छब्बीस जुलाई का दिन एक बड़े सवाल को पूछने के लिहाज से खास दिन है। बड़ा सवाल यह कि क्या किसान आंदोलन देश के संवैधानिक लोकतंत्र को बचाने और अपने गणराज्य पर फिर से दावा जताने के लिए जरूरी हरावल दस्ते की भूमिका निभा सकता है?
छब्बीस जुलाई के दिन ऐतिहासिक किसान-मोर्चा को दिल्ली के बार्डर पर जमे हुए आठ महीने पूरे हुए। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने इस ऐतिहासिक दिन की याद में देश की संसद से चंद फर्लांग की दूरी पर सर्व-महिला किसान संसद का आयोजन किया। ठीक उस वक्त जब भारतीय जनता पार्टी उम्मीद लगा बैठी थी कि देश के मन-मानस से किसान आंदोलन के नक्श बस मिटने ही वाले हैं, यह आंदोलन एक बार फिर से घटनाओं के रंगमंच पर मुख्य भूमिका में आ गया। किसान-संसद का आयोजन शांतिपूर्ण और कामयाब रहा।
इस साल के गणतंत्र-दिवस पर आयोजित विरोध-प्रदर्शन को लेकर बड़ी चिंता जतायी गयी थी। इनमें से कुछ चिंताएं असली और वास्तविक थीं तो कुछ नकली और जानते-बूझते गढ़कर फैलायी हुई। किसान-संसद ने ऐसी कुछ चिंताओं के समाधान की कोशिश की। छब्बीस जुलाई के दिन संयुक्त किसान मोर्चा का नेतृवर्ग लखनऊ में था और वहां मोर्चा ने अपने ‘मिशन यूपी एंड उत्तराखंड’ का ऐलान किया। इन दो राज्यों के लिए कार्यक्रमों का जो विस्तृत कैलेंडर तैयार हुआ है, उससे पता चलता है कि आंदोलन आगे और विस्तार लेनेवाला है, वह ज्यादा सघन रूप लेने जा रहा है और आंदोलन की जड़ें और गहरी होने जा रही हैं।
छब्बीस जुलाई के घटनाक्रम में एक बात ये भी हुई कि इसी दिन राहुल गांधी ट्रैक्टर चलाते हुए संसद पहुंचे। तीन कृषि कानूनों का विरोध करता बैनर ट्रैक्टर के साथ था। इस क्रम में कांग्रेस के कुछ सांसदों को दिन भर के लिए हिरासत में ले लिया गया। संसद में विपक्ष के सभी सांसदों ने किसान-आंदोलन के जारी व्हिप का पालन किया और वे लगातार किसानों के मुद्दे उठाते रहे। यह एक विरल संयोग था कि किसानों के मुद्दे को लेकर संसद के अंदर भी सरकार का विरोध चल रहा था और संसद के बाहर भी। बहुत संभव है, मोदी सरकार के लिए यह विरोध-प्रदर्शन कुछ खास मायने ना रखता हो लेकिन इससे एक बात जरूर पता चलती है कि किसान-आंदोलन का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा है और किसान-आंदोलन अभी देश में वही भूमिका निभा रहा है जो विपक्ष को निभानी चाहिए।
भारत के स्वधर्म को बचाने की लड़ाई
अभी सवाल ये नहीं है कि किसान अपने लिए क्या हासिल कर सकते हैं। मुख्य मुद्दा ये नहीं रहा कि क्या किसान तीन कृषि कानूनों को निरस्त कराने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी कराने के अपने तात्कालिक उद्देश्य में कामयाब होंगे और अगर कामयाब होंगे तो आखिर कब। असल सवाल ये है कि किसान अब पूरे देश के लिए क्या हासिल कर सकते हैं- क्या किसान भारत के स्वधर्म को बचाने की बड़ी लड़ाई का नेतृत्व कर सकते हैं।
मेरा उत्तर है कि हां, किसान ऐसा कर सकते हैं। ऐसा मानने की वजह ये नहीं कि मैं किसान-आंदोलन का भागीदार हूं और मुझे आंदोलन की किसी अंदरूनी खबर का पता है। मैं ये भी नहीं मानता कि खेती-किसानी की जिंदगी में कोई ऐसा खास गुण है जो इसे हमेशा भारत के स्वधर्म को बचाने के लिए जगाये रखता है। अगर मुझे यकीन है कि किसान-आंदोलन तेजी से सिकुड़ते जा रहे भारत के गणराजी स्वभाव की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है तो इसलिए कि किसानों के वर्गीय हितों को बचाना दरअसल भारत की आत्मा को बचाने की लड़ाई का समानधर्मा है। अगर लोकतंत्र, विविधता और विकास, भारत के स्वधर्म के तीन आधार स्तंभ हैं तो फिर मानकर चलिए कि किसान-आंदोलन इन तीनों ही के लिए सहारा साबित हो सकता है। किसान खुद को बचाएंगे तो भारत नाम का गणराज्य भी बचेगा।
सबसे पहले लोकतंत्र को लीजिए
मैं ये नहीं कह रहा कि बाकी नागरिकों की तुलना में किसान कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक स्वभाव के होते हैं। ना, किसान भी कमोबेश बाकी नागरिकों जितना ही लोकतांत्रिक होते हैं। लेकिन एक बात पक्की है : किसानों को आज अन्य वर्गों की तुलना में लोकतंत्र की कहीं ज्यादा जरूरत है। व्यवसायियों को अपनी जरूरत पूरी करने के लिए जो कुछ जरूरी है, वे उसे खरीद लेंगे। मध्यवर्ग नौकरशाही की मार्फत सत्ता में पहुंच बना सकता है और जब-तब न्यायपालिका से भी उसे मदद मिल जाती है। संगठित क्षेत्र का जो कामगार तबका है उसे अब भी अपने हितों की रक्षा के लिए कुछ प्रक्रियागत सुरक्षा हासिल है, भले ही अब तेजी से कम होती जा रही हो। लेकिन किसानों के पास सड़क पर राजनीति, धरना-प्रदर्शन और आंदोलन करने के सिवाय ऐसा कोई विकल्प मौजूद नहीं।
किसान अपने इस एकमात्र बचे रास्ते पर चल सकें, इसके लिए उन्हें लोकतांत्रिक जगह चाहिए। इसी नाते किसानों का वर्गीय हित भारत की आत्मा को बचाने की लड़ाई का समानधर्मा है। मौजूदा किसान-आंदोलन इस बात को लेकर सजग है।
यह कोई संयोग नहीं था कि ठीक एक महीने पहले, 26 जून को किसानों ने इमरजेंसी आयद होने की घटना को याद करते हुए देश के तमाम राजभवनों के बाहर ‘खेती बचाओ, लोकतंत्र बचाओ’ (सेव एग्रीकल्चर, सेव डेमोक्रेसी) नाम से विरोध-प्रदर्शन आयोजित किया था।
ठीक इसी तरह, किसान आंदोलन भारत के लोकतंत्र के एक और आधार-स्तंभ विविधता पर हो रहे हमले को भी कड़ी टक्कर दे रहा है।
इसकी वजह ये नहीं कि किसान और किसानी स्वभाव से ही बहुरंगी हैं। इसलिए भी नहीं कि इस किसान-आंदोलन का जन्म सिख किसानों के बीच हुआ बल्कि इसलिए कि किसानों को एकजुट करने के लिए इस आंदोलन को बीजेपी के बांटो और राज करो की नीति से निपटना पड़ रहा है।
पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसान-आंदोलन सांप्रदायिक-विभाजन की राजनीति के खिलाफ एक पुरजोर और संगठित ताकत बनकर उभर चुका है। यह आंदोलन अब देश के बाकी हिस्सों में फैल रहा है और इस मायने में ये ‘भारत जोड़ो आंदोलन’ है।
इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि किसान-आंदोलन भारत के विकास का एक वैकल्पिक रास्ता दे सकता है। यहां फिर से याद दिलाते चलें कि इसकी वजह ये नहीं कि किसान बाकी लोगों की तुलना में विकल्पों पर ज्यादा विश्वास करते हैं। इसकी सीधी सी वजह ये है कि किसानों की जीविका का सवाल और उनका सामूहिक हित उन्हें पारिस्थिकीगत टिकाऊपन और समता की तरफ खींचे लिये जाता है।
मौजूदा किसान-आंदोलन समता, उत्पाद के लिए एक सम्मानजनक न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग तथा खेती पर कॉरपोरेट जगत के कब्जे के खिलाफ अपनी लड़ाई में विकास की एक वैकल्पिक राह खोल रहा है। बहुत जल्दी ये भी नजर आनेवाला है कि जलवायु-परिवर्तन की सच्चाई ने किसानों को पारिस्थिकीगत टिकाऊपन की मशाल जलाकर आगे चलने की राह पर लगा दिया है। खेती-किसानी के जो आचार-व्यवहार पारिस्थितिकी के लिहाज से नुकसानदेह हैं, वे किसानों की कमाई पर भी असर डाल रहे हैं, किसानों की बर्बादी का सबब बन रहे हैं। किसान कोई अतीत के भग्नावशेष नहीं, वे भारत के भविष्य को शक्ल देनेवाली पुरजोर ताकत बन सकते हैं।
दो सावधानियां
पहली बात तो ये कि इन बातों को इतिहास के निर्माण में किसानों की जरूरत और उनकी अनिवार्यता का तर्क ना समझा जाए। किसानों के लिए जरूरी नहीं कि वे क्रांति के हरावल दस्ते के रूप में अपनी भूमिका निभाएं, ये भूमिका तो मार्क्सवादी सिद्धांत-रचना में मजदूर वर्ग को दी गयी है। फिर भी, एक लिहाज से देखें तो कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में जो तर्क दिया गया है, उससे किसान-आंदोलन की एक बात में समानता है : मजदूर-वर्ग की तरह आज भारत में सिर्फ किसानों का तबका ही ऐसा है जिसके हित इतिहास की अग्रगामी गति से मेल खाते हैं।
दूसरी बात कि ये खुद-ब-खुद नहीं होनेवाला। किसानों के हित तो इतिहास की अग्रगामी गति से मेल खाते हैं लेकिन अपनी ऐतिहासिक भूमिका के निर्वाह के लिए किसानों का सही मुकाम पर होना जरूरी है। सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किसान-आंदोलन कितना सजग और सतर्क होकर अपनी इस भूमिका के निर्वाह में मैदान में उतरता है।
बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि मौजूदा आंदोलन किसानों के तात्कालिक आर्थिक मसलों को बड़े राजनीतिक मसलों से किस हद तक जोड़कर चलता है क्योंकि बड़े राजनीतिक मसलों से किसानों के दूरगामी हित जुड़े हुए हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसान-आंदोलन अपनी मौजूदा भौगोलिक मुख्यभूमि से बढ़कर किस खूबी से देश के विभिन्न हिस्सों में फैलता है, किसानों के सभी तबकों को, बड़े किसानों और भूमिहीन किसानों को आपस में किस मजबूती से एकजुट करता है। किसान-आंदोलन के नेतृवर्ग की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है।
(द प्रिंट से साभार )