— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
(चौथी किस्त )
ऐसे हालात में सीमा प्रांत में जनमत संग्रह करवाया गया, जल्दी से आज़ादी मिले इसी हड़बड़ी में कांग्रेस ने पठानों को पाकिस्तान का शहरी बनने पर मजबूर कर दिया। पाकिस्तान के बनते ही नॉर्थ वैस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स में बादशाह ख़ान के बड़े भाई की रहनुमाई में जनता द्वारा चुनी गयी सरकार को जिन्ना ने बर्खास्त कर दिया। सिंधियों, बलूचिस्तों तथा आखि़र में मुहाजिरों को आज़ादी से वंचित किया जाने लगा। लोकतंत्र को फौजी हुकूमत ने कुचल दिया। मुस्लिम लीग की सरकार ने बादशाह ख़ाँ और खुदाई खिदमतगारों पर भयंकर जुल्म करने शुरू कर दिये। उनको हर तरह से बेइज्जत किया जाने लगा, उन्हें पाकिस्तान विरोधी होने के इल्जाम में अनेक बार गिरफ्तार किया गया। सीमा प्रांत पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। इसका सबसे बड़ा खामियाजा बादशाह ख़ाँ तथा उनके साथियों को उठाना पड़ा।
उन्होंने रंज के साथ कहा कि “कांग्रेस ने हिंदुस्तान के बँटवारे को कबूल करके सीमा प्रांत के पठानों को भेड़ियों के सुपुर्द कर दिया है।”
बादशाह ख़ान ने खुदाई खिदमतगारों को जो कसम खिलवायी थी कि मैं किसी प्रकार की हिंसा नहीं करूँगा और न ही बदला लेने के इरादे से कोई कार्य करूँगा, उसका असर जंगजू पठानों पर क्या पड़ा इसकी एक दिल दहलाने वाली मिसाल सीमांत गांधी के बेटे वली ख़ान ने एक इंटरव्यू में देते हुए बयाँ की।
हिंदुस्तान पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान ने मुहम्मद अली जिन्ना की सरकार बनते ही डॉ. ख़ान साहब की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर दिया। मुस्लिम लीग के लोगों ने सरकारी शह पर पठानों को बेइज्जत, जलील करना शुरू कर दिया। ये लोग नंगे होकर पर्दानशीन होकर पठान घरों के सामने घूमने लगे। वली ख़ान ने बताया कि मैं छह साल की कै़द के बाद जेल से रिहा होकर अपने घर आया, मेरे वालिद को तड़ी पार कर दिया गया था। मेरे घर पर एक लड़की आयी और उसने मुझे एक ख़त दिया, जो मेरे वालिद के नाम था। हमारे खुदाई खिदमतगार और मेरे वालिद के नाम के ही अब्दुल्ल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने उसमें लिखा था कि मैं अपने घर में बैठा हुआ था, मेरा घर पर्दानशीन है, मुस्लिम लीग के लोग नंगा होकर मेरे घर में दाखिल हो गए। साधारण हालात में मैं तब तक बन्दूक का घोड़ा दबाता रहता जब तक उसमें एक भी गोली होती, सभी को मार देता। मगर मैंने आपके द्वारा दी गयी कसम खायी थी कि मैं तशद्दुतु (हिंसा) नहीं करूँगा। मैंने गोली नहीं चलायी। परंतु पठान होने के नाते मैं इसे बर्दाश्त भी नहीं कर सकता था। मैंने दूसरा रास्ता अख्तियार किया इसलिए मैं खुदकुशी करने जा रहा हूँ। बाचा ख़ाँ आप मुझे खुदकुशी के लिए माफ कर देना।
गांधीजी के सचिव रह चुके प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ‘पूर्णाहुति’ में लिखा है कि जब हिंदुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा मान लिया गया तथा सीमा प्रांत पाकिस्तान में चला गया तब बादशाह ख़ाँ ने बड़ी वेदना में गांधीजी से कहा कि
“महात्मा जी अब आप हमें पाकिस्तानी समझेंगे, तो गांधीजी ने कहा कुछ भी हो, मैं सीमा प्रांत में आऊँगा मैं इस विभाजन को नहीं मानता वहाँ जाने के लिए मैं किसी की इजाज़त नहीं मानूंगा। अगर वो (पाकिस्तान) मेरे इस कार्य के लिए मुझे मार भी दें तो मैं खुशी–खुशी हँसता हुआ स्वीकार करूँगा। अगर पाकिस्तान अस्तित्व में रहा तो मैं वहाँ ज़रूर जाऊँगा। वहीं रहूँगा तथा देखूंगा कि मेरे साथ क्या करते हैं?”
उसी समय हिंदुस्तान में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गये। दंगों के कारण गांधीजी पाकिस्तान न जा सके। प्यारेलाल ने लिखा है कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बँटवारा मंज़ूर हो जाने के बाद जब बादशाह ख़ान अपने वतन जाने लगे तो गांधीजी के अनुयायियों ने उनसे दो शब्द बोलने को कहा, तो ख़ान साहब ने अपनी अंतरात्मा से निकलती हुई आवाज में कहा :
“महात्मा जी ने हमें सच्चा मार्ग बताया है। हमारी उपस्थिति के बाद बहुत लम्बे समय तक हिंदुओं की भावी पीढ़ियां कृष्ण भगवान की तरह उनको अवतार के रूप में याद करेंगी, मुसलमान खुदा के पैगम्बर के रूप में याद करेंगे और ईसाई प्रेम के अवतार दूसरे ईशुख्रिस्त के रूप में याद करेंगे…. सत्य और न्याय के लिए अंत तक लड़ने के लिए हमें प्रेरणा और बल देने के लिए खुदा उन्हें लंबे समय तक हयात रखे। खुदा हमें हिम्मत और श्रद्धा दे, इसके लिए बंदगी कीजिएगा… हमें अतिशय भीषणकाल से गुजरना है।”
प्यारेलाल ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे पर गांधीजी की वेदना को, ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान के बेटे वली ख़ान से हुई वार्ता के ज़रिये व्यक्त करते हुए लिखा है कि श्रीनगर में गांधीजी भी थे और वली ख़ान भी, वली ख़ान ने गांधीजी से पूछ लिया, “बापू आप उदास और खिन्न क्यों दिख रहे हैं अब तो अपना देश आज़ाद होने वाला है। अंग्रेजों की विदाई होनेवाली है, फिर भी आप आनंदित क्यों नहीं हो रहे हैं? यह तो इतिहास का एक दुर्लभ प्रसंग है कि हमें पूरी जिंदगी के संघर्ष का परिणाम जीते जी देखने को मिल रहा है। आपके मार्गदर्शन में चालीस करोड़ लाचार पददलित लोग गुलामी के अंधकार में से आज़ादी के उजाले में आए, क्या यह आनंद की घड़ी नहीं है?”
तब गांधीजी ने वली ख़ान की ओर देखकर कहा : “मैंने तेरे पिता बादशाह ख़ान को दिल्ली स्टेशन से विदा किया तब मैं कैसे कह सकता हूँ कि वह आज़ादी के उत्सव का अवसर था? वह मेरे बिरादर, दोस्त, साथी और आज़ादी के साथी लड़वैया थे, पर अब हमें आज़ादी मिली है तो हम बिछुड़ गये हैं। शायद हम फिर कभी न मिल सकें। यह आज़ादी मेरे लिए क्या खुशी लायी है, अब तेरी समझ में आता है” थोड़ा रुक कर गांधीजी फिर से बोले “यदि तू श्रीनगर शहर के बाज़ार में पड़ी खाली जगहों की ओर नज़र करे तो तुझे वे सभी जगहें सीमांत के शरणार्थियों से भरी हुई दिखायी देंगी। इसी तरह बिहार, बंगाल और दिल्ली में विभाजन के आघात से दुखी होकर मुस्लिम पड़े हैं। हमें ऐसी आज़ादी चाहिए थी?” अपने जिगरी दोस्त के बेटे के सामने गांधीजी ने हृदय में दबी तमाम वेदना निकाल दी।
बादशाह ख़ाँ को मजबूरन पाकिस्तान जाना पड़ा, परंतु हिंदुस्तानी अवाम हमेशा उनको अपना पुरखा मानकर अदब करता रहा है। 20 जनवरी 1988 को उनका इंतकाल हो गया। पाकिस्तान सरकार की ओर से कोई शोक प्रकट नहीं किया गया, परंतु अफगानिस्तान सरकार की ओर से चार दिन का शोक मनाने की घोषणा की गयी। भारत की ओर से पाँच दिनों का शोक मनाया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पेशावर जाकर उनको खिराजेअकीदत पेश की।
उस समय सोवियत-अफगान युद्ध चल रहा था, एक तरफ़ सोवियत- अफगान सरकार का गठबंधन तथा दूसरी ओर अफगान मुजाहिदीन का संयुक्त मोर्चा। बादशाह को दफनाते समय दोनों ओर से उनके प्रति खिराजेअकीदत पेश करने के लिए एक दिन का युद्ध विराम घोषित किया हुआ था।
बादशाह ख़ाँ की वसीयत के अनुसार उनके शव को जलालाबाग से अफगानिस्तान ले जाया गया जहाँ उन्हें सम्मानपूर्वक दफनाया गया। पेशावर से जलालाबाग का फासला दो सौ किलोमीटर है, इस तमाम रास्ते में जहाँ से बादशाह का जनाजा गुजरा हज़ारों पख्तूनों ने उन्हें सलाम किया।
दोनों ख़ान बंधु खुले दिमाग के थे। उनकी कथनी और करनी में कोई फ़र्क नहीं था। इसका उदाहरण डॉ. ख़ान की बेटी तथा बादशाह ख़ाँ की भतीजी मरियम की शादी एक क्रिश्चियन से हो रही थी, तो उन्होंने उसका विरोध नहीं किया। दकियानूसी मुल्लाओं द्वारा कड़ी आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने अपनी बेटी को विवश नहीं किया।
(जारी )