— विमल कुमार —
सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जयप्रकाश हजारीबाग जेल की दीवार फांद कर रात के अंधेरे में जंगल से होते हुए भागे थे,यह हर व्यक्ति जानता है लेकिन जेपी को किस शख्स ने जेल से भगाया और इस पूरी घटना की योजना किसने बनायी, यह बहुत कम लोग जानते हैं।हजारीबाग जेल में ‘दीवाली आयी रे’ सजनी का किस्सा जिनको मालूम है उन्हें सब पता है लेकिन जो लोग नहीं जानते उन्हें उस शख्स के बारे में नहीं पता। यह वह शख्स था जिसे माखनलाल चतुर्वेदी ने कभी ‘कलम का जादूगर’ कहा था। इस शख्स ने भगतसिंह को फांसी मिलने पर अपनी पत्रिका के संपादकीय में इंकलाब जिंदाबाद लिखा जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यह शख्स जेपी से उम्र में दो साल बड़ा था और जयप्रकाश नारायण जब जेपी या लोकनायक नहीं बने थे, तब इस शख्स ने 1946 में ही उनकी जीवनी लिख डाली। जीवनी भी ऐसी जिसमें जयप्रकाश नारायण को देश का भावी नायक बताया गया और यह बात सच साबित हुई जबकि जयप्रकाश नारायण की उम्र उस समय महज 44 वर्ष थी।
जयप्रकाश जी जब लाहौर जेल से छूटे थे तो पटना के गांधी मैदान में 42 स्वागत द्वार बनाकर उनका स्वागत किया गया था और उस समारोह के मंच पर जयप्रकाश जी के अलावा बाबू गंगाशरण सिंह, सूरज बाबू, श्रीकृष्ण सिंह और रामधारी सिंह दिनकर के अलावा वह शख्स यानी रामवृक्ष बेनीपुरी भी मौजूद थे और उन्हीं ने दिनकर से कहा था कि तुम जयप्रकाश जी पर एक कविता लिखो और उस दिन गांधी मैदान के मंच से जब दिनकर ने जेपी पर अपनी कविता उस दिन सुनायी तो तालियों की गड़गड़ाहट से गांधी मैदान भर गया था। यह कविता इतनी मशहूर हुई कि डॉ लोहिया ने एक बार दिनकर से संसद भवन में कहा था कि तुमने जेपी पर कविता लिखी लेकिन तुमने मुझ पर आज तक कोई कविता नहीं लिखी।
एक दिन बाद (6 सितंबर) उसी शख्स की पुण्यतिथि है। मुजफ्फरपुर (बिहार) के बेनीपुर गांव में जनमे इस शख्स का नाम रामवृक्ष बेनीपुरी था। वह समाजवादी नेता ही नहीं बल्कि पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और श्रेष्ठ निबंधकार भी थे यानी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे और आजादी की लड़ाई में छह-सात बार जेल भी गये थे और इस तरह उन्होंने अपने जीवन के सात वर्ष जेल में गुजारे थे।
रामवृक्ष बेनीपुरी को आज लोग कम जानते हैं या उनके संपूर्ण योगदान से परिचित नहीं हैं। वे सिर्फ इतना जानते हैं कि बेनीपुरी जी हिंदी के महत्त्वपूर्ण लेखक और समाजवादी नेता थे लेकिन यह बात कम लोग जानते हैं कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनने से पहले बेनीपुरी जी ने बिहार में समाजवादी पार्टी की स्थापना की थी और जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी तो उसके सात संस्थापक सदस्यों में से एक बेनीपुरी जी भी थे। आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण,एसएम जोशी, अच्युत पटवर्धन, यूसुफ मेहर अली के साथ-साथ उस प्रस्ताव पर बेनीपुरी जी के भी हस्ताक्षर थे। आजादी के बाद जब बेनीपुरी जी ने सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव लड़ा था तो उनके चुनाव प्रचार में जयप्रकाश नारायण और लोहिया भी गये थे। उनके चुनाव लड़ने का किस्सा भी बड़ा अद्भुत है। बेनीपुरी जी के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह चुनाव लड़ सकें। उन्होंने अपने गांव में लोगों से चंदा कर ₹30000 जुटाये थे और बैलगाड़ी पर बैठकर चुनाव प्रचार किया था। लेकिन आजादी के बाद अन्य समाजवादियों की तरह बेनीपुरी का भी कांग्रेस शासन से बुरी तरह मोहभंग हो गया था और वह सत्ता की राजनीति से पूरी तरह दूर हो गए थे।
बेनीपुरी जी बिहार के किसान आंदोलन में भी काफी सक्रिय थे और स्वामी सहजानंद सरस्वती तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन के साथ बढ़-चढ़कर उन्होंने भी भाग लिया था। राहुल जी पर जब लाठीचार्ज हुआ था और उनका सर फट गया था तो बेनीपुरी जी ने ‘जनता’ में तीखा संपादकीय लिखा था और अंग्रेज सरकार पर प्रहार किया था। ‘जनता’ जयप्रकाश नारायण ने निकाला था और बेनीपुरी जी उसके संपादक थे। शिवपूजन सहाय के दामाद वीरेंद्र नारायण, बेनीपुरी के सहयोगी थे जो 42 के आंदोलन में रेणु जी के साथ भागलपुर जेल में थे।
बेनीपुरी जी बड़े बेबाक, निर्भीक और साहसी पत्रकार थे। उन्होंने शिवपूजन बाबू की तरह करीब 14 पत्रिकाओं का संपादन किया जिनमें युवक, जनता, बालक, किसान, हिमालय, नई धारा जैसी अपने समय की चर्चित पत्रिकाएं थीं। असल में उन्हें पत्रकारिता का प्रशिक्षण बाबू शिवपूजन सहाय से मिला था और उन्होंने बेनीपुरी जी के युवा दिनों में उनका काफी मार्गदर्शन किया था तथा उन्हें नौकरी दिलाने में बड़ी मदद की थी। इस बात के बेनीपुरी जी बड़े आभारी थे और उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि शिवपूजन बाबू मेरे साहित्यिक पिता थे। बेनीपुरी जी ने नए लोगों को भी काफी प्रोत्साहित किया जिनमें दिनकर और रेणु जी प्रमुख हैं। बिहार की राजनीति में उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को भी काफी प्रेरित किया और कर्पूरी जी ने तो एक तरह से बेनीपुरी जी से समाजवाद की शिक्षा-दीक्षा ली थी। लेकिन बेनीपुरी जी ने खुद का कभी न तो प्रचार किया और ना ही वह सत्ता में आसीन लोगों के दरबार में गए।
आजाद भारत मे बेनीपुरी जी के शिष्य दिनकर को पद्मभूषण मिला, राज्यसभा की मेम्बरी मिली, पर बेनीपुरी जी को पद्मश्री भी नहीं मिला। वे इन सम्मानों से बड़े थे।शायद यही कारण रहा कि दिनकर जैसे लोग तो नेहरू के करीब हो गये लेकिन बेनीपुरी जी ने समाजवादी आंदोलन के दिनों से ही नेहरू की नीतियों का कड़ा विरोध किया था।वैसे दिनकर ने लिखा है, बेनीपुरी नहीं होते तो दिनकर भी नहीं होता।
बेनीपुरी जी डॉ राजेन्द्र प्रसाद के अधिक निकट थे। एक बार राजेन्द्र बाबू उनके गांव भी गए थे। जयप्रकाश के मित्र होने के नाते बेनीपुरी पर राजेन्द्र बाबू का विशेष स्नेह था क्योंकि राजेन्द्र बाबू के बेटे की शादी प्रभावती जी की बहन से हुई थी। जेपी के साथ बेनीपुरी का भाई जैसा ही रिश्ता था और जेपी उनसे बराबर सलाह-मशवरा लिया करते थे।जब जेपी भूदान आंदोलन में चले गये तो बेनीपुरी ने उनको एक कड़ी चिट्ठी लिखी थी और कहा था कि आपको मुख्यधारा की राजनीति में रहना चाहिए और सामाजिक आंदोलन में भाग लेना चाहिए लेकिन आप तो पलायन का रास्ता अपनाकर भूदान आंदोलन में चले गए। इस तरह बेनीपुरी जी अपने विचारों और प्रतिबद्धता के लिए मशहूर थे इसलिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण की भी वैचारिक स्तर पर आलोचना की थी।
बेनीपुरी जी आज के समाजवादियों की तरह कोई पेशेवर समाजवादी या प्रोफेशनल नेता नहीं थे बल्कि वह जनता का लेखक होने के नाते जनता के नेता थे। वे जनता के दुख-दर्द को समझते थे। अगर वे समाज के आम आदमी के दुख-दर्द और कष्ट को ना समझते तो ‘माटी की मूरतें’ जैसी किताब नहीं लिखते। उन्होंने रेखाचित्र की विधा को ऊंचाई दी। हिंदी में महादेवी, बेनीपुरी और रेणु के स्केच अमर हैं।
हिंदी में ‘माटी की मूरतें’ जैसी किताब फिर नहीं लिखी गयी। इस किताब के पात्र आज अमर हैं। वे इतने जिंदादिल धड़कते हुए पात्र हैं कि शब्दों में जीवित हो जाते हैं। जिस तरह प्रेमचंद के पात्र अमर हो गये उसी तरह बेनीपुरी के भी। हिंदी गद्य के निर्माण में भी बेनीपुरी का अवदान काफी महत्त्वपूर्ण है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, विश्वनाथ त्रिपाठी ने एनसीईआरटी के लिए हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास लिखा तो उसमें बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय का नाम नहीं जबकि हिंदी में जिन तीन शैलीकारों की चर्चा हुई है उनमें राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह और शिवपूजन सहाय के साथ बेनीपुरी का ही नाम है।
बेनीपुरी का गद्य ही नहीं बल्कि पूरा व्यक्तित्व एक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से निर्मित व्यक्तित्व है और प्रेमचंद के बाद सर्वाधिक मुस्लिम पात्र बेनीपुरी के ही लेखन में दिखाई पड़ते हैं। बाद में धीरे-धीरे ऐसे पात्र हिंदी साहित्य से विलुप्त होते गए। प्रेमचन्द की तरह बेनीपुरी ने भी गांव को बड़े करीब से देखा था और उसी में वह रचे-बसे थे। आज रेणु की आंचलिकता की बहुत चर्चा होती है लेकिन लोग यह लोग भूल जाते हैं कि इस आंचलिकता के निर्माण में बेनीपुरी और शिवपूजन बाबू का साहित्य आधारभूमि की तरह काम करता है क्योंकि इन दोनों लोगों ने ग्रामीण समाज के सांस्कृतिक जीवन को भी बड़े करीब से अपने साहित्य में उतारा था जिस पर रेणुजी ने एक बड़ा सा महल खड़ा किया।
बेनीपुरी जी ने जयशंकर प्रसाद और लक्ष्मीनारायण मिश्र के बाद हिंदी नाटकों में भी बड़ा योगदान दिया और उन्होंने कई ऐतिहासिक नाटक भी लिखे जिनमें ‘अंबपाली’, ‘संघमित्रा’ और ‘नेत्रदान’ उनके बड़े महत्त्वपूर्ण नाटक हैं। ‘अंबपाली’ लोकप्रिय नाटक पर तो राज कपूर ने एक फिल्म भी बनाने की योजना बनायी थी और इसके लिए उन्होंने उस जमाने में ₹5000 का एडवांस भी दिया था। उन दिनों बेनीपुरी जी अपने मित्र पृथ्वीराज कपूर से मिलने मुंबई गये थे और उनके घर ही ठहरे थे जहां राज कपूर ने बेनीपुरी के सामने यह प्रस्ताव रखा था। लेकिन किन्हीं कारणों से वह फिल्म नहीं बन सकी। बाद में अम्बपाली पर एक नाटक हुआ था जिसे अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था। दिल्ली में जब यह नाटक हुआ तो उसे देखने डॉ राजेन्द्र प्रसाद भी आए थे।
बेनीपुरी के जन्मशती वर्ष में एक बार उनके साहित्य की तरफ लोगों का ध्यान गया जब प्रसिद्ध समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन और मस्तराम कपूर की पहल एक राष्ट्रीय समिति गठित की गयी और उसके तत्वावधान में मुजफ्फरपुर, नागपुर, कोलकाता और दिल्ली में कई कार्यक्रम हुए। लेकिन हिंदी के वामपंथी आलोचकों ने बेनीपुरी के साहित्य पर ध्यान नहीं दिया और लिखा भी नहीं। प्रसिद्ध पत्रकार सुरेश शर्मा ने जब बेनीपुरी ग्रंथावली का संपादन किया तब बेनीपुरी जी के संपूर्ण अवदान के बारे में हिंदी साहित्य को जानकारी मिली और तब रामविलास शर्मा ने अपने निधन से पूर्व बेनीपुरी पर एक किताब संपादित की, जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा कि हिंदी पट्टी में स्वतंत्रता आंदोलन के तीन ही लेखक-पत्रकार नायक थे जिन्होंने युवकों को प्रेरित किया- गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी और रामवृक्ष बेनीपुरी।
बेनीपुरी जी ने अपने जीवन काल में अपनी रचनावली निकालने का भी प्रयास किया था और उसके दो खंड उन्होंने निकाले भी थे लेकिन बाद में वह अपनी रचनावली नहीं निकाल पाए। कालांतर में सुरेश शर्मा के संपादन में ग्रंथावली निकली और तब हिंदी साहित्य को बेनीपुरी के समग्र व्यक्तिव तथा कृतित्व के बारे में पता चला। जन्मशती वर्ष के बाद बेनीपुरी को जानने-समझने का एक नया सिलसिला शुरू हुआ है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनके नाटक ‘संघमित्रा’ पर एक ट्रेन का और एक पुल का भी नामकरण किया लेकिन अभी विश्वविद्यालय जगत तथा साहित्य जगत में जिस तरह बेनीपुरी पर शोधकार्य या आलोचना कर्म होना चाहिए था, नहीं हो पाया है। यहां तक कि आज के समाजवादी भी बेनीपुरी का केवल नाम भर जानते हैं और जब कोई समाजवादियों का सम्मेलन होता है, वहां बेनीपुरी का कोई चित्र और नाम भी नहीं होता है। लोग जयप्रकाश नारायण, लोहिया, आचार्य नरेंद्रदेव को तो जानते हैं लेकिन बेनीपुरी को भूल जाते हैं या उनके उस महत्त्व को नहीं समझते हैं जिसके वे हकदार हैं, लेकिन जब लोगों को बेनीपुरी जी के योगदान के बारे में पता चलता है तो उनका सर बेनीपुरी जी के प्रति सम्मान से झुक जाता है। ऐसे थे हमारे सच्चे बेनीपुरी।