(किशन जी चिंतन और कर्म, दोनों स्तरों पर राजनीति में सदाचार, मानवीय मूल्यबोध और आम जन के हित को केंद्र में लाने के लिए सक्रिय रहे। वह मानते थे, जो कि सिर्फ सच का स्वीकार है, कि राजनीति अपरिहार्य है। इसलिए अगर हम वर्तमान राजनीति से त्रस्त हैं तो इससे छुटकारा सिर्फ निंदा करके या राजनीति से दूर जाकर, उससे आँख मूँद कर नहीं मिलेगा, बल्कि हमें इस राजनीति का विकल्प खोजना होगा, गढ़ना होगा। जाहिर है वैकल्पिक राजनीति का दायित्व उठाना होगा, ऐसा दायित्व उठानेवालों की एक समर्पित जमात खड़ी करनी होगी। लेकिन यह पुरुषार्थ तभी व्यावहारिक और टिकाऊ हो पाएगा जब वैकल्पिक राजनीति के वाहकों के जीवन-निर्वाह के बारे में भी समाज सोचे, इस बारे में कोई व्यवस्था बने। दशकों के अपने अनुभव के बाद किशन जी जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे उसे उन्होंने एक लेख में एक प्रस्ताव की तरह पेश किया था। इस पर विचार करना आज और भी जरूरी हो गया है। पेश है उनकी पुण्यतिथि पर उनका वह लेख।)
सफल लोकतंत्र’ के देशों में राजनैतिक दलों का पूंजीपतियों पर आश्रित होना गलत नहीं समझा जाता है। भारत में यह संबंध गलत माना जाता है। सारे गरीब देशों में यह गलत माना जाएगा। इसलिए इन देशों में लोकतंत्र को सफल और विश्वसनीय बनाने के लिए राजनैतिक दलों का आर्थिक स्रोत भिन्न होना चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र में हजारों कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है। भारत में सिर्फ सांसदों व विधायकों की संख्या लगभग पांच हजार है। इन पदों के लिए विभिन्न दलों के उम्मीदवार होते हैं। नगरपालिकाएं और जिला परिषदें भी हैं। अतः देश में एक लाख राजनैतिक कार्यकर्ता होंगे। अधिक भी हो सकते हैं। इनमें से एक बड़ी संख्या ऐसे कार्यकर्ताओं की होगी जिनको अपने जीवन का अधिकांश समय और शक्ति सार्वजनिक काम के लिए ही अर्पित करनी पड़ती है। तो उनके निजी और राजनैतिक खर्च के लिए पैसा कहाँ से आएगा? राजनीति शास्त्र में इसकी कोई चर्चा नहीं होती है। चूंकि ब्रिटेन या अमरीका के राजनीति शास्त्र में यह एक गंभीर चर्चा का विषय नहीं है इसलिए भारत के राजनीति शास्त्र में भी इसपर कोई अध्याय नहीं होता है। इसी से हम अनुमान कर सकते हैं कि भारतीय विश्वविद्यालयों का भारत के लोकतंत्र के विकास में कोई योगदान नहीं है।
राजनैतिक दलों का आर्थिक आधार एक गंभीर विषय है, भ्रष्टाचार के सवाल से यह जुड़ा है। इसका सही समाधान ढूंढ़े बिना दुनिया में लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं है।
1947 के बाद जिन आदर्शवादी नौजवानों ने क्रांतिकारी उद्देश्यों से प्रेरित होकर राजनीति में प्रवेश किया था उनके जीवन इतिहासों का विश्लेषण करने पर मालूम होगा कि उनमें से अधिकांश बाद के दिनों में, खासकर परिवार का दायित्व ग्रहण करने के बाद या तो निष्क्रिय हो गये या अपने आदर्शों के साथ समझौता करने लगे और खुद कहने लगे कि राजनीति में यह सब करना पड़ता है। आरम्भ में छोटे-मोटे खर्च के लिए छोटे ठेकेदार, घूसखोर अधिकारी आदि से चंदा लेते हैं और बाद में जब प्रतिष्ठा मिल जाती है, चुनाव जीत लेते हैं, तब बड़े धनवानों से नियमित धन लेने लगते हैं।
धनी आदमियों से कभी-कभी मदद लेने में समझौता नहीं करना पड़ता है, लेकिन जैसे-जैसे खर्च बढ़ता जाता है और नियमित पैसा लेना पड़ता है वैसे-वैसे निर्भरता बढ़ती जाती है और भ्रष्टाचार शुरू होता है। जो लोग धनवानों से पैसा नहीं लेना चाहते हैं वे पूर्ण या आंशिक रूप से राजनीति से हट जाते हैं। अगर उनका कोई जायज आर्थिक स्रोत होता तो वे राजनीति में पूरी तरह सक्रिय होकर भ्रष्ट राजनेताओं से टक्कर लेते। अगर ईमानदार राजनेता लगातार सक्रिय रहेंगे तो एक अरसे के बाद, विलम्ब से ही सही, जनसाधारण उनका समर्थन करेगा और चुनाव में भी जिताएगा। आज की हालत में ईमानदार कार्यकर्ता मैदान में ही नहीं रह पाता है, अपना संगठन भी नहीं बना पाता है। जो लोग भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं और राष्ट्र की बागडोर ईमानदार देशभक्तों के हाथ में देना चाहते हैं उनको इसके बारे में सोचना होगा।
सारे राजनेता सच्चे हों, यह संभव नहीं है। अगर दो-तिहाई राजनेता सच्चे होंगे तो देश का सौभाग्य माना जाएगा। अगर आधे राजनेता ईमानदार होंगे तब भी देश का संचालन ठीक ढंग से हो जाएगा। सर्वोच्च शासक सच्चे हों इसकी गारंटी होनी चाहिए, नहीं तो राजतंत्र क्या बुरा था? इतिहास में कुछ ऐसे राजा थे जिनकी बराबरी कोई आधुनिक प्रधानमंत्री नहीं कर सकता।
प्राचीन काल में, जब राज्य व्यवस्था और राजनीति जटिल होने लगी, राजनेताओं को प्रशिक्षित व मर्यादित करने के उपायों पर सोचा गया था। यूनान (ग्रीस) के प्लेटो और चीन के कनफ्यूशियस ने समाज में एक अभिभावक वर्ग की कल्पना की थी। इसको हम राजनैतिक सज्जन वर्ग भी कह सकते हैं। इस वर्ग के लोग प्रशिक्षित होंगे, अनुशासित जीवन बिताएंगे और राज्य की समस्याओं का समाधान ढूढ़ना अपना दायित्व समझेंगे। कनफ्यूशियस का कहना था कि मृत्यु तक ऐसे लोग सामाजिक दायित्व का बोझ अपने ऊपर लेंगे। वे राजनीति को मर्यादित करेंगे और राजनीति में शरीक भी हो सकते हैं। कनफ्यूशियस का बौद्धिक अनुयायी वर्ग बना था जो राजनीति में दखल देता था। भारत की ब्राह्मण व्यवस्था को हम इस ढांचे के अनुरूप देख सकते हैं- हालांकि ब्राह्मणों ने एक जाति प्रथा बना ली और समाज के बहुसंख्यक लोगों को हीन कोटि का मनुष्य समझने लगे। इसके कारण भारतीय समाज का सारा विकास अवरुद्ध हो गया।
लेकिन ‘ब्राह्मण’ की अवधारणा में कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो भविष्य में समाज निर्माण के लिए उपयोगी हो सकते हैं। परंपरा के अनुसार ब्राह्मण को गरीब रहना पड़ता था, बड़ी संपत्ति का वह मालिक नहीं बन सकता था। राजा और प्रजा दोनों के लिए वह मार्गदर्शक था। संपत्ति का संचय करना जिसके लिए मना था। उससे यह अपेक्षा रहती थी कि निःस्वार्थ होकर वह परामर्श देगा। मार्गदर्शक होने के लिए उसका प्रशिक्षण होता था और धन के बिना भी उसको प्रतिष्ठा मिलती थी। ईसाई धर्म के पुरोहितों और धर्मप्रचारकों को भी प्रशिक्षित होना पड़ता है और अनुशासित जीवन बिताना पड़ता है। उनसे अपेक्षा रहती है कि मृत्युपर्यन्त वे सादगी से रहें और धन संचय न करें।
हमारे समाज को चाहिए कि राजनीति में भी एक ऐसा समूह पैदा करे जो बुद्धिमान हो लेकिन धनसंचय न करने का व्रत ले। जो संतान पैदा न करे और अपनी कार्यकुशलता के लिए सिर्फ न्यूनतम सुविधाओं की मांग करे। जो मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध हो और जिसका जीवन पारदर्शी हो। सादगी और स्वार्थहीनता की कड़ी शर्त को मानने के लिए जो तैयार है उसकी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का दायित्व समाज का होना ही चाहिए। समाज में ऐसी संस्थाएं स्थापित हों जिनका काम हो अच्छे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करना और मृत्युपर्यंत उनका खर्च वहन करना। इन संस्थाओं का अपना कोष होगा ताकि वे सरकारी न होकर समाज की संस्थाएं होंगी। लेकिन प्रारंभ में सरकारी बजट से इस काम के लिए अनुदान मिलेगा। यह आवंटन संविधान के मुताबिक होगा, सरकार की मर्जी से नहीं। न्यायपालिका का खर्च भी सरकारी बजट से आता है, उससे न्यायपालिका की आजादी प्रभावित नहीं होती है।
यह प्रस्ताव विचित्र नहीं लगना चाहिए। कई धार्मिक सम्प्रदायों और वामपंथी राजनैतिक दलों ने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का समूह बनाने की कोशिश की है। जहां भी इसका प्रयोग हुआ है, आंशिक सफलता मिली है। यह सिर्फ राजनैतिक दलों का काम नहीं है, समाज का भी काम है कि अच्छे राजनेताओं को पैदा करे। यह होने लगेगा तब उसकी एक परंपरा बन जाएगी, जो स्थायी होगी। नैतिक मूल्यों पर चलने वाला राजनैतिक कार्यकर्ता अर्थाभाव में राजनीति से हट जाता है, या भ्रष्ट हो जाता है। उसके संरक्षण के लिए एक सामाजिक कोष जरूरी है, प्रशिक्षण और निगरानी की एक पद्धति भी जरूरी है।