— क़ुरबान अली —
देश के प्रख्यात समाजशास्त्री और जाने-माने समाजवादी बुद्धिजीवी प्रो. आनंद कुमार ने ‘समता मार्ग’ पोर्टल पर लिखे दो किस्तों के लेख ‘दलितों के लिए समाजवादियों ने क्या किया’ और ‘आंबेडकर चाहते थे दलित बुद्धिजीवी सिर्फ अपने सवालों तक सिमटे न रहें’ में उन आंदोलनों और मुद्दों का जिक्र किया है जिनको समाजवादियों का समर्थन रहा। वह लिखते हैं, “समाजवादी आंदोलन को अमूमन पिछड़ों के उभार से जोड़कर देखा जाता रहा है। समाजवादी आंदोलन ने दलितों-आदिवासियों के लिए कौन-सी लड़ाइयां लड़ीं, इसकी जानकारी दूसरों को क्या, अब समाजवादी धारा के भी कम लोगों को है। भारतीय समाजवादियों ने दलित प्रश्नों से जुड़े कई प्रसंगों में 1934 से अब तक अनेकों आंदोलनों की पहल की और अन्य मंचों द्वारा किये गये आन्दोलनों का समर्थन किया। इन आन्दोलनों से उभरे राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से अनेकों ने चुनावी मोर्चों पर भी उल्लेखनीय योगदान किया है। लिहाजा, समाजवादी आंदोलन के इस अपेक्षया ओझल इतिहास को सामने लाने की कोशिश इस लेख में की गयी है। साथ ही इस लेख की अगली कड़ी में दलित प्रसंग में समाजवादियों के कुछ आंदोलनों की जानकारी देने के साथ-साथ मौजूदा चुनौती की भी चर्चा की गयी है और समाजवादी पृष्ठभूमि के लोगों के एक खासे हिस्से में बाद में आयी फिसलन को भी चिह्नित किया गया है साथ ही बाबासाहेब आंबेडकर के उस आह्वान की तरफ भी ध्यान खींचा गया है कि दलित बुद्धिजीवी अपने प्रश्नों तक ही सीमित न रहें।”
यह बात सही है कि भारतीय समाजवादियों ने कमजोर वर्गों खासकर देश के पिछड़े और दलित प्रश्नों से जुड़े कई प्रसंगों में 1934 से लेकर अब तक अनेकों आंदोलनों की पहल की और अन्य मंचों द्वारा किये गये आन्दोलनों का समर्थन किया। यह भी सही है कि समाजवादियों ने देश के पहले आम चुनाव में बाबासाहेब आंबेडकर के परिगणित जाति महासंघ के साथ चुनावी तालमेल करके चुनाव लड़ा और डॉ लोहिया ने डॉ आंबेडकर के जीवन के अंतिम दिनों में पत्राचार करके उनके क़रीब आने की कोशिश की। लेकिन क्या कारण थे कि जब डॉ आंबेडकर भारतीय संविधान का निर्माण कर रहे थे, समाजवादी उसका विरोध कर रहे थे?
25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा “संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो दल – कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी कर रहे हैं। वह संविधान की निंदा क्यों कर रहे हैं? क्या यह वास्तव में एक खराब संविधान है? मैं कहता हूँ ऐसा क़तई नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के सिद्धांत के आधार पर संविधान चाहती है। वे संविधान की निंदा करते हैं क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। समाजवादी दो चीजें चाहते हैं। पहली चीज जो वह चाहते हैं वह यह है कि यदि वे सत्ता में आएं तो संविधान उन्हें सभी निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या सामाजिककरण करने का अधिकार बिना मुआवजे का भुगतान किये करने की स्वतंत्रता दे। दूसरी बात यह है कि समाजवादी चाहते हैं कि मौलिक अधिकारों का उल्लेख संविधान में पूर्ण और बिना किसी सीमा के होना चाहिए ताकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आने में विफल रहती है तो उन्हें राज्य को उखाड़ फेंकने की निरंकुश स्वतंत्रता होनी चाहिए।” इतना ही नहीं, समाजवादियों ने न केवल डॉ आंबेडकर द्वारा बनाये गये संविधान की निंदा की बल्कि संविधान सभा का यह कहते हुए बहिष्कार किया कि यह सभा बालिग़ मताधिकार से चुनी हुई सभा नहीं है।
यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी उठता है कि सोशलिस्ट पार्टियों ने दलितों को अपनी पार्टी में प्रतिनिधित्व देने के मामले में क्या रुख अपनाया और क्यूँ कभी कोई दलित पार्टी के सर्वोच्च पद पर नहीं पहुँच पाया?
कांग्रेस पार्टी के अंदर समाजवाद की मशाल जलाने का फैसला आचार्य नरेंद्रदेव, सम्पूर्णानन्द, जयप्रकाश नारायण, मीनू मसानी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन,यूसुफ मेहरअली, राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, एस.एम. जोशी और एन.जी. गोरे सरीखे नेताओं ने 1934 में किया था और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की थी। 1934 से लेकर 1950 तक यानी कांग्रेस पार्टी में रहने और उससे बाहर निकलने के दो वर्षों बाद तक जब 1948 में सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया था, जयप्रकाश नारायण लगभग 16 वर्षों तक लगातार पार्टी के प्रमुख यानी महासचिव बने रहे। इस बीच कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी या सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व या पदाधिकारी तो छोड़िए राष्ट्रीय कार्यकारणी का कोई सदस्य तक दलित-आदिवासी नहीं बन पाया। आखिर ऐसा क्यूँ हुआ?
मार्च 1950 से लेकर सितम्बर 1952 तक आचार्य नरेंद्रदेव, पार्टी अध्यक्ष और अशोक मेहता महासचिव हुए। सितम्बर 1952 में सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलय होने के बाद जब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो आचार्य जे.बी. कृपालानी पार्टी अध्यक्ष और अशोक मेहता, और एन.जी. गोरे और बाद में जे.बी. कृपालानी के साथ राममनोहर लोहिया पार्टी महासचिव बनाये गये। 1954-55 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन हो गया और 1956 में राममनोहर लोहिया ने अपनी अलग सोशलिस्ट पार्टी बना ली और तब से लेकर 1977 तक जब दोनों-तीनों सोशलिस्ट पार्टियों (बीच में कुछ अरसे के लिए प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी को मिलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया) का जनता पार्टी में विलय होने तक यानी 43 वर्षों की अवधि के दौरान सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और फिर सोशलिस्ट पार्टी का अध्यक्ष, महासचिव या संसदीय दल का नेता कभी कोई दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान नहीं हो सका। आखिर क्यूँ?
अलबत्ता बिहार और उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार मजबूत करने और चुनाव जीतने के मकसद से दो-एक बार (एक-दो साल के लिए) भूपेंद्र नारायण मंडल, कर्पूरी ठाकुर और रामसेवक यादव जैसे पिछड़ी जातियों के लोग जरूर सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष और महासचिव बनाये गये। सोशलिस्ट पार्टियों में जॉर्ज फर्नांडीज़ को छोड़कर अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति कभी भी पार्टी के सर्वोच्च पद तक नहीं पहुँच सका। वामपंथी और समाजवादी दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनसंघ-भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दलों पर दशकों तक यह आरोप लगाते रहे कि ये दल सवर्णों और अगड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इन दलों में दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह भी सुना गया कि समाजवादी नेताओं आचार्य नरेंद्रदेव, सम्पूर्णानन्द, जयप्रकाश नारायण, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, एस.एम. जोशी, गंगाशरण सिन्हा, एन.जी. गोरे, नाथ पाई, मधु दंडवते तथा राजनारायण, मधु लिमये, मामा बालेश्वर दयाल, रवि राय और किशन पटनायक जैसे नेता दलितों से भी बड़े दलित थे और उनसे बड़ा दलितों का कोई हिमायती हो ही नहीं सकता।
लेकिन इतिहास गवाह है कि जब दलितों के साथ-साथ आदिवासियों, महिलाओं और मुसलमानों सहित दूसरे अल्पसंख्यकों को हिस्सेदारी और भागीदारी देने का सवाल आया तो उनकी अनदेखी की गयी और एक-दो अपवादों को छोड़कर सरकार, संसद या विधानसभाओं में उन्हें प्रतिनिधित्व देना तो दूर की बात, उन्हें अपने दलों में भी समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया और सोशलिस्टों का ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा थोथा ही साबित हुआ।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सास-बहू के हवाले से एक कहावत कही जाती है जिसमें सास नव विवाहिता बहू से कहती है “कोठी-कुठले से हाथ मत लगाईयो, बाक़ी घर बार सब तेरा ही है!”
इसके अलावा इस बात पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए कि जब पचास और साठ के दशक में दलितों के सवाल पर समाजवादियों ने लाठी-गोली खायी और ‘हरिजनों’ के मंदिर प्रवेश को लेकर काशी के विश्वनाथ मंदिर से लेकर राजस्थान के गणेश्वर धाम मंदिर तक आंदोलन किये वह आंदोलन 1970 आते-आते ख़त्म क्यूँ हो गये? क्यूँ आज भी स्वतंत्र भारत में पुरी के जगन्नाथ मंदिर और राजस्थान के नाथद्वारा मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। 18 मार्च, 2018 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपनी पत्नी सविता कोविंद के साथ ओड़िशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करने गये तो मंदिर के कुछ सेवादारों ने उनके साथ बदसलूकी की। दोनों लोगों को मंदिर के गर्भगृह में जाने से रोका गया। ओड़िशा के पुरी मंदिर में रामनाथ कोविंद की सपत्नीक यात्रा से पूर्व 25 जून 2011 को कांग्रेस सांसद पीएल पुनिया को भी एक मंदिर में जाने से रोक दिया गया था, जबकि वे उस वक्त राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के अध्यक्ष थे।
विचार इस बात पर भी होना चाहिए कि “पिछड़े पावें में सौ में साठ” का नारा लगाने लगानेवाली सोशलिस्ट पार्टियों या उसकी विरासत का दावा करनेवाली जमातों ने अपने आपको पिछड़ी जातियों तक ही क्यूँ सीमित कर लिया जबकि “पिछड़ों को सौ में साठ” का मतलब दलित-आदिवासी, पिछड़ा और मुसलमान के साथ-साथ महिलाएं हैं जो बक़ौल लोहिया किसी भी जाति या धर्म की हों वो पिछड़ी जाति की हैं।
आशा है प्रो. आनद कुमार ने अपने लेख में जिन सवालों को उठाया है और जिन मुद्दों की चर्चा की है उनमें इन सवालों को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए और उनके जवाब तलाश किये जाने चाहिए ताकि यह बहस और सार्थक एवं प्रासंगिक हो सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल समाजवादी आंदोलन के दस्तावेज़ों का संकलन कर रहे हैं)