भारत में जाति की वास्तविकता, आरक्षण और संघ का बदलता रुख

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— रमाशंकर सिंह —

(दूसरी किस्त)

ध्यप्रदेश को देखें, कांग्रेस ने आरंभ से ही उच्च कुलीन सवर्णों को सदैव सत्ता सौंपी; कभी-कभी उन्हें भी, जो मप्र के निवासी भी न थे और अचानक एक दिन आकर मुख्यमंत्री बना दिये गये, जैसे बड़े वकील कैलाशनाथ काटजू जो कश्मीरी ब्राह्मण थे। ऐसों को असफल होना ही था। कांग्रेस में मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त पूरी सूची को देखें तो पाएंगे कि आदिवासी- दलित-पिछड़ावर्ग बहुल इस राज्य में उन्हें करीब पैंतालीस साल के अखंड कांग्रेसी राज में एक भी गरीब, आदिवासी, पिछड़ा या दलित कांग्रेसी नेता या कार्यकर्ता नहीं मिला जिसे वे एकाध बार ही प्रदेश का मुखिया बना सकें।

और तो और, सवर्णों में भी आभिजात्य या सामंती पृष्ठभूमि के ही। ज़मींदार, धनवान, उद्योगपति, व्यवसायी, ब्राह्मण, बनिया या सामंती राजपूत ही मिले। एक बार जैसे-तैसे विधायकों के विशाल बहुमत ने आदिवासी के पक्ष में  अपनी स्पष्ट राय दी भी पर हाईकमान (पढ़ें संजय गांधी) के अनुचर समान पर्यवेक्षक प्रणब मुखर्जी के जरिये बमुश्किल मात्र दो दर्जन विधायकों के समर्थन वाले सामंत ठाकुर को चुना हुआ मुख्यमंत्री घोषित करवा दिया। एक बार भी वंचित वर्ग को सांकेतिक मौका तक नहीं दिया गया।

–  इसके बाद ही भाजपा बल्कि संघ  ने आदिवासी और अनुसूचित वर्गों में इतना जमीनी काम किया कि यह नौबत आ गयी कि अधिकांश एस.सी. व एस.टी. सीटों पर भाजपा के विधायक जीतने लगे। यह आश्चर्यजनक है कि खासतौर पर छत्तीसगढ़ के गठन के बाद मप्र जैसे राज्य में अनुसूचित जाति व जनजाति के विधायक बहुत बड़ी तादाद में भाजपा के चुने जाने लगे।

इसके बाद जो राजनीतिक प्रयोग संघ-भाजपा ने 2003 में उमा भारती (पिछड़ा लोधी) को मुख्यमंत्री बनाकर शुरू किया वह आज तक जारी है। किरार पिछड़ा वर्ग के शिवराज सिंह जो कि भारतीय युवा मोर्चा के एक सामान्य कार्यकर्ता थे उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया जो अब मप्र के सबसे लंबी अवधि के टिकाऊ मुख्यमंत्री हो चुके हैं। लगातार चार बार के मुख्यमंत्री। जबकि कांग्रेस लगातार हारने के बावजूद धनवान ब्राह्मण- राजपूत नेतृत्व से मुक्त नहीं हो पायी है। बनिया कब का छिटक चुका है।

यूपी को भी देखिएगा कि कितने दशकों तक लगातार बनिया-ब्राह्मण- राजपूत नेतृत्व चलता रहा जब तक कि चौ. चरणसिंह जैसे किसान  नेता कांग्रेस छोड़कर नया दल बनाकर अलग नहीं हो गये और डॉ लोहिया प्रणीत वंचित वर्ग की राजनीति के कारण गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने। मुलायम सिंह बेशक बाद में शुद्ध सिद्धांतहीन राजनीति में फंस  गये हों पर कांशीराम-मुलायम सिंह का गठजोड़ ऐसी राजनीति का आरंभ कर चुका था जो यदि समझदारी से चलायी जाती तो यूपी जैसे राज्य में कभी भी सांप्रदायिक ताकतों को मौका नहीं देती।

यहीं से यूपी में भी संघ व भाजपा ने पिछड़े वर्गों के उन छोटे-छोटे समूहों व उनके नेताओं पर ध्यान देना शुरू किया और गैर-जाटव, गैर-यादवों को महत्त्व देकर अपने राजनीतिक समीकरणों में बैठाया। जबकि दूसरी ओर तमाम आनुषंगिक संगठन खड़े कर परंपरागत सवर्णों को दूर नहीं होने दिया बल्कि उन्हें आरक्षण विरोध में भी पृथकत: सक्रिय रखा। आप देखेंगे कि व्हाट्सऐप पर कितने सक्रिय समूह हैं जो नमो नमो करते हैं पर खुलकर आरक्षण विरोध में हैं और हर चुनाव में ये समूह संघ के आदेशानुसार भाजपा को ही वोट दिलवाते हैं।  संघ इन्हें यह समझाने में सफल होता है कि अभी सत्ता जरूरी है पर जैसे ही  प्रचंड बहुमत की सरकारें केंद्र व राज्यों में आ जाएंगी तो आरक्षण खत्म करना बायें हाथ का काम होगा और शायद हो भी।

– कुछ माह पहले बिहार में बनी जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार को ही देख लीजिए कि वहाँ भी दो उपमुख्यमंत्री भाजपा ने बनाये हैं और दोनों ही पिछड़ा वर्ग के हैं। बिहार का दबंग भूमिहार-राजपूत भाजपा का वोटर है पर उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा। जबकि राजद की ओर से पूर्व घोषित रहता है कि लालू पुत्र ही मुख्यमंत्री रहेंगे। उन दोनों की हालत यह है कि निषाद मल्लाहों की नवोदित छोटी पार्टी वीआईपी पार्टी और  अति पिछड़े कोइरी कुशवाहों के छोटे दल तक को अहंकारवश अपने से दूर कर भाजपा या कहीं भी जाने देते हैं, नतीजतन सत्ता से हाथ धोना पड़ता है। आप देखिएगा कि अगले चुनाव में बिहार में यादवों और कुर्मियों में बड़ी सेंध लगाकर भाजपा आज से भी मजबूत हालत में पहुँचेगी और पिछड़ा-दलित राजनीति के नंबरदार लालू व नीतीश कुमार अपनी उम्र और निजी द्वेषी व्यवहार के कारण अंसगत होकर प्रकारांतर से भी भाजपा के सहयोगी बनते दिख सकते हैं।

जाति भारत की वास्तविकता है और यह बात जिन्होंने सबसे पहले पहचानी व जानी थी वे उस सैद्धांतिक राजनीति से टूट रहे हैं जबकि जिन राजनीतिक ताकतों ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया था वे अब उसके महत्त्व को समझ कर अपना रहे हैं। चाहे रणनीतिक तौर पर ही सही। फर्क एक है जो कि बेहद महत्त्वपूर्ण है और वह है कि संघ-भाजपा राजनीतिक तौर पर जोड़कर उन्हें अपने कथित सांस्कृतिक व पंथिक एजेंडे से  प्रयासपूर्वक निबद्ध कर देते हैं। जबकि लालू, मुलायम, अखिलेश, नीतीश मात्र चुनावी राजनीतिक ढंग से जोड़ते हैं। जाहिर है कि संस्कृति धर्म का कलावा ज्यादा मजबूत होता है।

जाति आधारित आरक्षण, संघ और चुनाव की राजनीति

यह तथ्य तो अब सब स्वीकार करते हैं कि भाजपा सही मायनों में संघ का ही एक आनुषंगिक संगठन है जिसके जरिये संघ अपनी राजनीति करता है। संघ के मात्र सांस्कृतिक संगठन होने का दावा रोज धराशायी होता है जब पार्षद से लेकर संसद सदस्य, मंत्री, प्रधानमंत्री सब संघ की मर्जी के बगैर तय नहीं होते। हर चीज पर नियंत्रण है, बस एक सीमा के अंदर कुछ छूट है, तिस पर भी संघ की सहमति लिये बगैर फैसला नहीं हो पाता। वह चालीस साल पहले का मुखौटा अब लगाये रखने की कोई जरूरत भी नहीं है।

यदि और जब जब संघ ने हाथ खींचे हैं तो भाजपा (जनसंघ) धड़ाम से गिरती है। संघ के प्रचारक ही बूथ स्तर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं को बनाते हैं, प्रशिक्षित करते हैं और आगे खड़े होने के लिए तैयार करते हैं। संघ की नीतियों को लागू करने के लिए सरकार बनाना जरूरी है और यह बात अब खुलकर कही जा रही है।

तो मंडल कमीशन के बाद तेजी से उभरे पिछड़ा आंदोलन के बाद चाहे कुछ मामूली देर से ही सही पर संघ को यह बात समझ में आ गयी कि अकेला धार्मिक उन्माद चुनाव में उनकी गाड़ी पार नहीं लगा सकता। इसलिए सोच-विचार के बाद तब निर्णय लिया गया कि कोई अन्य रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि पिछड़ा आंदोलन में सेंध लगाकर उपेक्षित छोटे-छोटे पिछड़ा वर्ग समूहों में पैठ बनायी जाए और उन समूहों को राम मंदिर, गणेश चतुर्थी, नवरात्रि, काँवड यात्राओं, भागवत कथाओं व रामलीला आदि आयोजनों में जोड़ा जाए।

मायावती, मुलायम, लालू आदि इससे अनभिज्ञ रहे और वे अपनी जातियों को ही पुष्ट करते रहे और आधा पिछड़ा वर्ग समूह संघ-भाजपा तोड़कर ले गये। इन छोटे समूहों को नेता, मंत्री पद पर बिठा कर एक प्रतीकात्मक राजनीतिक संदेश भी दिया, जबकि असल नियंत्रण सदैव संघ के हाथों में ही रहा। बिहार में महादलित और अति पिछड़ा वर्ग की बात कर नीतीश कुमार ने जरूर बहुत कुछ बिखरने से बचाया पर उनके व लालू के निजी रागद्वेष ने सब चौपट कर दिया।

अब यह निर्विवाद है कि समाजवादी  आंदोलन के तमाम बचे-खुचे नेताओं के पास ही हिंदी पट्टी का पिछड़ा नेतृत्व नहीं है बल्कि आधा, आंशिक ही है और शेष का नेतृत्व भाजपा करने लगी है। वैसे ही जैसे मायावती की बसपा सिर्फ जाटवों की पार्टी रह गयी है जबकि अन्य दलित जातियाँ खिसक कर भाजपा-संघ के पास पहुँच गयी हैं।

संघ दरअसल एक मानसिक दुविधा से जूझ रहा है, वह दिल-दिमाग से आरक्षण के  खिलाफ है पर राजनीतिक-सामाजिक वस्तुस्थिति उसे जातिगत आरक्षण स्वीकार करने पर मजबूर कर रही है। तभी आप देखेंगे कि सैकड़ों- हजारों ऐसे व्हाट्सऐप ग्रुप बने हुए हैं, जो एक लक्ष्य को लेकर बने हैं कि आरक्षण समाप्त हो। इन हजारों समूहों में से 99 फीसद संघ कार्यकर्ताओं ने बनाये हैं और पूरी शिद्दत से अपने अभियान को चलाये रखते हैं। एक-दो फीसद उच्चवर्णीय कुंठित कांग्रेसी चलाते रहते हैं, समाजवादियों को गरियाने के लिए।

95 बरस के इतिहास में पहली बार इन दो-तीन बरसों में संघ ने घोषित किया है कि जब तक सामाजिक विषमता है तब तक आरक्षण खत्म नहीं होना चाहिए। इस घोषणा के साथ ही भारत के सभी राजनीतिक दल व समूह आरक्षण के समर्थक हो गये हैं। संसद के विगत सत्र में संविधान संशोधन बिल पर पूरे संसद की एकता अभूतपूर्व थी।

अब आरक्षण के असली मकसद पर सोचिए, यह है नौकरियों में आरक्षण  का प्रावधान और शिक्षा में स्थान आरक्षण! पहले नौकरियों पर बात हो!

सरकारों ने कई बरसों से नये पदों का सृजन बंद कर रखा है, नौकरियों का निर्माण नहीं हो रहा है। जो थोड़ी सी नौकरियाँ निकलती भी हैं तो कोर्ट- कचहरी में फँसाकर बरसों तक लटका देना सरकार के बायें  हाथ का काम हो गया है। ज्वाइनिंग होने भी कानूनी दाँव-पेच फंसा दिये जाते हैं। हाँ, नौकरी के आवेदनों से करोड़ों की कमाई जरूर सरकार करने लगी है पर नौकरियाँ नदारद हैं। इसी हालत के दौरान मोदी सरकार का कथित मास्टर स्ट्रोक अपनी जगह कारगर है कि निजीकरण कर दो, स्वत: ही नौकरियों की बात खत्म हो जाएगी और आरक्षण महज एक अकादमिक बहस का मुद्दा बन कर रह जाएगा। वही हो रहा है कि 2024 तक सरकारी क्षेत्र का बहुलांश अंग निजी हाथों में चला जाएगा जहाँ की नौकरियों पर सरकार की संविधान सम्मत नीति लागू नहीं हो रही है।

अब उलटा हो रहा है, कि कुल अधिकतम 15 फीसद सवर्णों के हाथों में निजी क्षेत्र की करीब-करीब सभी नौकरियां आएंगी। निजी क्षेत्र मालिकों और अफसरों के बीच यह काल्पनिक डर बसा दिया गया कि दलित या जनजातियों का कर्मचारी रखा तो डाँटने मात्र से ही गैरजमानती अपराध थोपे जाने का खतरा रहेगा इसलिए यदि कोई काबिल भी मिल जाए तो नौकरी पर रखने का जोखिम मोल नहीं लिया जाना चाहिए।

तो संघ ने अब कितनी चतुराई से दोनों खेल को अपने हाथों में रखा हुआ है, वह आरक्षण विरोध का भी झंडा थामे हुए है और आरक्षण समर्थन का भी, जबकि बसपा, सपा, राजद, जदयू इसमें भी फिसड्डी साबित हुए हैं। संघ के दोनों हाथों में लड्डू है। कम्युनिस्ट दलों को भी इसी मुद्दे पर एक ऊहापोह से गुजरता हुआ देखा जाता है।

नीतीश और तेजस्वी ने एक बार फिर आरक्षण का मुद्दा जातीय जनगणना के माध्यम से उठा दिया है लेकिन कोई आश्चर्य न हो कि यूपी चुनाव के पहले संघ-भाजपा सरकार यह घोषित ही कर दे कि वे जातीय जनगणना करवाएंगे।

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