गांधी के बारे में सोचते हुए जो दूसरी बात मुझे सबसे ज्य़ादा अहम जान पड़ती है वह है उनके व्यक्तित्व का उत्तरोत्तर विकास। सत्य का प्रयोगकर्ता सत्य से सत्य की ओर बढ़ता गया और उसने अपने वक्तव्यों में कभी संगति बिठाने की कोशिश नहीं की। यह दस्तावेजी तथ्य है कि उन्होंने लोगों को सलाह दी थी कि अगर उनके दो वक्तव्यों में फर्क दिखे, तो बाद वाले वक्तव्य पर ही विश्वास करें। वह सलाह इस प्रकार थी –
“अपने इस उत्साही पाठक को तथा मेरे लेखों में दिलचस्पी लेनेवाले दूसरे लोगों को मैं यह बता देना चाहता हूं कि मेरे लेख सदा सुसंगत ही प्रतीत हों, इसकी मुझे तनिक भी चिंता नहीं है। सत्य की खोज में मैंने कई विचार त्याग दिए हैं और कई नई बातें सीखी हैं। वृद्ध हो जाने पर भी मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आंतरिक विकास रुक गया है या देह के नाश के बाद मेरा विकास रुक जाएगा। प्रतिक्षण मैं सत्यरूपी नारायण की आज्ञा मानने के लिए ही तैयार रहता हूं। इसलिए मेरे किन्हीं भी दो लेखों में यदि किसी को कोई असंगति लगे और उसका मेरी विवेकशीलता में विश्वास हो, तो उसके लिए एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से बाद के लेख को चुनना ही अच्छा रहेगा।’’ (‘हरिजन’, 29 अप्रैल, 1933)
अनेक मामलों में उनके दृष्टिकोण के निरंतर विकसित होने का मैं साक्षी रहा। एक वक्त था जब वे ताड़ के पेड़ों को काट डालने के पक्षधर थे, क्योंकि अगर किण्वन किया जाए तो उसके रस से देसी दारू बनाई जा सकती थी। लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि उसी रस से, जब वह ताजा हो, उत्तम किस्म का गुड़ बनाया जा सकता है, तो उन्होंने स्थानीय स्तर पर इस प्रकार गुड़ बनाने की हिमायत की। जब मैं बच्चा था, गांधी एक ही जाति में विवाह करनेवाले युगलों को बेहिचक आशीर्वाद देते थे। लेकिन जब मेरे विवाह का वक्त आया, उनका रुख एकदम बदल गया था। छुआछूत और जातिप्रथा में मौजूद बुराई को समझते हुए उन्होंने संकल्प लिया कि वे किसी ऐसे विवाह को अपना आशीर्वाद नहीं देंगे, जिनमें एक हरिजन और दूसरा तथाकथित ‘ऊंची जाति’ का न हो। मेरे मामले में वे ‘दूसरी श्रेणी’ देने को तैयार थे, क्योंकि मैं एक भिन्न जाति की और भिन्न भाषाभाषी लड़की से विवाह करने जा रहा था। लेकिन मेरे विवाह की रस्म में सम्मिलित होने से उन्होंने मना कर दिया, क्योंकि मैं और मेरी पत्नी, दोनों ‘ऊंची जाति’ के थे। दूसरी श्रेणी हासिल होने से इतना जरूर हुआ कि मुझे उनका एक आशीर्वाद-पत्र प्राप्त हुआ, और गांधी मेरे विवाह के अवसर पर मौजूद रहें ऐसी अपेक्षा करने के बजाय मुझे उस पत्र से ही संतोष करना पड़ा।
गांधी की निरंतरता केवल सत्य और अहिंसा को लेकर थी। लेकिन इन सिद्धांतों पर अमल करते हुए भी, वे ‘सत्य से सत्य’ की ओर बढ़ते गए। पूना के निकट स्थित आगा खां पैलेस में, अपनी आखिरी कैद के दौरान जब वे उपवास पर थे, उनके दूसरे समर्पित सचिव प्यारेलाल ने उन्हें बताया कि भारत छोड़ो आंदोलन में अहिंसा की स्थिति को लेकर आपस में हमारी कैसी चर्चा चलती रही है और इस मसले पर मैं क्या सोचता हूं। अपने उपवास के सातवें या आठवें रोज बिस्तर पर लेटे-लेटे गांधी ने इशारे से मुझे अपने पास बुलाया और क्षीण स्वर में बोले, ‘‘प्यारेलाल से यह जानकर मुझे खुशी हुई कि अहिंसा के प्रश्न पर तुम गंभीरता से सोचने लगे हो।’’ अपने दुर्बल स्वास्थ्य के दिनों में भी गांधी अठारह साल के एक युवक की सराहना करने का मौका नहीं चूके।
आगे उन्होंने कहा, ‘‘जब अहिंसा के बारे में सोचना, तो यह बात हमेशा याद रखना कि वक्त गुजरने के साथ अहिंसा की मेरी परिभाषा विस्तृत होती गई है। सन 1922 में, जब चौरीचौरा में हिंसा फूटी, मैंने बारडोली में सविनय अवज्ञा आंदोलन रोक दिया था, क्योंकि मुझे लगता था कि देश अभी अहिंसक नागरिक अवज्ञा आंदोलन के लिए तैयार नहीं है। लेकिन अब मैं इस राय का हूं कि हमारे चारों तरफ हिंसा के तूफान के बीच भी अहिंसा का हमारा नन्हा-सा दीया प्रज्वलित रहना चाहिए।’’ जीवन के हर क्षेत्र में गांधी के विचार बराबर विकसित होते रहे। गलतियां करनेवाले एक साधारण बालक मोहन से गांधी के ‘महात्मा’ बनने के पीछे यही असल वजह थी।
गांधी के साथ रहने पर, असाधारण व्यक्तियों की खूबी बताने वाली संस्कृत की वह सूक्ति अकसर याद आती- कुसुमादपि कोमल वज्रादपि कठोर (फूल से भी कोमल, वज्र से भी कठोर)। गांधी के व्यक्तित्व में, विरोधाभासी प्रतीत होने वालेगुणों को देखकर, उन्हें न जाननेवाले लोग कई बार हैरत में पड़ जाते थे। गांधी कठोर भी थे और मृदु भी। वे अनजान लोगों के साथ नरम और लचीले थे, खासकर विरोधियों के प्रति, लेकिन जो उनके निकट और प्रिय थे, उनके साथ वे अपेक्षया कड़ाई और सख्ती से पेश आते। इसीलिए मेरे पिताजी, जिन्होंने अपना आधा जीवन गांधी के निष्ठावान मुख्य सचिव के तौर पर गुजारा, अकसर यह टिप्पणी किया करते, ‘‘बापू के साथ रहना एक जिंदा ज्वालामुखी के मुंह पर रहना है, जो बिना नोटिस दिए किसी भी क्षण फूट सकता है।’’
गांधी की पत्नी कस्तूरबा और उनके चारों पुत्रों का भी प्रायः यही अनुभव था। लेकिन गांधी शायद सबसे अधिक कठोर खुद के प्रति थे। उनकी क्रांति घर से ही शुरू होती थी, और जब कभी उन्हें अपने व्यवहार में कोई दोष नजर आता, वे सबके सामने उसे भयानक भूल घोषित करते। दूसरी तरफ, वे अनजान लोगों के प्रति अपने व्यवहार में अतिशय उदार थे, खासकर ऐसे लोगों के प्रति जो उनके विरोधियों के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। सन 1931 में गांधी-इरविन वार्ता और सन 1944 में गांधी-जिन्ना वार्ता के समय वे लोग इसे प्रत्यक्ष देख सके जो इन घटनाओं पर बारीकी से नजर रखे हुए थे। लेकिन उनके चरित्र में ऊपर से दिखनेवाला यह विरोधाभास असल में उनकी अहिंसा का ही विस्तार था। मेरी निश्चित राय है कि जिनका भी साबका गांधी के व्यवहार के सख्त पहलू से हुआ होगा, वे मेरी राय से सहमत होंगे, और इस बात से भी, कि ऐसे हर अनुभव के बाद वे गांधी के और करीब आए होंगे।
अनेक तरह के बहुतेरे लोगों से संपर्क बनाए रखने का गांधी का एक तरीका पत्र लिखना भी था। पत्र लिखने में गांधी को महारत हासिल थी। अगर आप गांधी वांग्मय पर सरसरी नजर भी डालें, तो आप देखेंगे कि कोई पचास हजार पृष्ठों का एक खासा हिस्सा गांधी के लिखे पत्रों का है, जिनमें से ज्यादातर हाथ से लिखे गए थे- अकसर पोस्टकार्ड पर- एक ऐसी शैली में, जो संक्षिप्तता और स्पष्टता का नमूना हो। मुझे पहले-पहल मिले उनके पत्रों में एक पत्र तब मिला था जब मैं न पढ़ना जानता था न लिखना। जब वे जेल में होते, आश्रम के बच्चों को सामूहिक पत्र लिखते। हममें से जो तब पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे, अपने पत्र, जो कि प्रायः प्रश्नों की शक्ल में होते, पंडित नारायण मोरेश्वर खरे को बोल कर लिखवाते, जो कि हमारे संगीत-शिक्षक थे। जब कोई महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछा गया होता, तो गांधी प्रश्नकर्ता को अलग से जवाब भेजते।
उनकी ओर से ऐसा एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ था, जब मैंने पंडित खरे को बोल कर यह प्रश्न लिखवाया था- “गीता में, जिसका आश्रम में पाठ किया जाता है, शिष्य अर्जुन छोटे-छोटे प्रश्न पूछता है और भगवान कृष्ण उन प्रश्नों का विस्तार से जवाब देते हैं। फिर, आप हमारे भेजे गए प्रश्नों के संक्षिप्त जवाब क्यों देते हैं? निश्चित रूप से अगले हफ्ते की डाक में गांधी का जवाब खासतौर से मुझे संबोधित करते हुए आया, ‘‘क्या तुम नहीं देखते कि कृष्ण के पास केवल एक अर्जुन था, जबकि मेरे पास बहुत-से हैं!’’
मुझे उनके एक इससे भी संक्षिप्त पत्र की याद है, जो कि उनका लिखा सर्वाधिक संक्षिप्त पत्र होगा। जब मैं बारह साल का था, मेरे पिताजी ने मुझे वर्धा के एक ‘नियमित’ स्कूल में दाखिल करा दिया, और मैंने तय किया कि ऐसे स्कूल में नहीं पढ़ूंगा। मैंने उस हर चीज का स्पष्ट वर्णन गांधी को एक पत्र में लिख भेजा जो मुझमें अरुचि जगाती थी। दूसरे ही दिन सबेरे एक शब्द में उनका जवाब आया- शाबास! कहने की आवश्यकता नहीं कि यह लिखकर उन्होंने छोड़ नहीं दिया, मुझे शिक्षित करने की जिम्मेदारी अपने सिर ले ली, ऐसी जिम्मेदारी जिसमें केवल मेरे पिताजी साझेदार थे। गांधी ने मेरे पिताजी के सहायक का काम लेते हुए मुझे शिक्षित करने का निश्चय किया।