(हिंदी के मूर्धन्य पत्रकारों में से एक, प्रभाष जोशी ‘जनसत्ता’ के संस्थापक-संपादक थे। जनसत्ता के संपादक के तौर पर पत्रकारिता में उनका जो बेमिसाल योगदान रहा उसे दुनिया जानती है। पर वे अपने बेबाक और निर्भीक लेखन के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने देश में सांप्रदायिक घृणा का सुनियोजित तीव्र उभार देखा तो वह खामोश नहीं रह सके। उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए इससे लोहा लिया। उनका लिखना बेअसर नहीं होता था। बढ़ती असहिष्णुता से सहमे लोगों को जहां हौसला मिलता था वहीं भाईचारे तथा राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न करने में जुटी ताकतों को उनका लेखन चुनौती की तरह मालूम पड़ता था। प्रभाष जी की एक बड़ी खासियत यह भी थी कि वह जड़ों से कटे हुए बुद्धिजीवी नहीं थे, बल्कि ठेठ देशज मेधा के धनी थे और सांप्रदायिकता से लड़ने का बल उन्हें अपनी परंपरा से ही मिलता था। आज के हालात में उन्हें फिर से पढ़ा जाना और भी जरूरी हो गया है। लिहाजा उनका लंबा लेख ‘हिंदू होने का धर्म’ कुछ किस्तों में दिया जा रहा है। ‘यह प्रभाष परंपरा न्यास’ द्वारा दिल्ली के ‘अनुज्ञा बुक्स’ से ‘हिंदू होने का मतलब’ नाम से प्रकाशित पुस्तिका से लिया गया है।)
हिंदू-विरोधी जयचन्द, मीरजाफर, मुल्ला और सेकुलरवादी मैं इसलिए हो गया कि जुलाई में अयोध्या में जिस परिस्थिति में कारसेवा हुई उसकी मैंने आलोचना की। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। सरकार संविधान के अनुसार तय की गयी लोकतांत्रिक व्यवस्था से चुनी गयी थी। उसने अयोध्या में मंदिर-निर्माण को अपना जनादेश कहा था। लेकिन जनादेश को वह संवैधानिक लोकतांत्रिक तरीके से पूरा करने के बजाय झूठ और धोखाधड़ी से पूरा करने में लगी थी। उसने बाबरी मस्जिद के ढांचे के सामने 2.77 एकड़ भूमि का अधिग्रहण पर्यटन के विकास और तार्थयात्रियों को सुविधाएं देने के नाम पर किया लेकिन भूमि दरअसल मंदिर बनाने के लिए ली गयी थी। उस पर कोई स्थायी निर्माण न करने, अंतिम फैसला होने तक उसे यथावत रखने और किसी को भी हस्तांतरित न करने का आदेश अदालत ने दिया था। फिर भी वहां विहिप और उसके बनाये ट्रस्ट ने कारसेवा शुरू कर दी। कारसेवा रोकी गयी तो सन्तों-महंतों ने खून की नदियां बहा देने की चेतावनी दी और संघ-परिवार के सदस्य अलग-अलग मुखौटों से अलग-अलग स्वर में बोल कर न्यायालय के आदेश और संविधान के उल्लंघन का औचित्य बताते रहे। सात दिन यह सब चलता रहा, तब मैंने पूछा– झूठ और धोखाधड़ी पर बनेगा मर्यादा के पुरुषोत्तम राम का मंदिर।
उस लेख में मैंने जो भी कहा था वह इलाहाबाद हाईकोर्ट की विशेष लखनऊ पीठ के तीनों न्यायमूर्तियों के सर्वसम्मत निर्णय से पुष्ट हो गया है। इस विशेष पीठ ने भूमि अधिग्रहण के आदेश को खोटी नीयत और धोखाधड़ी का आदेश करार देकर रद्द किया है। विशेष पीठ ने कहा है कि किसी भी पार्टी का चुनाव घोषणापत्र और उसे मिला जनादेश लोकतंत्र और संविधान से ऊपर नहीं होता। संविधान-सम्मत जो जनादेश नहीं है, वह लोकतांत्रिक भी नहीं है। भाजपा सरकार ने राममंदिर बनाने के मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच हिन्दुओं के हित में भेदभाव किया है और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 14, 15-25 और 26 का उल्लंघन किया है क्योंकि राज्य को मुकदमे के मामले में तटस्थ और निष्पक्ष रहना होता है। संघ-परिवार के लिए इस विशेष पीठ के निर्णय का कोई मतलब भले ही न हो और परिवार के सन्तों ने संविधान को हिंदू-विरोधी और गुलामी का दस्तावेज बताकर बदल देने का आह्वान किया हो, लेकिन देश अभी संविधान और इसकी बनायी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करता है। इसलिए विशेष पीठ के निर्णय का महत्त्व है।
झूठ और धोखाधड़ी करने की आलोचना मैंने कोई गलत नहीं की थी। मैंने अशोक सिंघल और विनय कटियार को हिंदू-समाज के भिंडरांवाले सम्प्रदाय के लोग कहा था। छह दिसम्बर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना भिंडरांवाले सम्प्रदाय का नहीं तो किसका काम था?
लेकिन न्यायालय और बाद में घटनाओं से अपना लिखा सही साबित हुआ भी हो तो यह कोई सन्तोष का विषय नहीं हो सकता। लोक आस्था में जन्मभूमि वही है इसलिए है-जैसी बात करनेवाले यह नहीं मानते कि आप अपनी आस्था के कारण उनके अपकर्म की आलोचना करते हैं। वे आपको आस्थावान नहीं, बिकाऊ माल मानते हैं क्योंकि आप उनके किसी कर्म की आलोचना करते हैं और उसमें उनके साथ नहीं हैं।
इन आस्थावान रामभक्तों को मालूम नहीं कि हिंदू धर्म और समाज-परम्परा में अपनी चेतना और सत्य पर टिके रहने का क्या मतलब है। किसी व्यक्ति को कुल के लिए, कुल को गांव के लिए, गांव को जनपद के लिए छोड़ा जा सकता है लेकिन आत्मा के लिए तो पृथ्वी को भी छोड़ देना चाहिए। आप काफी सोच-समझ कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जो हो रहा है, वह गलत है तो उसे गलत कहना चाहिए और ऐसा करने की कीमत चुकानी चाहिए। यही हिंदू-परम्परा है।
वे कहते हैं कि ऐसा करोगे तो हिंदू नहीं रहोगे और हिंदू धर्म और समाज को नुकसान पहुंचाओगे क्योंकि आलोचना से इस देश के मुसलमानों को और इसलिए पाकिस्तान को मदद मिलती है, इसलिए यह विभीषणी, जयचन्दी और मीर जाफरी काम है। वे हिंदू धर्म को एक साम्प्रदायिक संगठन में समेट देना चाहते हैं और खुद उसके प्रवक्ता और रक्षक हो जाना चाहते हैं। इसलिए संघ-परिवार के नेता हों या उनके समर्थक तथाकथित साधु-सन्त, सब कहते हैं कि यह हिन्दुओं को बरदाश्त नहीं होगा और जो हिन्दुओं को मान्य नहीं है, वह इस देश में नहीं चल सकता। इन लोगों का यह हिन्दुत्व भारतीय मुसलमानों के इस्लाम और सिखों के पंथ का हिंदू संस्करण है। सारे हिन्दुओं की तरफ से बोलने वाले साधुओं, सन्तों, महन्तों, स्वामियों और हिंदूनिष्ठ संगठनों और पार्टी के नेताओं को आदि शंकराचार्य का उदाहरण बताना जरूरी है क्योंकि उन्हें तो अहिन्दू ये नहीं कह सकते।
आदि शंकराचार्य तो और किसी विद्वान, यति या संत की तरह अपने अद्वैत का प्रचार करने नहीं निकले थे। वे बौद्ध और जैन मत के सामने वैदिक सनातन धर्म की पुनर्स्थापना करने निकले थे। केरल के कालड़ी गांव से बचपन में ही अकेले निकले। उनके साथ दो लाख कारसेवक नहीं थे। उन्हें बौद्ध स्तूपों और जैन मंदिरों को धराशायी करना था। उनके साथ उनका धर्म था, जिसे उनने अपने ज्ञान और तप से स्थापित किया।
शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की लेकिन यह नहीं कहा कि यह पीठ उस पीठ से ऊंची या बड़ी है। उनने चार शंकराचार्य बैठाये लेकिन किसी एक के अधीन तीन को नहीं किया। किसी भी शंकराचार्य को अधिकार नहीं दिया कि वे अपने धाम के लोगों के लिए धर्मादेश निकाल सकें। यह भी व्यवस्था नहीं की कि चारों शंकराचार्य मिलकर धर्मादेश दें जो सभी हिन्दुओं के लिए बाध्य हों, क्योंकि शंकराचार्य चार वेदों, एक सौ आठ उपनिषदों, अठारह महापुराणों, रामायण और महाभारत जैसे इतिहासों और अनेक धर्मशास्त्रों वाले धर्म के सेवक थे। एक ईश्वर तो उनने कहा, अद्वैत की ही स्थापना की, लेकिन एक सर्वोच्च धर्मग्रन्थ, एक सर्वोच्च और सर्वसत्तासंपन्न धर्माचार्य और उपासना की एक ही सर्वमान्य पद्धति की स्थापना नहीं की।
अपने धर्म और समाज की परम्परा में ही शंकराचार्य ने वैदिक सनातन धर्म को देखा। संघ परिवार के सारे धर्माचार्य आदि शंकराचार्य से तो बड़े नहीं हैं। उन्हें किसने अधिकृत किया कि वे हिन्दुओं की तरफ से बोलें और ऐसे काम करने को खड़े हो जाएं जो आदि शंकराचार्य ने भी नहीं किये, न जिन्हें करने का अधिकार किसी शंकराचार्य को दिया?अशोक सिंघल, विनय कटियार, स्वामी चिन्मयानन्द, मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी को वह एकाधिकार नहीं मिल सकता जो इस धर्म और समाज ने किसी को नहीं दिया।