— वी शेषागिरि —
10 से 12 जनवरी 2025 को शांतिनिकेतन बोलपुर में आमार कुटीर परिसर में महिला सहचिन्तन का आयोजन हुआ। यह सहचिन्तन लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान के पुणे राष्ट्रीय सम्मेलन में तय किया गया था। इसके लिए एक तैयारी समिति बनी थी। मनीषा बनर्जी ने इसका आतिथ्य संभाला। और किरण ने इसमें आने के लिए आमंत्रण और सम्पर्क का मोर्चा संभाला था। इस आयोजन में पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर प्रदेश से आई महिला साथियों की भागीदारी हुई।
सहभागियों के नाम इस प्रकार हैं: 1.वासंती दिघे 2.मीना बाग 3.जीजा राठौर 4.भारती पाथरकर 5.गुड्डी एस एल ( सभी महाराष्ट्र) 6.किरण 7.कुमुद 8.शेषा गिरी 8.रोजमधु तिर्की 9.सलोमी कच्छप 10.नंदिता 11.एलिना होरो 12.कुमारी लीना 13.प्रियशीला बेसरा 14.मीना मुर्मू 15.तारामणि साहू 16.अंशु गाड़ी 17.निधि अरविन्द 18.राजश्री 19.संध्या रानी महतो 20.रूम्पा कुमारी 21.झुमुर मानिंद 22.गुड़िया देवी 23.बबीता देवी 24.यासमीन खातून 25.कबूतरी देवी 26.लीलावती देवी 27.जमुनवा देवी (सभी झारखंड) 28.मणिमाला (दिल्ली ) 29.जागृति राही 30.संध्या सिंह 31.अर्चना पांडेय (उत्तर प्रदेश) 32.पूनम शरण 33.पूनम (बिहार) 33.मनीषा बनर्जी 34.जया मित्र 35.मेघमाला 36.मेघना बनर्जी 37.राजरानी खोसला 38.सुभद्रा मुर्मु 38.भाविनी बास्की 39.पीउ सेनगुप्ता 40. रूनी खातुन 41. सवा टुडु ।
इन महिला सहभागियों के साथ गोपाल मार्डी और लेस्ली फोस्टर स्थानीय सहयोगी के रूप में तीनों दिन रहे। मंथन, अरविन्द अंजुम और कुमार दिलीप आमंत्रित पर्यवेक्षक के रूप में हाजिर रहे। शिविर के आयोजन के स्वरूप में यह तय था कि लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान की राष्ट्रीय कोर कमिटी के सदस्य और महिला सहभागी के पुरूष परिजन सहचिन्तन में आ सकते हैं, किन्तु वे मौन पर्यवेक्षक की भूमिका में होंगे, सत्र संचालक के द्वारा अवसर दिए जाने पर ही बोलेंगे।
10 जनवरी को 10 बजे से शुरू हुए पहले सत्र में इस सहचिन्तन आयोजन की पृष्ठभूमि बतायी गयी, लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान की संक्षिप्त जानकारी दी गयी। उसके बाद उपस्थित सहभागियों ने अपना अपना परिचय दिया। भोजन के बाद विषय विमर्श का आरंभ हुआ। इस पहले सत्र का विषय था : राजनीति और महिलाएं। पहला वक्तव्य वासंती दिघे ने दिया। और उसके बाद अन्य सहभागियों ने अपने अपने विचार रखे।
इस सत्र के बहस में उभर कर आयीं मुख्य बातें इस प्रकार हैं:
महिलाओं के लिए राजनीति अनजान, अनछुआ क्षेत्र नहीं है। इतिहास के सब कालों में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को पाते हैं । जीजाबाई, रानी लक्ष्मीबाई, रजिया सुल्तान और अहिल्याबाई होलकर जैसी महिलाओं ने राजनीति में अपनी छाप छोड़ी है।..भारत की आजादी की लड़ाई में बहुत सारी महिलाओं ने महत्मा गांधी का साथ दिया। आजादी के बाद संविधान बनाने में संविधान सभा में भी महिलाएं मुखर थीं। ..
ग्राम पंचायतों में महिलाओं को 50% आरक्षण दिया गया है। महिलाएं चुनकर ग्रामपंचायतों में आ रही हैं। फिर भी वे अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती हैं क्योंकि मुखिया या सरपंच महिला के पति ही उनके अधिकारों का उपयोग करते हैं।..महाराष्ट्र के पंचायत भवन में महिलाएं चप्पल पहन कर नहीं जा सकती हैं और कुर्सी पर नहीं बैठ सकती हैं। महिलाएं झंडोत्तोलन भी नहीं करती हैं।..महिलाएं अपने पति या परिवार के मुखिया के कहे अनुसार अपने वोट का प्रयोग करती रही हैं।.. राजनीति में जातिव्यवस्था गहरे जड़ जमाये हुए है। लोग जाति हिसाब से वोट देते हैं।.. सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय रही महिलाएं भी कुछ दिनों बाद परिवार तक सीमित हो जाती हैं। शिक्षित होकर भी राजनीति का अनुभव नहीं होने के कारण बहुत सारी महिलाएं राजनीति में नहीं आ पाती हैं।
लगभग सारे सहभागियों का कहना था कि राजनीति में महिलाओं को विशेष अवसर मिलना चाहिए। विधायिका में; विधानसभा, विधान परिषद, लोकसभा और राज्यसभा में आरक्षण आवश्यक है, ताकि वहां उनका 50% प्रतिनिधित्व हासिल हो सके। नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा पारित महिला आरक्षण विधेयक को महिलाओं की भावना के साथ मजाक बताया गया। सभी पार्टियों के महिला सहभाग विरोधी चरित्र का जिक्र इस हवाले के साथ आया कि किसी दल ने कभी भी बड़ी संख्या में महिलाओं को उम्मीदवारी नहीं दी, एक तिहाई या आधी संख्या में महिला उम्मीदवार खड़ा करना तो दूर की बात है। वक्ताओं ने अपनी यह स्पष्ट समझ भी जाहिर की कि भाजपा सबसे ज्यादा महिला विरोधी राजनीतिक शक्ति है।
साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा की राजनीति सबसे ज्यादा स्त्रियों पर ही कहर ढ़ाती है। महिलाओं के नाम विशेष कार्यक्रम चलाकर या घोषणायें कर महिला वोटरों को आकर्षित करने की हालिया घटनाओं पर दो तरह की राय जाहिर हुई। एक राय थी कि यह नकारात्मक है क्योंकि महिलायें लोभ में फंसकर अपने वोट का सचेत इस्तेमाल नहीं करतीं। दूसरी राय थी कि यह महिलाओं की स्वतंत्र मतदाता शक्ति का परिचायक है। महिलाओं की आर्थिक आकांक्षाओं और जरूरतों को सम्बोधित करने की दिशा सकारात्मक है। इस उभरती स्वतंत्र महिला मतदाता शक्ति को इस माहौल में आर्थिक सशक्तिकरण के बुनियादी और दीर्घकालिक मुद्दों के प्रति जागरूक किया जा सकता है। महिला मतदाता शक्ति महिला मुद्दों और महिला उम्मीदवारी के प्रति जितना मुखर और सशक्त हस्तक्षेप करेगी, उतना जल्द महिला आरक्षण साकार होगा।
सहचिंतन के पहले दिन की शाम वैसे तो खुलकर निजी अनुभवों को कहने-सुनने के लिए तय थी। पर वह संभव नहीं हो सका । फिर भी एक बड़ा जत्था सभागार में जमा रहा और अपनी संगीती प्रतिभाओं को खोलता रहा। यह वक्त आपस में एक नये परिचय का बन गया। जिन्हें फिल्मी गीतें गाते हुए बहुतों ने कभी देखा सुना न था, वैसी सुरीली आवाजों ने औरों को अचरज और खुशी से बांध लिया।
दूसरे दिन 11 जनवरी,2025 का पहला सत्र अर्थतंत्र और महिलाएं पर चला। इस सत्र की प्रथम वक्ता बंगाल की नामी लेखिका जया मित्र थीं।
इस सत्र में आयीं मुख्य बातें इस प्रकार हैं –
भारत का अर्थतंत्र पुरुष प्रधान है।..अर्थतंत्र को चलायमान रखने वाला तत्व उत्पादन है और भारत में सत्तर प्रतिशत उत्पादन गांव में होता है।..महिलाएं कृषि में पुरुषों के बराबर ही काम करती हैं।.. धान की रोपनी, कटाई, धान को झाड़ने और धान से चावल बनाने का काम मुख्य रूप से महिलाएं ही करती हैं।..ग्रामीण उपयोग के वस्त्र तथा अन्य वस्तुएं गांवों के गृह उद्योगों में ही बनाये जाते हैं, जिनमें महिलाएं ही काम करती हैं।
गृह उद्योग श्रम प्रधान होते हैं। उनमें उपयोग होने वाला कच्चा माल अधिकतर प्रकृति से ही प्राप्त होता है। गृह उद्योगों से महिलाओं की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है। गृह उद्योगों में उत्पादित वस्तुओं के बाजार मिलने की समस्या होती है। होना तो यही चाहिए कि सहकारी समीतियों के द्वारा इन उत्पादों के विक्रय की व्यवस्था हो। जैसे कि शांतिनिकेतन में तैयार वस्तुओं को वहां के दो हाटों में बेचने की व्यवस्था बहुत पहले बनी थी।.. बाजार के नेटवर्क के अभाव में गृह उद्योग में बनी वस्तुओं को शहरों से आये दलाल सस्ते दामों में खरीद कर शहर ले जाते हैं और वहां वे उनको कई गुने दामों में बेचते हैं। इस तरह गृह उद्योगों का लाभ उद्यमियों को न मिलकर दलालों को मिलता है।..महिला पूरे परिवार को लेकर चलती है। उसका पैसा परिवार में ही खर्च होता है। पुरुष भी गृह उद्योगों में शामिल होकर उत्पादन करे और परिवार को आर्थिक रूप से समृद्ध करे, यह होना चाहिए।..अब परिस्थितियां उलट हो गई हैं। हाथों से काम करना शर्म की बात हो गई है। गृह उद्योगों में भी मशीनों का प्रयोग होने लगा है। महात्मा गांधी का संदेश ‘हाथ से काम, साथ का काम प्रेम को बढ़ाता है ‘ – भुला दिया गया है।..आदिवासी जीवन पद्धति स्वरोजगार का आदर्श है। वे लोग प्रकृति से प्राप्त साधनों से अपनी जरूरत की सारी वस्तुओं को अपने हाथों से बना लेते हैं।..शहरों की नकल बढ़ गई है। गृह उद्योगों के उत्पादों का भी विज्ञापन होने लगा है।
अधिक लाम कमाने की लालसा बढ़ गयी है। बुनियादी जरूरत की फसलों से ज्यादा व्यवसायिक फसलों का रूझान बन गया है। जैसे केरल में धान की खेती की जगह कॉफी का उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा। इससे गांवों का पैसा शहरों में जाने लगा।..शहरों के विस्तार के लिए गांवों की जमीन छिन गयी। जमीन के बदले जमीन नहीं, पैसे दिये गये। उनका जल, जंगल, जमीन उनसे छिन गया। बदले में मिली विस्थापन और बेकारी। घर छिनने का सबसे ज्यादा असर औरतों पर हुआ। ..प्राकृतिक संसाधनों पर कारपोरेट का अधिकार हो गया। माओवाद के सफाये के नाम पर जंगलों की कटाई हो रही है।.. खदानों में खुदाई हो रही है। गांवों से लोग शहरों में आ रहे हैं, जहां उन्हें गरीबी के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है। राजनीतिक पार्टी उन्हें अपना कैडर बना कर गलत काम कराते हैं।..हमें सोचना है-
हम क्या करें कि विस्थापन न हो। महिलाओं को जीने के अधिकार के लिए एकजुट होकर लड़ना है। पुरुलिया में एक कहावत है- जमीन नहीं है तो बकरी पालो। एक बकरी से बहुत कम समय में उनका एक कुनबा बन जाता है, जो महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल बना सकता है। धान से मूढ़ी बनाने का काम केवल औरतें ही करती हैं जो उनके आय का एक जरिया है। औरतों में संचय की प्रवृत्ति होती है। वे अपने हिस्से का एक हिस्सा धान बचा कर रखती हैं। जरूरत के समय दूसरी महिलाओं को उधार में देकर उनकी मदद करती हैं।
गांवों को बचाना है तो कृषि को बचाना है। कृषि को औरतें ही बचा सकती हैं। इसके लिए उन्हें एकजुट होना होगा। ..कृषि में काम करने वाली महिलाएं आजाद होती हैं और बड़े उद्योगों में वे गुलाम हो जाती हैं।..गांवों के पानी के पुराने स्रोत छिन जाने से पानी के इंतजाम में महिलाओं का बहुत समय जाता है।.. वे आर्थिक कामों से दूर होती जा रही हैं।.. इसलिए जल, जंगल, जमीन को बचाना है। आर्थिक क्षमता बढ़े तो महिलाएं अपना ध्यान शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्याओं पर भी केंद्रित कर सकती हैं।..गांवों में आजकल माइक्रो फाइनांसिंग संस्थाओं का प्रसार तेजी से हो रहा है। ये संस्थाएं गांव के लोगों को कम ब्याज पर आसान किस्तों में चुकाये जाने वाले कर्ज का लालच देकर कुचक्र में फंसा रही हैं।
इस सत्र की उल्लेखनीय विशेषता रही कि नकद आमदनी और स्वरोजगार के लिए सामूहिक और निजी रूप से प्रयासरत रहनेवाली अधिकांश सहभागियों ने बड़ी दिलचस्पी से चर्चा में हिस्सा लिया और अपने अनुभव और समस्याएं बतायीं।
इस दिन के दूसरे सत्र का विषय था : महिला और सांप्रदायिकता। सत्र की पहली वक्ता थीं मनीषा बनर्जी। इस सत्र में आयीं मुख्य बातें इस प्रकार हैं: ..धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय न होकर सत्ताधारी पार्टी की राजनीति का मोहरा बन गया है। वोट ध्रुवीकरण के लिए विभिन्न धार्मिक समुदायों में आपसी मतभेद फैलाया जा रहा है। चर्च और मसजिद के सामने जयश्री राम का नारा लगाया जा रहा है।.. धर्म बाजार के हाथों का भी खिलौना बनता गया है। ..पर्व त्योहारों में बाजारों में बिक्री बढ़े, इसके लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं।..नफरत की ऐसी सनक बन गयी है कि हाल में पटना में वाजपेयी जी के जन्मदिन के समारोह में रघुपति राघव राजा राम भजन गा रही गायिका को उस भजन में आ रहे ‘अल्लाह’ शब्द गाने से हंगामा कर रोका गया।.. एक अन्य घटना में तीन स्कूली बच्चों के टिफिन में गोमांस होने की संभावना जताकर उन्हें टेररिस्ट कह पकड़कर रखा गया। ..कहीं भी किसी को भी रोक कर उसके धर्म के बारे में पूछने, मनमाने आरोप मढ़ने, तंग करने की अशिष्टता बढ़ती जा रही है।
..अब स्कूलों में भी एक धर्म के बच्चे दूसरे धर्म के बच्चों के साथ बैठने से परहेज करने लगे हैं। आंचलिक और अन्य धार्मिक पर्वों की छुट्टियां घट गई हैं तथा हिन्दू पर्वों की छुट्टियां बढ़ गई हैं।..बंगाल में महिलाएं करवा चौथ नहीं मनाती थीं, लेकिन अब बंगाल में भी महिलाएं करवा चौथ मना रही हैं। बंगाल में मुस्लिम महिलाएं बुर्का नहीं पहनती थीं। अब बुर्का अनिवार्य सा हो गया है। हालात ऐसे भयावह हो गये हैं कि आज मुस्लिम महिलाओं का बलात्कारी आदरणीय हो जाता है। महिलाएं भी ऐसे बलात्कारियों के समर्थन में उतर आती हैं।
मस्जिद के नीचे मंदिर बताकर मस्जिदों को क्षतिग्रस्त करवाने की अदालती अनुमति मांगने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। ऐसे आवेदन देने वालों में महिलाएं भी हैं। हाईकोर्ट के जज भी अपने पद की गरिमा और निष्पक्षता को भूलकर सांप्रदायिक बयान दे रहे हैं।.. बांग्लादेश में चल रहे साम्प्रदायिक हमलों का प्रभाव बंगाल पर भी पड रहा है। यहां भी सांप्रदायिक हिंसा बढ़ गयी है।.. विश्व भारती शांतिनिकेतन में पढ़ने के लिए आये मुस्लिम लड़के, लड़कियों को रहने के लिए अब भाडे़ पर घर नहीं मिलता। दंगों में सबसे बड़ा नुकसान औरतों का ही होता रहा है, चाहे वह किसी भी धर्म की हों।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के साम्प्रदायिक आधिपत्य के कारणों पर भी कुछ विचार आये। यह कहा गया कि अतीत में विभिन्न धर्मनिरपेक्ष और जनपक्षीय बदलाव की धाराओं के बीच के प्रतिस्पर्धी दुराव के कारण साम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ने का अबाध अवसर मिला। जिस तरह सम्प्रदायों के बीच नफरत और विद्वेष फैलाने की कोशिश चली , वैसी प्रेम और सद्भाव की सांस्कृतिक कोशिशें लगातार नहीं चलीं। हर तरह की धार्मिक कट्टरता महिलाओं की पाबन्दी, गैरबराबरी और उत्पीड़न बढ़ाती है। इस कारण हर धार्मिक कट्टरता के खिलाफ युक्तिसंगत भूमिका लेनी चाहिए। इन कमियों से उबर कर एक बड़ी आत्मीय एकजुटता बनाकर ही साम्प्रदायिक तानाशाही को खत्म किया जा सकता है।
अंतिम दिन सहचिन्तन कार्यक्रम की समीक्षा हुई तथा भावी कार्यक्रम निर्धारित किया गया। उपस्थित प्रत्येक महिला ने सम्मेलन से जो कुछ भी सीखने को मिला, उसे बताया। लगभग सभी महिलाओं ने कहा कि इस सम्मेलन में आकर उन्हें इतनी सारी महिलाओं से अपनापा बना, बहिनापा की ऊर्जा मिली, पर्यावरण के प्रति सजगता बढ़ी।
इस सहचिन्तन में कुछ काफी नयी और महत्वपूर्ण बातें भी उभरीं। महाराष्ट्र में ग्रामीण भाग में एक परंपरा है। ऋषि/कृषि पंचमी के दिन महिलाएं वैसी ही उपज खाती हैं, जिसमें हल बैल का उपयोग नहीं हुआ हो। नमक भी वैसा खाते हैं, जो बैलगाड़ी से ढ़ोकर नहीं लाया गया हो। क्या ऐसा ही कुछ तय कर महिला केन्द्रित आचार दिवस हम सब नहीं बना, मना सकते हैं? प्रतीक दिवसों खासकर महिलाओं से जुड़े प्रतीक दिवसों पर हम सब महिलाएं एकजुट कॉल दें। क्या आपके घर में संविधान है, घर घर पूछने और संविधान बांटने का अभियान चलाएं। एसएचजी की तरह नेबरहुड हेल्प ग्रुप बनाना चाहिए, जो एक दूसरे की मदद को तत्पर हो। महिलाओं को न्यायिक सहयोग के लिए महिला वकीलों का एक समूह बनाया जाय। महिला मुद्दा मीडिया कम्पेन चले। महिला मुद्दे पर मुखर सोशल मीडिया पोस्टों पर ट्रोलों के विरोध का अभियान चलाएं। रात में गाते , नारे लगाते , झूमते थिरकते महिला समूह सड़कों पर उतरें। ‘हमारी रातें, हमारी सड़कें’ की दावेदारी करनेवाले कार्यक्रम ज्यादा से ज्यादा जगहों पर फैलाने की कोशिशें हों।
कुछ मुद्दे तय हुए , जिन पर केन्द्रित होकर कार्यक्रम लिए जाएंगे। प्रांतीय और राष्ट्रीय विधायिका में महिलाओं को आरक्षण, जातीय जनगणना, महिलाओं को बेरोजगारी भत्ता और महिला सुरक्षा – ये चार मसले इसके लिए निर्धारित किये गये।
आनेवाले दिनों के निर्धारित सार्वजनिक कार्यक्रम :
1. 30 जनवरी गांधी शहादत दिवस – भाजपा के लोगों को अब अल्लाह ईश्वर का एक साथ उल्लेख भी बर्दाश्त के बाहर हो गया है। पटना की एक सभागार में गांधी के प्रिय भजन ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम – सबको सन्मति दे भगवान ‘ के गायन को रोककर गायिका को माफी मांगने पर मंजूर कर दिया गया। इसके प्रतिवाद में स्थानीय स्तर पर विभिन्न बैनरों और रूपों में कार्यक्रम लिए जाएंगे। एक बैनर अवश्य हो , जिस पर ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम – सबको सन्मति दे भगवान’ लिखा हो। कार्यक्रम में यह भजन गाया भी जाय।
2. अगला सहचिन्तन समावेश – 30,31 मई, 1 जून 2025 को मसूरी के निकट स्थित युसुफ मेहर अली सेन्टर में अगला महिला सहचिंतन होगा। यह निर्णय गुड्डी एस एल के पहल एवं आमंत्रण पर लिया गया।किरण ने जानकारी दी कि रांची में मार्च 2025 में प्रांतीय महिला सम्मेलन करने की योजना वहां की महिला साथी बना रही हैं।
शांतिनिकेतन भ्रमण और महिला जन सभा:
सहचिंतन के औपचारिक समापन के बाद सहभागी महिलाएं मनीषा बनर्जी के साथ विश्वभारती और शांतिनिकेतन के प्रमुख स्थलों को देखने गयीं। इसके बाद शांतिनिकेतन के समीप के एक मुहल्लानुमा गांव में जाकर वहां की महिलाओं से मिलने बतियाने का कार्यक्रम हुआ। गांव की महिलाओं ने बाउल गायकों द्वारा बजाये जाने वाले एकतारा की कलात्मक अनुकृति तमाम अतिथियों को उपहारस्वरूप दी।