(यह दरअसल कोई लेख नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर का भाषण है जो उन्होंने 24 जुलाई 2021 को एक वेबिनार में दिया था। वेबिनार का विषय था- “लोकतंत्र, असहमति और कठोर कानून पर चर्चा : क्या यूएपीए और राजद्रोह कानून को हमारी कानून की किताबों में जगह मिलनी चाहिए?” इस वेबिनार का आयोजन सीजेएआर यानी कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफार्म्स, और, एचआरडीए यानी ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स अलर्ट ने लाइव लॉ पोर्टल के साथ मिलकर किया था। कहने की जरूरत नहीं कि जस्टिस लोकुर का वक्तव्य बहुत मौजूं है, इसमें मानवाधिकार, कानून और न्यायप्रणाली से वास्ता रखनेवाले एक बहुत ही अहम सवाल पर ध्यान खींचा गया है। इसपर व्यापक चर्चा होनी चाहिए। लिहाजा, उनका उपर्युक्त पूरा भाषण हम दो किस्त में प्रकाशित कर रहे हैं।)
मुझसे जो प्रश्न पूछा गया है, वह यह है कि क्या लंबी अवधि की कैद के बाद बरी किये गये लोगों के लिए मुआवजे और क्षतिपूर्ति की व्यवस्था होनी चाहिए? प्रश्न का उत्तर एक शब्द में दिया जा सकता है- हां, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
लेकिन मैं विषय से परे जाना चाहूंगा; यह केवल जेल में रहने और बरी होने के लिए मुआवजे का सवाल नहीं है, हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में कई अन्य घटनाएं हैं, जिनके लिए मुआवजा दिया जाना चाहिए। सभी वक्ताओं ने संकेत दिया है कि देशद्रोह और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के कठोर कानूनों को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, लेकिन मेरा विचार है कि ये कानून कहीं नहीं जा रहे हैं और कानून की किताबों में बने रहेंगे। इसके उलट इस सूची में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) को जोड़ा जा रहा है। आपके पास मणिपुर और उत्तर प्रदेश में एनएसए के इस्तेमाल के उदाहरण हैं, जहां इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एनएसए के तहत जारी किये गये 90 से अधिक निवारक निरोध आदेशों को रद्द कर दिया। इसलिए, यह न केवल राजद्रोह और यूएपीए है, बल्कि हम असंतोष को दबाने और लोगों को राज्य से असहमत होने से रोकने के लिए एनएसए के बढ़ते उपयोग को देखने जा रहे हैं। मुआवजे के विषय पर, मैं इतिहास में थोड़ा पीछे जाना चाहूंगा।
मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए मुआवजा हमारे न्यायशास्त्र में कोई नयी बात नहीं है, हालांकि इन दिनों इसपर सक्रिय रूप से चर्चा हो रही है। मैं संक्षेप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये पांच ऐतिहासिक निर्णयों का उल्लेख करना चाहूंगा।
पहला 1983 के रुदुल साह का है। उन्हें 1968 में एक मुकदमे के बाद बरी कर दिया गया था लेकिन दुर्भाग्य से, वह बरी होने के बाद भी जेल में रहे और 14 साल बाद 1982 में रिहा हुए। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 30,000 रुपए का मुआवजा दिया, जो उस समय काफी हो सकता था, बल्कि उन्हें मुआवजे के लिए दीवानी मुकदमा दायर करने का अधिकार भी दिया।
सेबस्टियन होंग्रे कुछ व्यक्तियों का मामला था, जिन्हें सेना ने उठा लिया और बाद में गायब हो गए। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पेश करने का निर्देश दिया लेकिन घटना से इनकार कर दिया गया। हालांकि, सबूत बताते थे कि वे सेना की हिरासत में थे और चूंकि उन्हें पेश नहीं किया गया था, इसलिए यह माना गया कि वे मर गये, या किसी भी स्थिति में वे गायब हो गये। सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ितों के परिवार को मुआवजे के रूप में एक लाख रुपए दिये।
प्रोफेसर भीम सिंह 1985 में जम्मू एवं कश्मीर की विधानसभा में विधायक थे। वह विधानसभा सत्र में भाग लेने के लिए यात्रा कर रहे थे, लेकिन रास्ते में ही उन्हें उठा लिया गया और विधानसभा सत्र में भाग लेने की अनुमति नहीं दी गयी। उन्होंने एक याचिका दायर की- वह प्रोफेसर और वकील हैं- और सुप्रीम कोर्ट जानना चाहता था कि ऐसे व्यक्ति को उठाकर ले जाना कैसे संभव है। उन्हें 50,000 रुपये मुआवजे के रूप में दिया गया।
1989 में, एक गैरसरकारी संगठन ‘सहेली’ ने पुलिस हिरासत में मौत के संबंध में एक मामला दर्ज किया था और सुप्रीम कोर्ट ने 75,000 रुपये मुआवजे के रूप में दिया।
1993 में सुप्रीम कोर्ट ने नीलाबती बेहरा के मामले में फैसला सुनाया, जिसके बेटे की पुलिस हिरासत में मौत हो गयी थी। बाद में उसका शव रेलवे ट्रैक के पास मिला था। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मुआवजे के रूप में 1,50,000 रुपए दिया।
इसलिए, मुआवजा दिया जाना कोई नयी बात नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने गुमशुदगी, एक व्यक्ति को उठाकर ले जाने और हिरासत में मौत के मामले में मुआवजा दिया है। लेकिन किसी कारण से, 1993 में नीलाबती बेहरा के मामले के बाद, या शायद अवैध गिरफ्तारियां नहीं हुईं या किसी अन्य कारण से, जो मुझे नहीं पता, मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए मुआवजा देने का न्यायशास्त्र कमोबेश मर गया।
अब हम एक बार फिर इस समस्या का सामना कर रहे हैं। हमारे पास प्रख्यात वैज्ञानिक नंबी नारायणन का मामला था। उन्हें अवैध रूप से हिरासत में लिया गया था और सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे के रूप में उन्हें 50 लाख रुपये देने का निर्देश दिया था। यह कुछ साल पहले हुआ था।
हाल ही में, अखिल गोगोई को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया और एक साल से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया। जब उनके मामले को आरोप तय करने के लिए पेश किया गया तो ट्रायल जज ने उन्हें इस आधार पर बरी कर दिया कि यूएपीए के तहत कोई अपराध नहीं बनता है। उनका मामला डिस्चार्ज (उन्मोचन) का नहीं बल्कि दोषमुक्ति का था। लेकिन उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया गया। यूएपीए और राजद्रोह कानून के तहत दिशानिर्देश तैयार करने की जरूरत का जिक्र था, लेकिन उससे कुछ नहीं निकला।
अभी हाल ही में, मुनव्वर फारूकी को सुप्रीम कोर्ट ने रिहा किया- क्यों? क्योंकि उन्हें गिरफ्तार करनेवाली पुलिस ने 2014 में अर्नेश कुमार के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया था। इसलिएभले ही सुप्रीम कोर्ट दिशानिर्देश निर्धारित करे, लेकिन अगर पुलिस उनका पालन नहीं करने का फैसला करती है, तो वे नहीं करेंगे। मुनव्वर फारूकी को उनकी अवैध गिरफ्तारी के लिए कोई मुआवजा नहीं दिया गया था।
मोहम्मद हबीब त्रिपुरा के एक व्यक्ति थे। उन्हें यूएपीए के तहत बेंगलुरु में हिरासत में लिया गया था। वह चार साल तक जेल में रहे और उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होने के कारण उन्हें डिस्चार्ज कर दिया गया। यह भी डिस्चार्ज का मामला था, मुकदमे के बाद दोषमुक्त होने का नहीं। फिर भी, उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया गया।
ऐसे कई मामले हैं, जिनमें अदालतों ने रिहा करने का निर्देश दिया है, लेकिन रिहा नहीं किया गया। करीब 25 साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने कुछ लोगों को तिहाड़ जेल से रिहा करने का निर्देश दिया था। हाईकोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर तिहाड़ जेल ने उन्हें 15 दिन तक रिहा नहीं किया। इसके बाद निर्देश दिया गया कि अवैध डिटेंशन के लिए उन्हें मुआवजा दिया जाए।
संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी थी, लेकिन पुणे की यरवदा जेल में दो दिनों तक नजरबंद रहे। क्यों? क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश पुणे नहीं पहुंच सका।
हाल ही में 3 कार्यकर्ताओं को दिल्ली हाईकोर्ट ने जमानत दे दी थी। पुलिस और अभियोजन पक्ष ने क्या कहा? उन्होंने कहा कि आधार कार्ड चाहिए, उनका पता चेक करना है। यह कैसे हुआ कि पुलिस ने उनके आधार कार्ड की जांच तब नहीं की, जब उन्हें गिरफ्तार किया गया या उनके पते की जांच नहीं की गयी? क्या हो रहा है? तो, जब अदालत द्वारा आदेश पारित किया जाता है, तो क्या यह है कि – अगर हम इसे मानना चाहते हैं तो हम पालन करेंगे, नहीं चाहते, तो नहीं करेंगे!
करीब दो हफ्ते पहले, किशोर होने का दावा करनेवाला व्यक्ति 14 से 22साल के बीच आगरा जेल में रहा। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी रिहाई का निर्देश दिया लेकिन आगरा जेल ने तब तक रिहा नहीं किया, जब तक सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वे सुधारात्मक कार्रवाई करेंगे। फिर आगरा जेल ने आदेश का पालन किया और उसे रिहा कर दिया।
इस सब का परिणाम क्या है? नतीजा यह हुआ कि मणिपुर के कार्यकर्ता के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शाम पांच बजे तक उसकी रिहाई का निर्देश दिया। क्या आप सोच सकते हैं कि यह वह स्थिति है जहां हम आ गए हैं? अदालतों को अब एक टाइमलाइन देनी होती है और कहना होता है कि इसको 5 बजे तक रिलीज करो या 6 बजे तक रिलीज करो।
यह जेल अधिकारियों और पुलिस का कर्तव्य है कि जब अदालत किसी व्यक्ति को रिहा करने के लिए कहे तो उसे रिहा कर दें। वे ‘नहीं-नहीं’ नहीं कह सकते, जब भी मेरा मन करेगा मैं उसे छोड़ दूंगा, आप आदेश पारित कर सकते हैं- जो हमें करना है वो हम करेंगे!
इनमें से किसी भी मामले में, तिहाड़ जेल के कैदी को छोड़कर, कोई मुआवजा नहीं दिया गया, जिसे 15 दिनों के लिए प्रतिदिन एक हजार रुपए के हिसाब से मुआवजा दिया गया, क्योंकि उसे अवैध रूप से हिरासत में लिया गया था।
(बाकी हिस्सा कल)
(livelawhindi से साभार)