बीजापुर में केवल 22 जवान शहीद नहीं हुए, प्रधानमंत्री के दावों की भी धज्जियाँ उड़ी हैं

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— आवेश तिवारी —

 

त्तीसगढ़ के बीजापुर में माओवादियों द्वारा घात लगाकर 22 जवानों की हत्या को तीन दिन हो चुका है। घटना में तकरीबन तीस जवान घायल भी हुए हैं जिनमें से कुछ की हालत चिंताजनक बनी हुई है। तर्रेम के घने जंगलों में हुए लोमहर्षक हत्याकांड और कोरोना से मचे त्राहिमाम के बीच देश के गृहमंत्री अमित शाह  सोमवार को छत्तीसगढ़ पहुंचे। भाजपा ने यह बात जोर-शोर से प्रचारित की कि गृहमंत्री अमित शाह यह दौरा असम में चुनावी प्रचार को बीच में छोड़कर कर रहे हैं। शाह यह दौरा भले बिना मॉस्क के कर रहे हैं लेकिन यह जरूर है कि इस माओवादी वारदात की वजहों पर अभी तक पर्देदारी है। बीजापुर के बासागुंडा में सुरक्षाबलों के कैम्प में अमित शाह ने कहा है कि हम नक्सलवाद को जड़ से खत्म करेंगे। शनिवार को घटी इस घटना में लापता एक जवान अब माओवादियों के कब्जे में हैं। माओवादियों ने स्थानीय पत्रकारों को फोन करके कहा है कि वह जवान सुरक्षित है और उसे शीघ्र ही सुरक्षित वापस भेज दिया जाएगा।

खुफिया नाकामी

शनिवार को दोपहर के बाद जिस वक्त यह घटना घटी उस वक्त अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस के दो हजार से ज्यादा जवान जंगल में काम्बिंग आपरेशन के लिए गए हुए थे जिनका सामना लगभग ढाई सौ माओवादियों से हुआ। इस बात से फौरी तौर पर इनकार नहीं किया जा सकता कि इस पूरी कार्रवाई की जानकारी माओवादियों को पहले से थी जिसका नतीजा यह हुआ कि संख्या में ज्यादा होने के बावजूद सुरक्षा बलों के जवानों को घेर कर मौत के घाट उतार दिया गया।  छत्तीसगढ़ के डीजीपी डीएम अवस्थी इस बात को मानते हैं कि कहीं न कहीं योजना और कार्रवाई, दोनों स्तरों पर चूक हुई है, वहीँ सीआरपीएफ के डीजी  कुलदीप सिंह, जिन्होंने महज एक माह पहले पदभार सँभाला है, किसी भी किस्म की खुफिया नाकामी से साफ इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि 25 से 30 माओवादी भी मारे गए हैं जिनकी लाशों को ट्रैक्टर से ले जाया गया है।

अगर कुलदीप सिंह के बयान को सच मान भी लें तो चौंका देनेवाली बात यह है कि मुठभेड़ में मारे गए किसी नक्सली का शव अबतक बरामद नहीं हुआ है। बयानों में यह अंतर बताता है कि कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ बेहद संगीन है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सीआरपीएफ के महानिदेशक कुलदीप सिंह के इस बयान को लेकर कहा है कि अगर खुफिया नाकामी नहीं थी तो फिर 1:1 के अनुपात में मौत का मतलब यह है कि इस अभियान की योजना खराब ढंग से तैयार की गई तथा अयोग्यतापूर्वक इसका क्रियान्वयन किया गया। दुखद यह है कि पूर्व की तमाम वारदातों की तरह इस हत्याकांड को लेकर किसी भी किस्म की जांच के फिलहाल आदेश नहीं दिए गए हैं जबकि 2018 में भाजपा के एक विधायक भीमा मंडावी  की माओवादियों द्वारा की गई हत्या की जांच भी एनआईए ने की थी।

 

हमले को किसने अंजाम दिया

बीजापुर हमले का मास्टरमाइंड माडवी पीपुल लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के शीर्ष कमांडर माडवी हिड़मा को बताया जा रहा है। चालीस लाख का यह ईनामी माओवादी सेन्ट्रल कमेटी का सबसे युवा सदस्य है। हिड़मा, मई 2013 में जीरम घाटी के उस हमले में भी शामिल था जिसमे छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अग्रिम पंक्ति के सारे नेताओं को खत्म कर दिया गया। हिड़मा एकमात्र कमांडर है जो माओवादियों की सेन्ट्रल कमेटी में शामिल हैं और मूल रूप से छत्तीसगढ़ के सुकमा का रहनेवाला है। बताया जाता है कि उसे तमाम हमलों की जिम्मेदारी इसलिए दे दी जाती है क्योंकि उसके द्वारा किए जानेवाले हमलों में माओवादी कैडरों को होनेवाला 10 फीसदी से भी कम होता है। यह बात अक्सर नहीं कही जाती है कि माओवादियों ने भी राजनीतिक पार्टियों की तर्ज पर अपने संगठन में जाति आधारित संरचना स्थापित कर ली है। मिलिंद तेलुतुम्बे जहाँ माओवादियों में दलितों का प्रतिनिधित्व कर रहा है तो हिड़मा आदिवासियों का। लेकिन यह बात बताना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बीजापुर का हमला केंद्र और राज्य सरकार को यह संदेश देने की कोशिश है कि कथित तौर पर जिस शांति की बात कही जा रही है वो बेमानी है। साथ ही, इस हमले के माध्यम से माओवादी यह संदेश देना चाहते हैं कि बस्तर का आदिवासी माओवदियों के साथ है। जबकि यह जमीनी हकीकत है कि आदिवासी दो दशक से जारी हिंसा के इस इस दौर से थक चुका है, आहत है।

पहले शांति प्रस्ताव फिर हमला

जिस वक्त यह रिपोर्ट लिखी जा रही है ठीक उसी वक्त माओवादियों की दक्षिण सब जोनल कमेटी ने एक पर्चा जारी किया है। अर्द्धसैनिक बलों को संबोधित इस पर्चे में कहा गया है कि ग्रामीण इलाकों में आपलोग जनता के साथ बर्बरता का व्यवहार कर रहे हैं, लोगों पर फर्जी मुकदमे डाल रहे हैं, माओवादियों की हत्या करके एवार्ड और रिवार्ड पाने के लिए दौड़ रहे हैं, इन सभी हरकतों को तत्काल बंद करें। दिलचस्प है कि यही माओवादी पिछले महीने यानी मार्च माह में एक परचा जारी करके तीन शर्तों के साथ शांति वार्ता करने का प्रस्ताव दे रहे थे। केवल माओवादी ही नहीं भाजपा समेत एक दर्जन पार्टियों के प्रतिनिधियों, एक्टिविस्टों और पत्रकारों के संगठन 4 सी (कनसर्न्ड सिटिजन सोसायटी ऑफ सिटिजन), जिसका नेतृत्व बीबीसी के पूर्व पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी कर रहे हैं, द्वारा कथित शांति वार्ता की बात बार-बार कही जा रही है और देश-विदेश का मीडिया इसको पिछले दो माह के दौरान बड़ा कवरेज दे रहा था। यह दीगर है कि जो एक्टिविस्ट शांति प्रस्ताव की बात कह रहे थे और पदयात्राएं निकाल रहे थे, माओवादियों ने उनके खिलाफ भी धमकी-भरे पर्चे जारी कर दिए।

सरकार बदली, क्या फर्क पड़ा?

डेढ़ दशक रही भाजपा सरकार के दौर में माओवादी मोर्चे पर शांति स्थापित करने को लेकर गंभीर प्रयास नहीं के बराबर हुए। पहले केंद्र में जब यूपीए सरकार थी तब भी और 2014 में जब मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार आई तब भी। यह सच है कि केंद्र की दोनों सरकारों और खुद राज्य की पूर्व भाजपा सरकार ने शांति समझौतों के बजाय माओवाद के उन्मूलन को ही तरजीह दी। रमन सरकार के दौर में माओवादियों के उन्मूलन के नाम पर फर्जी गिरफ्तारियों, फर्जी मुठभेड़ों, उत्पीड़न और शोषण के साम्राज्य को फलने-फूलने दिया गया।

एक तरफ आंध्र प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ नक्सली हिंसा चरम पर थी, 2010 आते-आते माओवाद का लगभग खात्मा हो चुका था वहीँ छत्तीसगढ़ में हत्याओं का सिलसिला जारी रहा। रमन सरकार माओवाद से कैसे निपट रही थी इसका अंदाजा पूर्व आईपीएस स्व. केपीएस गिल के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमे उन्होंने डॉ रमन सिंह का नाम लेते हुए कहा कि उन्होंने मुझसे कहा था कि वेतन लो मौज करो। गौरतलब है कि डॉ सिंह ने केपीएस गिल की माओवादियों के खिलाफ मिशन चलाने के लिए बतौर सलाहकार छत्तीसगढ़ में नियुक्ति की थी। जब 2018 में राज्य में कांग्रेस की सरकार आई तो उसने अपने घोषणापत्र के अनुरूप आदिवासियों पर से फर्जी मुकदमे हटाने को लेकर पूर्व जज एके पटनायक के नेतृत्व में कमेटी बना दी। कमेटी को 4007 आदिवासियों की रिहाई पर फैसला लेना है, अब तक 700 के करीब आदिवासियों की रिहाई भी हो चुकी है।

कांग्रेस सरकार फर्जी मुठभेड़ों, गिरफ्तारियों को लेकर गंभीर रही, आत्मसमर्पण के मामले भी बढ़े लेकिन ऐसे रास्ते बेहद नाकाफी थे। हिंसा बदस्तूर जारी रही। आर्थिक तंगहाली और केंद्र-राज्य की तनातनी ने स्थिति को और खराब किया। अलबत्ता कांग्रेस पार्टी के मीडिया प्रभारी शैलेष नितिन त्रिवेदी कहते हैं, “पिछले पंद्रह सालों में भारतीय जनता पार्टी ने राज्य को विकास के मामले में पीछे धकेल दिया। हमारे जवान तो माओवादियों से मुकाबला कर ही रहे हैं, हमारी सरकार बस्तर में बेरोजगारी कम करने की दिशा में काम कर रही है। आदिवासी इलाकों में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी लगातार सुधार हुआ है। तेंदूपत्ता की कीमत बढ़ाई गई है। पूरे देश का लगभग 75 फीसदी लघु वनोपज हमने खरीदा है।”

सरकारी झूठ हुआ बेपर्दा

बीजापुर के हमले से एक बात बिलकुल साफ हो गई है कि माओवादी उस एक बात को कतई स्थापित नहीं होने देना चाहते जो 2018 के विधानसभा चुनाव के  बाद बार-बार कही जाती रही है कि छत्तीसगढ़ में माओवादी वारदातों में कमी आई है। यह बात राज्य सरकार भी कहती है, केंद्र सरकार भी यह कहकर अपनी पीठ ठोंकती रही है। दरअसल, केंद्र सरकार पीएम मोदी के उस दावे को सही साबित होता दिखाना चाहती है जिसमे उन्होंने कहा था कि नोटबंदी से माओवाद की कमर टूट जाएगी। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा में सुरक्षा बलों के जवानों और आम नागरिकों के मारे जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में माओवादी वारदातों की संख्या औसतन पिछले दशक जैसी ही है। छत्तीसगढ़ राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक माओवादी हिंसा में सुरक्षा बलों के 1165 जवानों और 902 आम नागरिकों की मौत हुई है। वहीँ केंद्र में मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद अकेले छत्तीसगढ़ में जवानों और आम नागरिकों की हत्याओं के मामले तेजी से बढ़े हैं। 2014 के बाद करीब छह सौ जवान माओवादियों से लोहा लेते वक्त शहीद हुए हैं। फिर भी न तो केंद्र सरकार इस मसले पर संजीदा है न मीडिया इसपर उसके सामने कोई सवाल खड़ा कर रहा है।

जमीनी हकीकत से अनजान गृहमंत्री

अमित शाह का छत्तीसगढ़ दौरा लगभग एक साल बाद हुआ है जबकि यह बात खूब प्रचारित की गई थी कि कश्मीर में 370 हटाने के बाद अमित शाह अपना पूरा ध्यान माओवादी मोर्चे पर लगा रहे हैं। गृहमंत्री बनने के बाद अगस्त 2019 में अमित शाह ने दस राज्यों के गृहमंत्रियों की एक बैठक बुलाई थी जिसमे सिर्फ और सिर्फ माओवाद पर चर्चा हुई थी। उसके बाद छत्तीसगढ़ में ही जनवरी 2020 में पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक हुई लेकिन फिर एक वर्ष से ज्यादा समय से अमित शाह समेत समूचा केन्द्रीय मंत्रिमंडल पहले कोरोना और फिर चुनावों में उलझा रहा, यानी पिछले एक वर्ष से माओवाद नियंत्रण को लेकर देश में कोई बड़ी बैठक नहीं हुई। यह जरूर हुआ कि भाजपा के कई केन्द्रीय मंत्रियों और सांसदों ने किसान आंदोलन में बैठे लोगों को माओवादी बता दिया।

चौंका देनेवाला तथ्य यह भी है कि माओवाद प्रभावित राज्यों को दी जानेवाली विशेष सहायता राशि के अंतर्गत छत्तीसगढ़ को दी जानेवाली राशि 2020-21 में लगभग 75 फीसदी तक घटा दी गई, यह राशि राष्ट्रीय स्तर पर भी इसी अनुपात में घटा दी गई। जबकि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल यह बात बार-बार कहते रहे हैं कि केंद्र को पहले की तरह माओवाद के खात्मे के लिए स्पेशल फंड देना चाहिए।

आधी-अधूरी तैयारी

इस बड़ी घटना के बाद शायद एक बार फिर शायद इस बात पर बहस होगी कि सुरक्षा बलों को उस किस्म की ट्रेनिंग क्यों नहीं दी जा रही जिससे वे इस घने जंगल में चप्पे-चप्पे से परिचित माओवादियों से लोहा ले सकें। स्क्वाड्रन लीडर और माओवादी मामलों के विशेषज्ञ आलोक बंसल कहते हैं कि अबूझमाड़ के जंगलों में माओवादियों से भिड़ने के लिए स्पेशल ट्रेनिंग की जरूरत है। मुमकिन है जब आप सीआरपीएफ के जवानों को मिसेज अंबानी और कंगना रनौत की सुरक्षा में लगाओगे और फिर अचानक जंगल मे उतारकर कहोगे कि नक्सलियों से भिड़ जाओ तो कैसे भिड़ेंगे? छत्तीसगढ़ के जंगलों में स्थानीय पुलिस ही सर्वाधिक मोर्चे ले रही है। अर्धसैनिक बलों का प्रयोग पूरी तरह से असफल साबित हुआ है। वे स्थानीय भूगोल से अनजान होते हैं, स्थानीय लोगों की भाषा भी नहीं समझते। फिर, न ही ऐसे इलाकों में काम करने के लिए उन्हें आवश्यक सुविधाएं दी गई हैं।

यह बात कही नहीं जाती मगर सच है कि 2014 में नगालैंड की बीजेपी सरकार ने तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह को अपनी स्पेशल आर्म्ड फोर्स को छत्तीसगढ़ भेजने के लिए सीधे-सीधे मना कर दिया था। उनका साफ कहना था कि केंद्र के दबाव में हम अपनी फोर्सेज को वहां मौत के मुंह मे नहीं भेज सकते। गौरतलब है कि उस वक्त छत्तीसगढ़ सरकार ने गृह मंत्रालय से चार नगा बटालियन की तैनाती की मांग की थी।

यह एक सच्चाई है कि हर माओवादी घटना के बाद सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी एक दूसरे से मुंह चुराने लगते हैं। पूर्व में हुए हमलों में सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के बीच सही तालमेल न होने की बात सामने आती रही है। पिछले वर्ष मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्रियों की बैठक में अमित शाह को भी इस बारे में बताया था। लेकिन अफसोस, बेहतर सामंजस्य स्थापित करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई।

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