कला की अवधारणा

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— सच्चिदानन्द सिन्हा —

किसी भी कला का दो उद्देश्य होता है : अभिव्यक्ति और भाव-संचार। और कोई कलाकार अपनी बात बताये, व्यक्त करे इससे पहले उसे उन चीजों को समझना और समझाने लायक बनाना होता है- उसे संकल्पित करना होता है, उसका बिम्ब विकसित करना होता है। इस प्रकार अन्य सभी कल्पना से चलनेवाली गतिविधियों की तरह कला के लिए भी बिम्ब ही सर्वाधिक महत्त्व की चीज हो जाता है। बिम्ब निर्माण कलाकार की अमूर्तन की क्षमता पर निर्भर करता है। अपने आसपास फैले अपार अमूर्त और अव्यवस्थित चीजों और भावों के बीच से अर्थपूर्ण आकार निकालना उसकी आंखों पर जो असंख्य रंग, प्रकाश और छायाएँ पड़ती हैं, उसके कानों में जो तरह-तरह की ध्वनियाँ आती हैं उनमें से वह उन कुछ का चुनाव करता है जो किसी तरह का प्रतिमान बनाते लगते हैं, कोई पैटर्न उभारते हैं। इनके आधार पर वह अपनी अवधारणाओं का निर्माण करता है। घर क्या है, कुत्ता क्या है, किसी शब्द, सुर या ध्वनि का अर्थ क्या है यह अवधारणा हम सब बनाते हैं। पर जब हम घर या कुत्ता की बात करते हैं तो एक बनी-बनायी अवधारणा का इस्तेमाल करते हैं।

और अवधारणाएँ बनती कैसे हैं? ये हमारे दिमाग में बननेवाले कुछ खास वर्गीकरणों से तैयार होती हैं।  अपने आसपास की विभिन्न चीजों से हम उन्हीं बातों को ज्यादा ग्रहण करते हैं जो ज्यादा बार सामने आती हैं या जो कुछ अलग तरह की होती हैं। जैसे हम जितने भी कुत्ते देखते हैं उनमें दुम हिलाना या भौंकना हमें सबसे आम दिखता हो तो कुत्ते को देखते ही यही दो चीजें सबसे पहले दिमाग में आती हैं। एकदम खास और कम से कम बातों में उस चीज की पूरी छवि सामने लानेवाली चीजें ही हमारे दिमाग के किसी कोने में घर कर जाती हैं और जब भी उस ‘गुण’ की बात आए वह पूरी छवि सामने आ जाती है। एक प्रक्रिया इससे उलट भी चलती है। जब भी ‘कुत्ता’ शब्द सुनाई देता है ये गुण आँखों के सामने आ जाते हैं। और अवधारणा बनाये बगैर दुनिया की अपार विविधताओं को सँभालना मुश्किल है क्योंकि कोई भी दो कुत्ते या दो मकान एक समान नहीं होते। फिर दुनिया भी रोज बदल रही है।

आप जिस समय, स्थान, जिस दूरी और जिस कोण से चीजों को देखते हैं वे खुद बदलती जाती हैं। ऐसे में अगर अवधारणाएं न हों तो मौजूदा वातावरण में वस्तुओं और भावनाओं की पहचान मुश्किल हो जाएगी। कम से कम गुणों या विशेषताओं के आधार पर हम अपनी दुनिया और आसपास की चीजों को लेकर जो अवधारणाएँ बनाते हैं वही हमारी समझ के लिए एक ठोस आधार तैयार करती हैं। यह चीज मनोविज्ञान की निरंतरता की परिघटना से मिलती-जुलती है जिसमें हमारे सामने आनेवाली चीजें सही आकार और परिस्थिति में दिखती हैं।

इस तरह से हम जिन अवधारणाओं पर पहुंचते हैं वे उस कल्पनालोक से अलग होती हैं जिसमें हर चीज अद्वितीय होती है और वास्तविक जगत की चीजें तो बस उनकी घटिया कार्बनकापी दिखती हैं। कुछ-कुछ अमूर्त चीजों को समेटते ही इन अवधारणाओं का निर्माण होता है। अवधारणाओं के खजाने में हमारे द्वारा बनायी अमूर्त धारणाएँ जुड़ती जाती हैं। पर अवधारणाएँ न तो दुनिया में देखी-सुनी गयी चीजों की कार्बनकापी हैं ना ही स्वर्ग जैसी कल्पना की चीज ही। ये हमारे ही मन-मस्तिष्क द्वारा बनायी और जमा की गयी चीज हैं जो चेतन-अचेतन ढंग से दर्ज होती रहती हैं। कई बार इसपर हमारा वश भी नहीं चलता। हैरानी नहीं कि जब किसी बच्चे को एक आदमी या उसके पालतू कुत्ते की तस्वीर बनाने को कहा जाता है तो उसकी तस्वीर सबसे आसान चीजों/विशेषताओं तक सीमित होती है। आदमी के उसके चित्र में एक बड़ा गोल घेरा होता है जिसके मध्य में आसपास दो छोटे-छोटे गोल निशान होते हैं, उसके कुछ नीचे एक सीधी पड़ी लाइन होती है, जिसे मुँह मान लिया जाता है।

नव-पाषाण काल की चित्रकारी में आदमी और उसके आसपास पाये जानेवाले जानवरों की तस्वीरों में ज्यादा अंतर नहीं दिखता क्योंकि उनमें वास्तविक चीज की कापी बनाने की जगह उनकी खास विशेषताओं भर को दर्शाया गया था। ट्रमो द’इओल की जिस तस्वीर में असली चीज को उसी रूप में दिखाने की कोशिश की गयी है वह काफी बाद की संस्कृतियों में आयी है। इन सब में रेखाओं, रंगों या ध्वनियों की कुछ खास ऐसी बनावट/विन्यास ही सबसे महत्त्वपूर्ण चीज है जो इन अवधारणाओं को जगा देती है। और ये चीजें हमारे-आपके हाथ से बनने-बदलने वाली हैं।

यही चीज अभिव्यक्ति और भाव-संचार कहलाती है और जो यह कर लेता है वह कलाकार है। अमूर्तन और बिम्ब-निर्माण के सहारे कलाकार विभिन्न स्थितियों को पहले अपने अन्दर बैठाता है। फिर वह रेखाओं, रंगों और ध्वनियों के सहारे उन्हें भौतिक रूप में सबके सामने लाता है। हमने समझने-समझाने के लिए इन दो प्रक्रियाओं को अलग-अलग बताया है पर मोटे तौर पर कलाकार के अन्दर ये दोनों चीजें एकसाथ चलती हैं। अकसर कलाकार हाथ में कूंची लेकर ही सोचता है, वहीं मन में आए विचारों को मूर्त रूप देता है। एक माध्यम के जरिये उन्हें अभियक्ति देना ही कला का रूप लेता है और दर्शक जब उस कलाकृति को देखता है तब उसे भी उन अवधारणाओँ की अनुभूति होती है। इस तरह से कलात्मक भाव-संचार सम्भव होता है।

बहुत सारी जटिलताओं से घिरी महत्त्वपूर्ण चीज और पल को अमूर्त बिम्बों में बदलना सौन्दर्यशास्त्र के हिसाब से काफी महत्त्वपूर्ण चीज है। मनुष्य के अन्दर कुछ चीजों को कलात्मक अभिव्यक्ति देने का रुझान रहता है। फिर ये पल या चीजें बहुत मामूली/आम होती हैं जिनकी पहचान करनी होती है। पर उनका दोहराव-तिहराव (लय), सन्निकटता (संतुलन-असंतुलन, एकरूपता-अंतर), बनावट (एकता या बिखराव) ही उनके महत्त्व और भाव को स्पष्ट करता है, हम पर असर डालता है। यहीं आकर कला की अवधारणा दूसरों से अलग हो जाती है। अगर कलाकार के अन्दर इन तत्त्वों को तोड़ने और पुनर्निर्मित करके एक नया रूप देने की क्षमता नहीं है तो चीजें एक शोर, चीख या रंगों के घमासान से ज्यादा अलग रूप नहीं ले सकतीं। पर इन साधारण इकाइयों/तत्त्वों को जोड़कर एक जटिल रचना को रूप देना ही अधिकांश रचनाओं का स्रोत है। इसी अर्थ में धर्मशास्त्री थियोडोर द कार्डिन का कथन- ‘एतेर इएस्त युनीर’ अर्थात रचना का अर्थ जोड़ना है। रचना का उच्चतर स्वरूप ज्यादा से ज्यादा चीजों को समेटता है और साधारण रूप लेता है। एक जटिल रचना बनाने के लिए जोड़े गये तत्त्व ज्यादातर मामलों में अवधारणात्मक प्रकृति के होते हैं और बिम्बों/प्रतीकों के रूप में ही कलाकार के मन में आते हैं।

कलात्मक अवधारणाएँ अनिवार्यत: प्रतीकों/बिम्बों से जुड़ी हैं। जब एक बच्चा एक आदमी के चित्र की परिकल्पना करता है तो वह तस्वीर आदमी का प्रतीक बन जाती है। इसी प्रकार भाषा में ‘आदमी’ शब्द आदमी का प्रतीक ही होता है। यह आदमी कोई खास व्यक्ति न होकर हमारे मन में उन सभी गुणों/स्वरूपों को जगा देता है जो आदमी के लिए बड़े रूप में, छोटे रूप में, जटिल-सरल, किसी खास गुण-अवगुण के साथ बसा होता है। चूंकि इन गुणों/विशेषताओं को रेखाओं, बिन्दुओं, रंग या नाद के जरिये भौतिक प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। और इसीलिए मानव रचनाशील मन अपने अन्दर के अपार भंडार से इन्हें लेकर तरह-तरह की रचनात्मक अभिव्यक्ति कर सकता है। ‘एतेर इएस्त युनीर’ वाले कथन को कुछ उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है। जैसे गणेश की आकृति का ही ध्यान कीजिए। शरीर मनुष्य का है और सिर हाथी का, कई हाथ उनकी मर्यादा/सम्मान को बढ़ाते हैं और बहुत आदर वाले देव का दर्जा दिलाते हैं। वास्तविक जीवन में हमें वैसा कोई आदमी नहीं मिलता-मिल सकता। लेकिन अवधारणा के स्तर पर हम बहुत आसानी से हाथी के कुछ अंगों, कई हाथों वाले व्यक्ति अर्थात गणेश की कल्पना कर लेते हैं।

इसी प्रकार हजारों सिर वाले शेषनाग की कल्पना है। इसे साहित्य में, चित्रों में, मूर्तियों में बड़ी आसानी से लोगों की कल्पना के अनुरूप ही दर्शाया जाता है। भगवान विष्णु को भी मानव आकृति और रूप में देखा और दिखाया जाता और फिर इतने विशाल रूप में भी माना/दिखाया जाता है जिसके अन्दर लाखों ब्रह्मांड समाये हुए हैं और सृष्टि तथा विनाश का चक्र चलता ही रहता है। इसी तरह हम दुर्गा, नरसिंह, रावण, नन्दी, कृष्ण और महिषासुर वगैरह का उदाहरण दे सकते हैं।

पर सभी अवधारणाओं के साथ भौतिक स्वरूप नहीं जुड़ा होता। जैसे प्रेम, आजादी, जीवन, मृत्यु वगैरह। कला इन अरूप अवधारणाओं को भी प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में सक्षम है। यह काम कुछ नए प्रतिनिधि स्वरूपों की रचना या उन भावनाओं को उभारने में सक्षम अभिव्यक्तियों के जरिये किया जाता है। प्रेम की देवी ‘इरोज’ या प्रेम के देवता कामदेव ऐसे ही प्रतिनिधि स्वरूप हैं। हाथ में मशाल लिये आजादी की देवी को कलाकार स्वतंत्रता की प्रबल भावना की अभिव्यक्ति के लिए पेश करता है। पर कला के लिए भावों को अभिव्यक्त करने के लिए ऐसे प्रतीकात्मक स्वरूप बनाये ही जाएँ यह जरूरी नहीं है। कलाकार कई बार रंगों और नयी आकृतियों या स्वरों की नयी बनावट से भी यह काम करते हैं। जैसे किसी कलाकृति में श्वेत रंग शुद्धता, लाल प्रबल भावनाओं और ऊर्जा का तथा नीला शांति को अभिव्यक्त कर सकता है। इसी प्रकार ऊर्ध्व रेखा शक्ति और ओजस्विता को बता सकती है तो क्षैतिज रेखा शांति और विराम को। पर ये चीजें तभी प्रभावी बनती हैं जब परम्परा से आती हैं, उससे जुड़ती हैं, किसी व्यक्ति/कलाकार, किसी समूह या समाज से जुड़कर भी इनका प्रभाव बनता है पर तभी जब ये बार-बार दिखती/अभिव्यक्त होकर किसी खास भाव से उस प्रतीक या रंग या ध्वनि को जोड़ती हों।

पर कला यही नहीं है। वह किसी भाव या अभिव्यक्ति को ठीक-ठीक उसी रंग-रूप में व्यक्त करने की जगह कलाकार की अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम है। किसी वास्तविक दृश्य या आकार की अनुकृति का अंश कलाकृतियों में बहुत कम होगा। और ऐसा हो भी तो वह चीज कलाकार के अपने भावों की अभिव्यक्ति ही करती है। आकार और भावनाओं का यही मेल कला है, इसी मेल की क्वालिटी कला के असली मोल को बनाती है और इसकी शुरुआत बिम्ब या अवधारणाओं के बनने से ही होती है। जो चीजें नंगी आंखों से दिख रही हैं और मस्तिष्क उसे बिम्ब रूप दे पाने में सक्षम न हो, अवधारणाएँ कलाकार की भावनाओं के अनुरूप नया स्वरूप लेने में मुश्किल लगती हों तो वह कलाकृति बेजान हो जाएगी, बाह्य वास्तविकताओं और मानवीय भावों को स्पर्श नहीं कर पाएगी।

पर जब  अवधारणाएँ मानवीय कल्पना की ओखली में कूट-पीस कर, कल्पना के हथौड़े से ठुक-पीटकर ही सामने आती हैं तो हम उनके स्वरूप और प्रभाव में जादुई बदलाव का अनुभव करते हैं। मानवीय कल्पना की अवधारणात्मक प्रक्रिया की विविधता और बहुमुखी ऊर्जा न होती तो मैनरिस्ट विस्तार, भाववादी अतिरंजना और अरूपवाद, घनवादी विश्लेषणात्मक और बहुरूपी चित्रण (जो किसी वस्तु के सभी आयामों को सामने लाने की कोशिश करता है), वास्तविक और काल्पनिक जगत के मेल वाला अतियथार्थवाद सामने आया ही नहीं होता। तभी पाल क्ली द्वारा कागज पर किये गये रेखांकन देखकर हम उछल पड़ते हैं?

दरअसल कलाकार गति की अवधारणा को अपने अमूर्तन के जरिये कुछेक रेखाओं से वह स्वरूप दे देता है कि हर दर्शक के अन्दर गति वाली आंतरिक घंटी बज जाती है। प्रतीकों के माध्यम से जो बात लम्बी कालावधि से कही जा रही होती है वह परम्पराओं से भी जुड़ती है। जब कोई कलाकार किसी पारम्परिक प्रतीक का प्रयोग अपनी कला में करता है तो वह अपनी कलाकृति में उन भावनात्मक मुद्दों को भी समाहित करता है जो उन प्रतीकों से जुड़े हुए हैं। भारतीय कला में तो परम्परा के अंश और ज्यादा हैं और किसी न किसी रूप में बिना धार्मिक परम्पराओं में प्रयुक्त प्रतीकों वाली कलाकृतियाँ ढूंढ़ना मुश्किल है। बल्कि ऐसी किसी कला की कल्पना भी मुश्किल है जो बिम्बों और प्रतीकों को पूरी तरह छोड़कर चले। हाल के वर्षों में कुछ हलकों में यह चलन शुरू हुआ है कि अवधारणात्मक कला से बाहर निकला जाए। अवधारणात्मक कला के खिलाफ मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि यह तार्किकता और उसके माध्यम से एक जकड़बंदी/अनुशासन की ओर ले जाती है तथा फिर स्वाभाविक अभिव्यक्ति की आजादी बाधित होती है। एक हद तक यह बात सही हो सकती है।

यह सच है कि अवधारणाएँ समकालीन बौद्धिक विमर्श से प्रभावित रहती हैं, उनके प्रभाव में आकार लेती हैं और किसी भी पूर्व निर्धारित धारणा के साथ किया गया काम उस चीज को भी दिखाएगा ही। पर यह शायद कला को किसी भी विचार के दायरे से आजाद करने की कोशिश है। पर यह मुहिम कला को विचारशून्यता की तरफ ले जा सकती है, कला को सभी तरह की विषय-वस्तु से मुक्त करने और खालिस कला की तरफ ले जा सकती है। ऐसी कला गहनों, चादरों-गद्दों पर छपे चित्रों या कंप्यूटर से बननेवाली डिजाइनों जैसी सजावटी चीज में बदल देगी। सिर्फ चाक्षुष सुख, सिर्फ सजावटी रूप देकर रह जाएगी। हैरानी नहीं कि यह चीज पश्चिमी जगत में व्याप्त प्रभावी विचारधारा- उपभोक्तावाद- से निकली हो। इसके प्रभावी होने के बाद कला भी अपने सामाजिक और बौद्धिक जुड़ाव/चिंताओं की जगह धनवान व्यक्तियों और संस्थाओं के लिए सार्वजनिक जगहों और निजी भवनों की सजावट तथा शान दिखाने की चीज में बदलती जा रही है।

हर समाज कला के जरिये अपने को गौरवान्वित करना चाहता है और ऊपर जिस मुहिम की चर्चा की गयी है वह ऐसे उद्देश्य में इस्तेमाल हो सकती है। पर इस चीज को व्यापक मान्यता मिलना मुश्किल है। बहुत ही लम्बे और नियमित व्यावहारिक पुष्टि के बाद ही यह कला का मुख्य उद्देश्य हो सकता है।

अभी तक पूरे ज्ञात इतिहास में कला जीवन और मरण से जुड़े रहस्यों या बहुत बुनियादी और बड़ी सामाजिक चिंताओं, खगोलीय परिघटनाओं के प्रभाव से संचालित होती रही है। सबसे पुरानी अर्थात पूर्व-पाषाण युग की कला जादू और रहस्यों वाली थी। आदिमानव जिस परिवेश और स्थितियों में रहता था, उसे समझने और उसके आधार पर कुछ अवधारणाएँ बनाने की यह एक जरूरी कोशिश थी। इसके बाद के सभी धर्मोँ के आदर्श और प्रतिमान, जो कला की सबसे महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं, दरअसल उन आस्थावानों और पूजकों की अवधारणाओं को मूर्त रूप देने की कोशिशें ही हैं। पिछली कुछ शताब्दियों में शायद ही कुछ ऐसी सामाजिक या स्वरूपात्मक अवधारणाएँ हैं जिन्हें पहले की कला में कोई रूप देने की कोशिश नहीं हुई है। पर हमारी उन चिंताओं/जुड़ावों की प्रकृति में जरूर काफी बदलाव आ गया है जिनको हम कला के जरिए अभिव्यक्त करते हैं।

पहले लोग गांवों या छोटी बस्तियों में रहते थे और उनके बीच गहरा जुड़ाव होता था। उस समय के कलाकारों की चिंताएँ भी सामाजिक और सामूहिक थीं। धर्म की तरह कला भी समाज को जोड़ने का काम करती थी। कला के मूल्य भी समाज के मूल्य होते थे। और कला उन मूल्यों को रूपाकार व्यक्त करने का माध्यम थी। पर हमारे समय मेँ स्थितियाँ तेजी से बदली हैं। गरीब मुल्कों की भी काफी बड़ी आबादी शहरों में रहती है और सामुदायिक जीवन खत्म हो गया है। इसलिए कलाकार भी एक विखंडित दुनिया में ही रहता है।

कलाकार अब सामुदायिक अवधारणाओं के साथ काम करने की जगह निजी और व्यक्तिगत अवधारणाओं के साथ काम करते हैं। इसलिए कला और कलाकारों को लेकर समाज की चिंता/दिलचस्पी भी सीमित होती गयी है।  इससे अवधारणात्मक कला का तर्क मजबूत हो सकता है। अवधारणात्मक स्तर पर मेल से ही समाज और कलाकार के बीच मजबूत पुल बन सकता है। असल में एक मानव समुदाय बनाने की, उसके अंदर कलाकार और आम लोगों के बीच वास्तविक संवाद बनाने की यही चुनौती है।

(यह आलेख सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली के पहले खंड में संकलित है। रचनावली अरविंद मोहन के संपादन में राजकमल प्रकाशन से आयी है। इसके आठ खंडों की कुल कीमत पेपरबैक में 4000 रु. मात्र है।)

(सभी पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल )

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