— अच्युत पटवर्धन —
(स्व. अच्युत पटवर्धन का यह लेख मधु दंडवते की पुस्तक ‘यूसुफ मेहर अली- नये क्षितिजों की खोज’ में संकलित है। समाजवादी समागम द्वारा जुलाई 2019 में प्रकाशित पुस्तक ‘समाजवादी विचार – संकल्प बदलाव का’ में इसे पुनर्प्रकाशित किया गया है, वहीं से यह लेख लिया गया है।)
पिछले दो दशकों में सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति का संदर्भ आमूल बदल गया है, जिसके कारण वर्तमान पीढ़ी एक जीवनी के विषय को सामाजिक परिस्थितियों के इसके अपने ढाँचे में नहीं देख पाएगी। मेहर अली ने जिस पृष्ठभूमि में उन लक्ष्यों को सिद्ध करने की चेष्टा की, जिनकी सिद्धि के लिए हम अपने परिवर्तित परिदृश्य में प्रयास कर रहे हैं- मानव की स्वतंत्रता और एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का सृजन, जिसे शोषण और अन्याय निरंतर निष्फल न कर पाएँ, उस पृष्ठभूमि पर विहंगम दृष्टि डालना शायद लाभदायक रहेगा। मेहर अली के जीवन का सक्रिय काल 1927 से 1947 तक अथवा मोटेतौर पर दो विश्वयुद्धों के बीच की अवधि में रहा।
प्रथम महायुद्ध की समाप्ति के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दूरगामी परिवर्तन हुए। एक परिवर्तन तो यह था कि एक राज्य के रूप में सोवियत रूस का उदय प्रथम विश्वयुद्ध के विजेताओं की नैतिक विहितता के लिए एक चुनौती तो बन ही गया था, उसके कारण पाश्चात्य जगत में अंतर्विरोध भी उभर आये थे। दूसरा बड़ा परिवर्तन युद्धोत्तर विश्व में संयुक्त राज्य अमरीका का एक विश्व-शक्ति के रूप में उभरना था। एक अन्य युद्ध की संभावनाओं को टालने की दृष्टि से राष्ट्र संघ की स्थापना से एक ऐसे मंच का निर्माण हुआ जिससे इन प्रमुख शक्तियों की अनेक नीतियों की विहितता की आलोचना संभव हो पायी-विशेषतया राज्यों के आत्मनिर्णय के अधिकार के क्षेत्र में। महाशक्तियाँ छोटे राज्यों के पारस्परिक संबंधों में एक-दूसरे के आत्मनिर्णय के अधिकार के सम्मान तथा विधि-सम्मत शासन के सिद्धांत की घोषणा कर रही थीं परन्तु वे अपने-अपने साम्राज्यों पर अपने ही स्वेच्छाचारी शासन द्वारा इस सिद्धांत का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन कर रही थीं। इस तथ्य ने यह सिद्ध कर दिया था कि वे ऊँचे-ऊँचे सिद्धांतों की घोषणाओं की आड़ में अपने साम्राज्यवादी प्रयोजनों को छिपाने का प्रयास कर रही थीं। साम्राज्यवाद के बारे में लेनिन की पुस्तक ने बीसवीं सदी के उपनिवेशवाद के आर्थिक आधार को उजागर कर दिया अर्थात् यह स्पष्ट कर दिया कि उपनिवेशवाद का मूल प्रयोजन प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से सम्पन्न तथा तकनीकी बुद्धिकौशल एवं उद्यमिता की दृष्टि से विपन्न एशियाई एवं अफ्रीकी क्षेत्रों के संसाधनों पर एकाधिकार प्राप्त करना था।
लेनिन ने सामंतवाद की समाप्ति से आरम्भ करके पूँजीवाद के विकास का चरणबद्ध वर्णन किया। उन्होंने बताया कि एकाधिकारवादी पूँजीवाद किस प्रकार साम्राज्यवाद का अंतिम चरण है, तथा वह एक अन्य विश्वयुद्ध को किस प्रकार अनिवार्यतया जन्म देगा। समकालीन इतिहास की इस आर्थिक व्याख्या ने ब्रिटिश, फ्रांसीसी अथवा उच्च साम्राज्यवाद के उपनिवेशों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे समस्त बुद्धिजीवियों की आँखें खोल दीं। इसने हमें अतीत के प्रति एक रागात्मक दृष्टिकोण से उबारकर अर्द्ध-औद्योगिक समाज में सामाजिक शक्तियों के पारस्परिक संबंधों की एक अधिक यथार्थपरक दृष्टि प्रदान की।
मेहर अली उस पीढ़ी के व्यक्ति थे, जो भारत की प्राचीन धरोहर से प्यार करते थे, परन्तु साम्राज्यवादी प्रभुत्व द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का सामना करने में समर्थ आधुनिक भारत के निर्माण का दायित्व उठाने के लिए भारत के युवाओं का आह्वान करते समय पुनरुद्धारवादी वृत्ति का लेशमात्र भी परिचय नहीं दिया।
दूसरे दशक की एक अन्य विशिष्टता राष्ट्रीय चेतना के प्रसार की तीव्रता थी। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् से देश में ऐसे समर्थ युवा विद्यमान थे, जिनके मन में यह चेतना थी कि उन्होंने मेसोपोटामिया की समरभूमि में अपनी वीरता को सिद्ध किया था, युद्ध कौशल तथा शान्ति की कला में भारतीय-जन गोरों के समतुल्य थे। डॉ. जगदीशचन्द्र बोस, सी.वी. रमन तथा मेघनाथ साहा जैविकी शोध तथा भौतिकी के जगत में प्रथम कोटि के विद्वान हुए। भारत एक गौरवपूर्ण अतीत का ही देश न था, उसका जनशक्ति-संसाधन भारत के ही नहीं वरन समूचे तीसरे विश्व के पुनरुत्थान के लिए प्रतिभा का अक्षय भण्डार था। अपनी सामर्थ्य के इस बोध ने देश की जनता के मन में आत्मविश्वास और आस्था जगाने में भारी योग दिया था। उधर विदेशी प्रभुत्व के जुए को उतार फेंकने के लिए संघर्षशील जनता के सामने गांधीजी के सत्याग्रह ने सामाजिक कर्म की एक नयी व्यूह रचना प्रस्तुत कर दी थी। गांधीजी की महत्ता इस बात में निहित थी कि उन्होंने भारत में एक नैतिक उत्साह तथा विश्वास उत्पन्न कर दिया कि हम शत-प्रतिशत नैतिक उद्देश्य के लिए संघर्ष कर रहे थे एवं हमारा शत्रु नैतिक दृष्टि से शत-प्रतिशत दोषी था। गांधीजी हमारे विदेशी शासकों को प्रतिरक्षात्मक स्थिति में खड़ा करने में सफल रहे, वाइसराय ने भले ही अनिच्छा से ही 1931 में पहली बार यह स्वीकार किया कि इंडियन नेशनल कांग्रेस भारतीय स्वाधीनता का एक सशक्त मंच थी। लाला लाजपतराय सरीखे नेताओं की भाँति मेहर अली ने साइमन-कमीशन के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन के माध्यम से नमक-सत्याग्रह के लिए आधार तैयार किया। नमक-सत्याग्रह ने लाखों भारतीयों के मन में सहज सक्रिय भागीदारी की भावना जगाकर भारत में पहली बार यह चेतना उत्पन्न की, कि ब्रिटिश राज के नैतिक प्रभुत्व की जड़ें तक हिल चुकी हैं।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के उदय से, जिसके यूसुफ मेहर अली एक अग्रणी संस्थापक थे, हमारे राजनीतिक संघर्ष में रुचि लेनेवाले लोगों का दृष्टिकोण, और अधिक स्पष्ट हो गया। कांग्रेस के नेतृत्व एवं साधारण कार्यकर्ता एक ऐसे नये विश्व चिंतन के संपर्क में आए जिसका गांधीजी की चिंतन धारा से कहीं टकराव न था वरन जिसने उसे एक व्यापकतर सामाजिक क्षितिज प्रदान किया। रूस के सोवियत राज्य ने भारत में श्रमिक वर्ग में जागृति उत्पन्न करने एवं उसे संगठित करने के लिए 1924 में एक साम्यवादी दल प्रवर्तन किया। इस दल ने इंटरनेशनल की गलत दृष्टि अपनाकर इंडियन नेशनल कांग्रेस को यह कहकर बदनाम करने की चेष्टा की कि उसमें भारतीय पूँजीपतियों के हितों का प्रभुत्व है। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने समाजवादी आदर्शों पर भारतीय साम्यवादियों के एकाधिकार को चुनौती दी तथा दो बातों पर बल दिया कि प्रत्येक वास्तविक समाजवादी को सर् प्रथम भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सैनिक होना चाहिए तथा साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के लिए कांग्रेस सर्वाधिक व्यापक आधार वाला संगठन है। उसका यह दृष्टिकोण उसके अपने नाम ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ से स्पष्ट रूप ले झलक रहा था।
( जारी )