी सांसदों को व्हिप जारी किया है कि वे जारी सत्र के सभी दिन संसद में मौजूद रहें, सदन में किसानों की मांगों का समर्थन करें, सदन का बहिष्कार ना करें और जब तक सरकार किसानों की मांग मान नहीं लेती तब तक सदन में कोई और काम ना होने दें। मतदाताओं के इस व्हिप में सांसदों से कहा गया है कि हमारा व्हिप आपकी पार्टी द्वारा जारी व्हिप से बेहतर है और जो कोई सांसद इस व्हिप का उल्लंघन करेगा किसान उसका बहिष्कार करेंगे।
वोटर्स व्हिप अवधारणाओं की चली आ रही परिपाटी को भंग करनेवाला विचार है और व्याहारिक होने के कारण यह विचार एक ठोस शक्ल अख्तियार करने जा रहा है। जहां तक व्हिप जारी करने से क्रियाविधि का सवाल है, इस विचार में कुछ ब्यौरे जोड़ने की जरूरत है, मसलन यह कि व्हिप कौन जारी कर सकता है, हमें कैसे पता चले कि जारी किये गये व्हिप को मतदाताओं का समर्थन हासिल है या नहीं। साथ ही निगरानी की व्यवस्था भी तय करनी होगी कि व्हिप का उल्लंघन किसे माना जाए और उल्लंघन की स्थिति में दंड क्या हो (कौन इसे लागू करे और कैसे करे?)। किसी जन-आंदोलन, जैसे कि अभी जारी किसान-आंदोलन के पास नैतिक ताकत की विराट पूंजी है और यह आंदोलन व्हिप जारी कर सकता है। लेकिन अपेक्षाकृत आम वक्त में वोटर्स व्हिप जारी करने की प्रक्रिया क्या हो, इस बारे में सोच-विचार की जरूरत है।
किसान-आंदोलन को लगातार कुछ नया करते रहने के लिए मजबूर कर दिया गया है और वोटर्स व्हिप इसी सिलसिले में नवाचार की नयी कड़ी है। मिसाल के लिए, विरोध के रूप पर ही गौर कीजिए, उस मोर्चे की तरफ नजर दौड़ाइए जो कि दिल्ली बॉर्डर के बाहर जमा है। यहां परंपरागत ढर्रे का मार्च या धरना नहीं चल रहा। तुरंता बस्ती बसाने के लिए मीलों तक हाईवे पर डेरा जमाने को धरना-प्रदर्शन के परंपरागत खांचे में नहीं रखा जा सकता। इसी तरह टोल-प्लाजा को विरोध-प्रदर्शन की दैनंदिन की जगह के रूप में तब्दील करना, विशाल किसान-महापंचायत लगाना, खाप-पंचायतों के साथ किसान-संगठनों का गठजोड़, मजदूर संघों के साथ गठबंधन करना, विरोध के समर्थन में सामुदायिक लंगर-सेवा चलाना, लंगर चलाने के क्रम में इसके दायरे में रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजें और यहां तक कि ऑक्सीजन सिलेंडर तक को शामिल करना, ये तमाम बातें लोकतांत्रिक बरताव की परिपाटी में एक नवाचार का संकेत करती हैं।
मिसालें और भी हैं…
पिछले हफ्ते एक ऐसा नवाचार और भी देखने को मिला। हां, ये नवाचार किसान-आंदोलन से नहीं जुड़ा। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आप्रवासी मजदूरों की दशा पर एक जन-सुनवाई हुई। लेकिन यह कोई आम ढर्रे की जन-सुनवाई नहीं थी जिसमें पीड़ित अपना दुखड़ा विशेषज्ञों और जजों के पैनल को सुनाते हैं। नवाचार की इस पहल में निर्णायक-मंडल (ज्यूरी) में स्वयं 17 आप्रवासी मजदूर शामिल थे। निर्णायक-मंडल ने तीन दिनों तक चिन्तन-मंथन किया, इस दौरान अपने सहकर्मियों और विशेषज्ञों की बात सुनी और अपने फैसले पर पहुंचा। दुखड़ा सुननेवाले और सुनानेवाले के बीच जो एक भेद-दृष्टि चली आ रहा थी, रायपुर की जन-सुनवाई में वह एकदम बदल गयी। इस बदलाव से जन-सुनवाई का विचार कुछ कदम और आगे बढ़ा है और इसका लोकतांत्रिक चरित्र ज्यादा मजबूत हुआ है।
हाल के समय का सबसे हैरतअंगेज नवाचार तो शाहीन बाग वाला रहा। शाहीन बाग का जमावड़ा ठीक उस वक्त उठ खड़ा हुआ जब हर कोई यह मानने लगा था कि इस सरकार के रहते अल्पसंख्यकों की आवाज उठा पाना असंभव है। शाहीन बाग का आंदोलन ठीक उस घड़ी पनपा जब मान लिया गया था कि नागरिकों के बीच भेदभाव करनेवाला सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट भाग्य का लेखा बन चुका है और विरोध का कोई भी वैधानिक तरीका अपना लो, उसे अब आपराधिक करार दिया जाएगा। विरोध-प्रदर्शन में सिर्फ आस-पड़ोस की महिलाएं हों, वे बारी-बारी से दिन में जुटें और रात में भी और विरोध में जमकर बैठा यह जमावड़ा दिन-रात निरंतर चलता रहे — यह अपने आप में एक चमत्कारिक विचार था और राष्ट्रप्रेम की झलक देते चिह्नों के उपयोग के सहारे यह विचार अपनी पूर्णता के साथ अमल में लाया गया।
शाहीन बाग के प्रदर्शन ने विरोध के विचार को शिक्षाशास्त्रीय मान्यताओं से जोड़ा, चलताऊ राजनीति के विरोध के भाव को एक गहरी राजनीति से जोड़ा। शाहीन बाग के आंदोलन में जब राजनीतिक सत्ता से सवाल किये जा रहे थे तो वह साथ ही साथ चली आ रही लैंगिक-भूमिकाओं पर सवाल उठाने का भी काम था।
लग सकता है कि ये तो छिटपुट उदाहरण हैं लेकिन ऐसा है नहीं। अपने चारों तरफ नजर घुमाकर देखिए कि लोग अपनी लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति किस तरह कर रहे हैं और आपको हर रोज इस मोर्चे पर कुछ नया होता नजर आएगा। कुछ माह पहले एक बेरोजगार युवक ने योगी आदित्यनाथ को लेकर एक कामयाब स्वांग रचा और इस स्वांग से जाहिर हो गया कि सूबे में बेरोजगारी की समस्या कितनी व्यापक है। पिछले हफ्ते कुछ नागरिकों ने #ThankyouModiji अभियान की शुरुआत की जिसमें पेट्रोल पंप के पास प्रधानमंत्री मोदी के बैनर के आगे खड़े होकर फोटोग्राफ्स लेना था। इस अभियान के जरिए पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश थी। आप विरोध-प्रदर्शन की इन नयी अभिव्यक्तियों की सूची को और आगे बढ़ा सकते हैं।
आंदोलनजीवियों ने उम्मीद जगा रखी है
इतिहास के इस मुकाम पर, जब हमारी आंखों के आगे लोकतंत्र पर कब्जा किया जा रहा है और यह कब्जा लोकतांत्रिक साधनों के जरिए ही किया जा रहा है, तो ऊपर के इन उदाहरणों ने देश के लिए उम्मीद की लौ जला रखी है। संसद का सत्र चल रहा है लेकिन प्रधानमंत्री ने ऐसी कोई इच्छा नहीं जतायी जो लगे कि वे सदन में आकर कोई बयान देंगे और महामारी में हजारों की तादाद में हुई मौतों से उठते सवालों का जवाब देंगे। अभी एक खुलासा पेगासस को लेकर हुआ है और हम सब हैरत में आंखें फाड़कर सोच रहे हैं कि क्या संविधान-प्रदत्त स्वतंत्रताओं का मजाक उड़ाते हुए, पेगासस जैसा कदम उठाना जरूरी था। इस संदर्भ में देखें तो नजर आएगा कि आंदोलनों और आंदोलनजीवियों ने लोकतंत्र के लिए उम्मीद की लौ जगा रखी है।
लोकतंत्र के इतिहासकार और सिद्धांतवेत्ता, जॉन कीन ने इन उदाहरणों को मॉनिटॉरिंग डेमोक्रेसी (लोकतंत्र की रखवाली) का नाम दिया है यानी ऐसे लोकतांत्रिक नवाचार जो लोकतंत्र की दशा-दिशा पर नजर रखने के औजार और युक्तियां देते हैं और लोकतंत्र की जड़ों को और गहरा करने का काम करते हैं। उन्होंने भारत को ऐसे नवाचार वाले देशों के प्रमुख उदाहरणों में एक माना है। हमें यह भी समझना होगा कि उत्तर-औपनिवेशिक लोकतंत्रों में ऐसे नवाचार सिर्फ मौजूदा और कार्यशील लोकतांत्रिक संस्थाओं के पूरक के तौर पर ही काम नहीं करते बल्कि ये नवाचार एक गहरी खाई को पाटने का भी काम करते हैं। संविधान-स्वीकृत बहुत सी लोकतांत्रिक संस्थाएं सिर्फ कागजों पर शोभा बढ़ा रही हैं। ऐसी संस्थाओं के काम में ना होने से जो खला पैदा हुई है, वोटर्स व्हिप जैसे नवाचार में उसे भरने का माद्दा है।
(द प्रिंट से साभार )