शिव कुशवाहा की कविताएँ

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पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

1. कविता की मुक्ति

 

समय जब पंख लगाकर उड़ रहा हो
कुछ रिक्तता साल रही हो अंदर ही अंदर
जब सब कुछ लग रहा हो फिसलन भरा
तब कुछ चुक जाने का अहसास
सबसे खतरनाक दौर की ओर
चुपचाप करता है इशारा

जैसे बुझता हुआ दीपक
अपनी लौ को फड़फड़ाने से
भांप लेता है अपने अंदर
खत्म होती हुई ऊर्जा
उसी तरह इतिहास में
दर्ज होती हैं कुछ घटनाएं
जिसके दम तोड़ते हुए ऐतिहासिक पृष्ठ
अपने जीर्ण-शीर्ण  होने की देते हैं गवाही

देश का भौगोलिक इतिहास
होता जाता है संक्रमित
दिशाओं में खर-पतवार
उग आने की संभावना से
विचारों का उत्सर्जन
तब्दील हो जाता है परावर्तन में

लौह श्रृंखला से बांधकर भावावेग
नहीं रखा जा सकता गिरवी
निसृत होते शब्द बह जाते हैं
भाव रूपी महानदी की तेज धार में

डूबने की प्रक्रिया में सिद्धान्त
अतिक्रमित कर अपनी सीमाएं
तोड़ रहे हैं सब्र के सभी बांध

कि अब शिल्प के बदलाव
पहचान के रूप में स्थापित हों
इसलिए कविता की मुक्ति की तरह
मुक्त होना जरूरी है समय को…

 

2. टूटते हुए परिवेश में

 

घर के वातायनों से झांकती
खामोशी ने ओढ़ ली है
एक निर्वेदमय स्वीकृति
जहां जड़ता का संसार
दे रहा है दस्तक
आवेगों ने रोक लिये हैं
भावों के निसृत मार्ग

आंगन में अब नहीं उतरते चटक रंग
चबूतरों पर पसरा हुआ सन्नाटा
अपने भयावह होने की
कहानी बयां कर रहा है
वह बयां कर रहा है
एक वीभत्स युग जो
जिया गया है तमाम बेड़ियों को तोड़कर

झींगुरों के गायन की तरह
विलुप्त हो रहा है
उल्लसित जीवन का खट-राग
संशय गढ़ रहा है
एक नया प्रतिमान
आस्थाओं पर जम रही धूल
बुहारते हुए
हांफ रहा है समय

परिवेश में घुल रहा भय
और अजनबीपन का स्याह होता संत्रास
स्थायीभाव की तरह
बन रहा है जीवन का अभिन्न हिस्सा

कि टूटते हुए परिवेश में
आस्थाओं की ठंडी बयार बची रहे
जिससे बचा रहे जीवन का वसंत
और बची रहे हमारे अंदर की
बुझती मनुष्यता की आग…

 

3. उदास जीवन की परछाइयाँ

 

बादलों के पीछे की दुनिया में
रहती है बहुत नमी
जिसकी आर्द्रता में बह जाता है
समूचा परिवेश हमारे अपनेपन का

इंद्रधनुषी कलेवर में डूबी
अतीत की छायाएं
आंखों में समायी हुई
दूर तक खींचती हैं
बुझते जीवन का संगीत-राग

जुगनुओं की लयबद्धता
स्याह रात में
छिटक देती है चटक रंग
रात खो जाती है जिज्ञासा के
अतल गह्वर में

दीपक की अंतिम शिरोरेखा पर
टिका हुआ है प्रकाश
कि हवा का एक हल्का झोंका
भुला देता है दिशाओं का ज्ञान

यहां सब कुछ टिका है पूर्वानुमान पर
भविष्य की राहों में कांटे हैं
और वर्तमान झूल रहा है
संभावनाओं की सलीब के सहारे

इन दिनों कवि निहार रहा है
अजीबोगरीब मटमैले अक्स
आकाश में बनती बिगड़ती आकृतियां
जिनके पीछे छिपी हैं
उदास जीवन की अनेक परछाइयाँ..

 

4. जंगल खत्म हो रहे हैं

 

प्रकृति के सबसे सुरम्य
होते हैं जंगल
उनमें रहने वाले
पशु, पक्षी और आदिवासी
मानते हैं उसे अपना पालनहार।

आज की इस सदी में
सुरक्षित नहीं हैं जंगल की अस्मिता
नदी, पहाड़, हवा, रोशनी
जंगल के साथ ही
धीरे धीरे हो रहे हैं विलुप्त।

जारी किये जा रहे हैं फरमान
कि बेदखल किया जाए
उन्हें उनकी मिट्टी से
उनकी जमीनों से, उनके घरों से
उनके पूरे के पूरे अरमानों पर
फेरा जा रहा है पानी
छीना जा रहा है उनका आसमान
रह रहे हैं जो सदियों से
इन जंगलों की गोद में।

जंगल केवल जानवरों के
आशियाने नहीं होते
उनमें रहती हैं सदियों से
चली आती परंपराएं
अब जंगल खत्म हो रहे हैं,
साथ ही साथ खत्म हो रही हैं
जंगल की सभ्यताएं
और उनमें रहने वालों की
संस्कृति,भाषा और अस्मिता भी…

 

5. हम बढ़ रहे हैं

 

तय कर दिया गया है
कि लोकतंत्र अब नहीं रहेगा लोकतंत्र
बल्कि बदल दिया जाएगा वोटतंत्र में
सियासी सरगर्मियां देश का चेहरा बदल देंगी।

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ
बिक जाएगा सत्ता की दलाली में
वे केवल प्रचारतंत्र के बिकाऊ साधन बनेंगे
वे रख देंगे गिरवी अपनी कलम।

साहित्यकार बढ़ रहे होंगे नवचारणवाद की तरफ
जहां सत्ता की अतिशयोक्ति प्रशंसा
बन चुका होगा उनका धर्म
राज्याश्रित कवि नहीं उठाएंगे सवाल
राजा की निष्ठा पर
वे डूबे होंगे आकंठ सत्ता की चाटुकारी में।

आने वाली पीढ़ियां नहीं पढ़ेंगी इतिहास
भूगोल तो कतई नहीं
और विज्ञान विलुप्त हो जाएगा इस सदी से।

हम बढ़ रहे हैं एक छद्म दुनिया की तरफ
जहां झूठ बोलने की कला ही
समय का सबसे कारगर अस्त्र होगा…

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

6. सत्ता और कुकुरमुत्ते

 

राजनीति का क ख ग नहीं जानती प्रजा
प्रजा केवल बदल सकती है सत्ता
और सत्ता पर काबिज हो जाते हैं कुकुरमुत्ते
कुकुरमुत्ते उग आते हैं
नकाब पहनकर हर बार नए रंग रूप में

सत्ता बन जाती है खूंखार लकड़बग्घा
जो राह चलते झपट लेते हैं
भूखों का निवाला
दिन पर दिन बढ़ जाती है घोटालों की फेहरिस्त
कुकुरमुत्तों की परिधि रात दिन बढ़ती है
और बढ़ जाती है उनकी उदरपिपासा
सोख लेते हैं समाज की ऑक्सीजन

सच को सच कहने वाले टांग दिये जाते हैं
ईसा की तरह सलीब पर
और झूठ को सच साबित करने वाले
सत्ता के करीब होकर हो जाते हैं पुरस्कृत
सत्ता का झूठा चरित्र बेनकाब करने वाले
घोषित हो जाते हैं दिवालिया

समय सत्ता के चारित्रिक हनन के साथ
बढ़ रहा आगे
दलित, सवर्ण, पिछड़े, और मुस्लिम
बन जाते हैं मोहरा
सत्ता के असली हकदार रह जाते हैं पीछे
आगे आगे चलते हैं कुकुरमुत्ते
हर जगह बिना खादपानी के उग आते हैं …

 

7. समय के सच के साथ

 

विचारधाराओं की
टकराहट से उपज रहे
खतरनाक माहौल के बीच
दरक रही हमारी एकता
और निरन्तर
चल रहे द्वंद्व में पिस रही
दो पीढ़ियाें की
अपार सम्भावनाएं।

सिमट रहे
मानवीय संवेदना के दायरे
बदल रहे परिदृश्य में
असंगत जाति और संप्रदाय
रंगों में डूबकर
बन गये हैं हमारी पहचान।

अंदर ही अंदर
हो रही उथल-पुथल को
समझना होगा सिरे से
राजनीतिक षडयंत्रों के
यथार्थ को समझते हुए
अब समय के सच के साथ
बढ़ना होगा आगे।

पहचानने होंगे
नीति-नियंताओं के कुचक्र
जो सुलगाना चाहते हैं
समाज के बीच का
आपसी सौहार्द
दहशत की भयंकर लौ में
झोंक देना चाहते हैं
देश की सांस्कृतिक विरासत…

 

8. बदरंग चेहरे

 

सांझ के गहरे होने के साथ
गहरा जाती है बदरंग चेहरे की निराशा
एक पग जब बढ़ना मुश्किल हो जाता है
तब गहरे दिन की बढ़ती कालिमा
कह देती है चुपचाप
धीरे धीरे आगे बढ़ने के लिए।

अस्त होते हुए सूरज की शिथिल किरणें
दूर तक ले जाती हैं हमारा अस्तित्व
लंबी छाया में हम देख लेते हैं मुरझाता अक्स

कभी-कभी समझ आने की तह तक
हम समझ ही नहीं पाते
कि दिन ढलने के साथ ही ढल जाती है
जिंदगी की रंगीन दुनिया
बदरंग पृष्ठों की भूमिका की तरह
साफ साफ नहीं दिखते शब्द
कविता की संवेदना हो जाती है अस्पष्ट।

गोल घूमती हुई पृथ्वी अपनी धुरी पर
छोड़ देती है बदरंग चेहरे
जो देखते रहते हैं
लगातार दुनिया की तेज रफ्तार

बदरंग चेहरों की दुनिया बढ़ रही है
साथ ही साथ बढ़ रही है
धीरे-धीरे दिनमान की कालिमा…

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  1. बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री शिव कुशवाहा जी की 8 कविताओं को पढ़ कर हार्दिक सुखानुभूति हुई। उनकी कविताएं अलग अलग विधाओं को दर्शित करते हुए स्वयं में पूर्णता लिए हुए हैं। उनको मेरा साधुवाद।

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