गांधी को याद करने की सार्थकता तभी है जब हम हिंसा के विरुद्ध खड़े हों

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साभार - शटरस्टाक।


— विजय कुमार —

देश आजादी के 75वें साल का जश्न मना रहा है। हमारी आजादी 75 साल की हो गयी है। आनेवाली 30 जनवरी को उनके जाने को भी 75 साल पूरा हो जाएगा। बीते साल में उनके जन्म का 150 साल पूरा हुआ था। उनके जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व अहिंसा दिवस माना है।

देश की आजादी के 75वें वर्ष में उनके जन्मदिन को याद करना निश्चय ही अतिशय प्रेरक और सामयिक है। देश ने उनके नेतृत्व में एक सपना देखा था। देश के मस्तिष्क और हृदय पर गहरा असर पड़ा था। मन और मिजाज के स्तर पर विलक्षण प्रभाव न केवल भारतीय जन-मानस पर पड़ा, बल्कि दुनिया के स्तर पर भी एक नयी रोशनी ने उस समय के अँधेरे को चीरने का भरसक प्रयास किया।

गांधी को समझने की कोशिश की तो सच्चा हिंदू होने का अर्थ समझ में आया कि सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे भवन्तु निरामयाः। यह भी कि सत्य ही ईश्वर है। किसका सत्य? अपने होने का सत्य, समय का सत्य, प्रकृति का सत्य, विज्ञान का सत्य, ईश्वर का सत्य, खुदा का सत्य, ईसा का, मूसा का, मुहम्मद का, राम का, कृष्ण का, शिव का, बुद्ध का, महावीर का और अनेकानेक आदिगुरुओं का सत्य कि- जाना कहाँ है? जाना जहाँ है वहाँ जाने के रास्ते अनेक हैं। अर्थात उपासना की अनेकानेक पद्धतियां होंगी पर जाना वहीं है जो परम सत्य है? बेशक विद्वान लोग उसे अलग-अलग नामों से जानते और मानते हैं। यही विश्वास और अभ्यास गांधी की मजबूती थी और तब वह कह पाये कि– मैं सच्चा हिन्दू हूं, क्योंकि मैं सत्यवादी हूँ। मेरा सत्य है कि दुनिया के सभी धर्मों का मूल संदेश एक है। यही भारत का दुनिया को संदेश है।

अचानक गांधी आदरणीय हो जाते हैं। पर गांधी अनुकरणीय क्यों नहीं हो पा रहे हैं? यही यक्ष प्रश्न है। यक्ष प्रश्नों से न टकराना ही कायरता माना गया है। जो कायर होते हैं, वही कमजोर माने जाते हैं। और कमजोर अकसर नाना प्रकार की मजबूरियों से बँधे होते हैं। गांधी अपनी मजबूरियों से मुक्त थे।

जो लोग स्वामी विवेकानन्द को जानते-समझते हैं, उन्हें जरूर पता होना चाहिए कि वे एक ऐसे हिन्दुत्व की तलाश कर रहे थे, जिसकी देह इस्लामी हो और मन वेदान्ती हो। उपर्युक्त सपनों का क्या हुआ? शायद हम मजबूत नहीं हैं। बहादुर नहीं हैं। स्वतंत्र नहीं हैं। तब हम अपने पुरखों में उन्हीं चीजों की तलाश करने लगते हैं जो हम स्वयं होते हैं। शायद इसी कारण हम गांधी को मानते समय कह उठते हैं कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। जीवन और जगत के इसी पेच को खोलने का उपाय हो सकता है या होना चाहिए गांधी को जन्मदिन पर याद करना, जो सतत सद्प्रयासों से ही संभव है। सद्प्रयास ही गांधी का सत्प्रयास है। शायद इसी से वे कहते हैं कि– मेरा जीवन ही मेरा संदेश है

गांधी को जानते, समझते और मानते समय हम अकसर गलतियाँ कर बैठते हैं। शास्त्रीय आधारों पर गांधी को कसते समय विचार और आचार यानी जानकारी और अनुभव के तादात्म्य और लय को दरकिनार कर देते हैं। इस सन्दर्भ में उनके सत्य के साथ मेरे प्रयोग, साध्य-साधन संबंध और सत्याग्रह की प्रयोगधर्मिता को मानक मानकर उनकी रचनाधर्मिता का मूल्यांकन करें तो एक वैकल्पिक जीवन दर्शन का विराट क्षितिज दिखाई देता है।

एक तरफ असंभव संभावना दिखती है तो दूसरी तरफ सरल, सहज, सुगम जीवन दर्शन। जीवन के सत्य की तलाश में गांधी सत्य की अविश्रांत खोज करते दीखते हैं। वे कहते हैं कि सत्य अनंत और विश्व अपार है। इसलिए इस खोज का कभी अंत नहीं आता है। अपने आसपास प्रवर्तित असत्य, अन्याय या अधर्म के प्रति उदासीन भावना रखनेवाला व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। सत्य के शोध को तीव्र पुरुषार्थ करना होता है और जब तक वह प्रतिकार करने में सफल नहीं होता, तब तक वह अपनी सत्य साधना को अपूर्ण ही मानता है। अतः असत्य, अन्याय और अधर्म का प्रतिकार भी सत्याग्रह का आवश्यक अंग है। गांधी की यही जिजीविषा उन्हें पशुबल से लड़ने के लिए आत्मबल देती है।

इक्कीसवीं सदी में जब हम जब वैश्विक परिदृश्य का आकलन करें तो समस्याओं के समाधान की दिशा में गांधी को एक मानक मान सकते हैं। सहमति या असहमति अपनी जगह है, हमारे आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक और शैक्षिक जीवन के विभिन्न आयामों के स्तर पर जो परेशानियाँ हैं उनकी पहचान और समाधान का गांधी का रास्ता कुछ बुनियादी मूल्यों और आचरणों पर आधारित है। जिसमें सत्य और अहिंसा का जीवन दर्शन ही उनकी प्रतिज्ञा, संकल्प, पीड़ा, प्रयास और समाधान है। सत्य उनके लिए परमेश्वर है। यह उनके सत्य का उच्च अर्थ है। इस अपर सत्य को जानने का साधन भी सत्य ही है। अर्थात सत्याग्रह, सत्य विचार, सत्यवाणी और सत्यकर्म की अर्थात अपर सत्य के पालन की पूर्ण सिद्धि ही परम सत्य का साक्षात्कार है। साधक के लिए दोनों में कोई भेद नहीं है।

उनके लिए अहिंसा केवल प्राण न लेने से पूरी नहीं होती है। वह स्थूल नियम मात्र नहीं है। वह मन की वृत्ति है। जिसमें कहीं भी द्वेष, गंध, पशुबल की गंध न हो वह अहिंसा है। अहिंसा सत्य के समान ही व्यापक है। अहिंसा की सिद्धि के बगैर सत्य की सिद्धि असंभव है। पूर्ण सत्य और पूर्ण अहिंसा में भेद नहीं है। फिर भी समझने के लिए सत्य को साध्य और अहिंसा को साधन माना गया है। अहिंसा प्रेम भी है। करुणा, दया भी है। सनातन सत्य के दो पहलू सत्य और अहिंसा हैं।

व्यावहारिक जगत में आज जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसके लिए कुछ लोग भारत में गांधी को दोष देते हुए दीखते हैं। उनसे एक अदद प्रार्थना और सवाल है कि जब देश और दुनिया गांधी के रास्ते पर चले ही नहीं तो गांधी दोषी कैसे हो गये?

इक्कीसवीं सदी का सच तो यह है कि हमने प्रकृति के साथ युद्ध, पशुबल का उत्तर पशुबल, दूसरे के हित में अपने हित की तलाश के बजाय खाओ, पीओ, मौज करो को ही जीवन दर्शन के रूप में स्वीकार किया तो गांधी कहां दोषी होते हैं। आज का सच हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा। हमारा सच है कि धरती का ताप बढ़ रहा है। हम प्राकृतिक असंतुलन, प्रदूषण सहित जटिलतम बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। संतति नियमन के प्राकृतिक उपायों और अभ्यासों से इनकार करते हुए जनसंख्या का संताप झेल रहे हैं। विकास की विनाशकारी खुमारी का परिणाम है कि पूँजी का पाप सहज स्वीकार्य है। इसी प्रकार घरेलू हिंसा से लेकर आतंकी हिंसा का अभिशाप मानवीय सभ्यता को लग चुका है। व्यक्ति नितांत एकाकी और आत्म-केंद्रित हो रहा है। सियासत से लेकर विरासत तक की आत्ममुग्ध उत्तेजना का तूफान उठाने की जद्दोजहद हो तब गांधी यह कह सकते हैं कि हम अपने घरों के किवाड़, खिड़कियाँ खुली रखें ताकि ताजा हवा आ सके, परंतु इस बात का खयाल रखें कि आँधी और तूफान हमारे घरों को उड़ा न ले जाएं। वे कहते हैं कि प्रकृति हममें से प्रत्येक की आवश्यकता तो पूरी कर सकती है परंतु लोभ-लालच किसी का नहीं। तो वक्त खुद को कसौटी पर कसने का है। गांधी को कोसने का नहीं है। वे हमें पागलपन से रोकते हैं, टोकते हैं तो हम उन्हें कथित तकनीकी की धौंस दिखाते हैं।

क्या गांधी मशीन-विरोधी थे? वे तो कहते हैं कि दुनिया का कोई पागल व्यक्ति ही मशीन विरोधी हो सकता है, मैं तो केवल मशीन के पागलपन का विरोधी हूँ। मुझे ऐसी कोई मशीन पसंद नहीं है जो शरीर-रूपी उन्नत मशीन को सोचने-समझने और कुछ करने की प्रक्रिया से बाहर कर दे।

सवाल मशीन के विरोध या समर्थन का नहीं है। असली सवाल हदों को तय करने का है। मनुष्य और मनुष्य के बीच, स्त्री और पुरुष के बीच, जाति और जाति के बीच, संप्रदाय और संप्रदाय के बीच, प्रांत और प्रांत के बीच, राष्ट्र और राष्ट्र के बीच सहित नाना प्रकार के संबंधों की हदें हम तोड़ रहे हैं और तोड़ चुके हैं। तब गांधी विकास की होड़ में कहाँ टिकते हैं?

साभार – यू टूब।
बहुत सारे लोग गांधी को आधुनिकता विरोधी कहते अघाते नहीं हैं। सच तो यह है कि गांधी आधुनिकता की अंधहोड़ से निकलकर आगे की सुध ले रहे हैं। कुछ लोग उन्हें परंपरावादी भी साबित करने पर तुले हैं। जबकि गांधी की सांस्कृतिक समझ में परंपरा की अच्छाई और आधुनिकता की अच्छाई, दोनों है। हां, वे परंपरा और आधुनिकता, दोनों के अंधविश्वास से मुक्त परस्परावलंबी और विविधतापूर्ण नैसर्गिक जीवन की कामना करते हैं।

यही उनका सामाजिक जीवन दर्शन है जिसमें वाद, प्रतिवाद, संवाद, सहयोग और समन्वय की पंचनिष्ठा शामिल है। इसी कारण वे सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के निज मुक्ति से आगे सर्वमुक्ति की तरफ ले जाते हुए दीखते हैं। ऐसे ही जीवन दर्शन में से गांधी के लिए संपत्ति की मालिकी का विकल्प ट्रस्टीशिप होता है। मनुष्य केंद्रित विकास आता है। कम से कम शासन को स्वीकार करते हुए गांधी स्वराज्य की बात करते हैं। जनवरी 1921 में उन्होंने यंग इंडिया में लिखा- हिंदुस्तान अगर प्रेम सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे तो स्वराज स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा। लेकिन मुझे दुख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनौती गांधी विचार को नहीं है। बल्कि गांधी ने ही हम सब के सामने एक सवाल खड़ा कर दिया है- जाना कहां है?

अगर जीवन का उद्देश्य भोग-विलास, खाओ-पीओ-मौज करो है। लूटो-काटो-मारो यानी पशुबल है तो क्षमा कीजिएगा- गांधी हमारे काम की चीज नहीं हैं। 2 अक्टूबर के बहाने गांधी को याद करते हुए हमारी, आपकी और हम सब की अग्रगामी भूमिका यही है कि हिंसा के विरुद्ध हम खड़े होने की हिम्मत करें। हिंसा व्यक्ति की हो या समाज की, राज्य की हो या साम्राज्य की, सांप्रदायिक हो या आतंकी। शायद इसी अभ्यास से सर्वोदय का नया सूरज निकलेगा। गांधी की वैकल्पिक विचार परंपरा में स्वदेशी, स्वावलंबन, आम गणराज्य का तंत्र-मंत्र और यंत्र उपलब्ध है।

अंततः एक निवेदन करना आवश्यक लगता है कि गांधीजनों ने अपनी अहिंसक समाज रचना की दीर्घकालिक नीति और रणनीति के बजाय तात्कालिकता पर ज्यादा ध्यान दे दिया है। वह आवश्यक भी है। इसके लिए पीपुल्स फ्रंट, पार्लियामेंटरी फ्रंट और पुनर्निर्माण के फ्रंट को खड़ा करना चाहिए। यह तभी संभव होगा जब हम अपनी-अपनी भूमिका और क्षमता के प्रति ईमानदार होंगे। तब इतना ही कह सकते हैं कि वक्त आत्म-प्रवंचना का नहीं है, आत्म-मूल्यांकन का है।

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