— कुमार शुभमूर्ति —
आनेवाली पीढ़ियां मुश्किल से यह विश्वास कर पाएंगी कि इसके जैसा मांस और खून का बना कोई आदमी इस पृथ्वी पर कभी विचरण करता था।
आइंस्टीन के उपर्युकत वाक्य को मैंने, गांधी पर एक टिप्पणी के रूप में कभी नहीं देखा। मेरे सामने यह वाक्य हमेशा एक चुनौती के रूप में आता रहा है।
चुनौती यह कि आनेवाली पीढ़ियां गांधी को भूलें नहीं बल्कि गांधी को इतना जानें कि उनसे सीख लेते हुए वे उनसे भी आगे जाने का प्रयत्न करती रहें।
आगे जाने के प्रयत्न का जो सूत्र गांधी ने दिया है वह ऐसा है जैसे चरखे का हर सूत निकालने के लिए नया प्रयत्न करना पड़ता है और निकलने वाला हर सूत भी पहले जैसा नहीं वरन नया और नया होता है। यही सत्याग्रह की प्रक्रिया है। सत्य शाश्वत है, उस पर पैर जमाए रखना लेकिन हाथों से पकड़ना उस सत्य को जो बदलते समय के साथ नये रूप में हमारे सामने प्रगट हो रहा है।
11 सितंबर 1906 को सत्याग्रह के जन्म की पहली कहानी शुरू होती है। दक्षिण अफ्रीका का एक शहर ट्रांसवाल। यहाँ गुलाम और दरिद्र भारतीय कुली, गांधी के प्रयत्नों के कारण अपने सम्मान की रक्षा के लिए जुटे थे।
वे सभी शपथ ले रहे थे कि हम अपने अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए सरकारी दफ्तर में दसों अँगुलियों का निशान देकर रजिस्ट्रेशन नहीं कराएंगे।
शपथ लोग खा रहे थे पर एक ने कहा कि मैं खुदा के नाम पर यह शपथ लेता हूं कि ….खुदा का नाम सुनकर गांधी चौक गये।
उनके लिए खुदा और ईश्वर एक ही थे। यह कोई अंधविश्वास नहीं। अपने मूल्यों के लिए मर-मिटने तक जिसके भरोसे आदमी लड़ता है यह वैसी शक्ति का नाम है। ईश्वर गांधी के लिए आत्म-बल का मूल स्रोत है। इसे ही वह आगे चलकर सत्य कहते हैं।
ख़ुदा के नाम पर ली गयी इस शपथ ने गांधी के लिए एक दूसरा ही रूप ले लिया। इस शपथ की पूर्ति के लिए गांधी मर-मिटने को तैयार हो गये।उपस्थित सभी साथियों को उन्होंने ख़ुदा के नाम पर शपथ लेने का गहरा अर्थ समझाया।
समय बीता, सत्ता अपनी चाल चलती रही। समय के साथ सत्य भी चुपचाप अपना नया रूप धारण करता गया। गांधी ने सत्य के इस नये रूप को पकड़ा और ली गयी शपथ को नये तरीके से पूरा करने के लिए तैयार हो गये।
जनरल स्मट्स ने वादा किया कि यदि कुली लोग एक बार रजिस्ट्रेशन करा लें तो फिर इस पूरे कानून को जल्द ही रद्द कर दिया जाएगा। मुश्किल, यह संघर्ष समाप्त हो जाएगा। जनरल स्मट्स के इस वायदे पर गांधी ने विश्वास कर लिया। समझौते से जब बात बन ही जाएगी तो संघर्ष क्यों किया जाए।
स्मट्स द्वारा किये गये वायदे पर अविश्वास करना, गांधी की राजनीति में शामिल नहीं था। गांधी के सामने सत्य अपने नये रूप में उपस्थित था। अब ईश्वर के नाम पर ली गयी शपथ को तोड़कर मनुष्य द्वारा किये गये वायदे पर विश्वास रख सरकारी दफ्तर में दसों उँगलियों के निशान देकर अपने अस्तित्व की मंजूरी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाना था। शायद गांधी ईश्वर के भी अंधभक्त नहीं थे। ईश्वर को वे तर्क की कसौटी पर कस रहे थे।
लेकिन मीर आलम अपने खुदा का ऐसा बंदा था जिसकी बंदगी अंधी थी। उसने सत्य का जो रूप 1906 में देखा था उसे ही आज 1908 में भी पकड़े बैठा था। समय के साथ बदलते सत्य को उसने नहीं समझा। उसकी सोच झूठ के रास्ते चल पड़ी थी। उसे गांधी की रजिस्ट्रेशन वाली यह बात समझ में नहीं आयी। उसने फैलायी गयी इस बात को मान लिया कि गांधी ने जनरल से 15,000 पौण्ड लेकर समझौता कर लिया है। खुदा की बंदगी छोड़ कर उसे धोखा दे रहा है। रजिस्ट्रेशन कराने जाते हुए गांधी पर उसने लाठियाँ बरसा दीं।
अपने हिसाब से मीर आलम ने गांधी की हत्या कर देने का ही प्रयास किया था। जिन्हें गांधी पर पर भरोसा था वे बचानेवाले भी पिट गये। पर कुछ ब्रिटिश गोरों को देखते ही मीर आलम की कायरता ने जोर मारा और उसका पूरा ग्रुप भाग खड़ा हुआ।
गांधी बच गये। उन्होंने मीर आलम को माफ कर दिया। किसी प्रकार की कार्रवाई करने से मना कर दिया। बच तो गये लेकिन कुछ ही दिनों में गांधी के सामने, सत्य नये रूप में आकर खड़ा हो गया। जनरल स्मट्स ने धोखा दिया। उसके लिए अपने ही द्वारा किये गये वायदे की कौड़ी भर भी कीमत नहीं थी। स्मट्स ने कानून तो बदला लेकिन वाक्य और शब्दों के अलावा कुछ नहीं। बात वहीं रह गयी जहाँ वह 1906 में थी।
सभी को फिर से रजिस्ट्रेशन कराना पड़ेगा। मान्यता उसे ही मिलेगी जिसे सरकार चाहे। गांधी के लिए यह धोखा एक नयी चुनौती था। गांधी तत्काल इसके खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हो गये। एशियाटिक कानून के अंतर्गत पूर्व में लिये गये प्रमाणपत्रों को जलाकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देने का निर्णय हुआ। आज सत्य इसी नये रूप में गांधी के सामने खड़ा था।
सभी प्रमाणपत्रधारी एक जगह इकट्ठा होकर अपना प्रमाणपत्र जलाने के लिए जुटे थे।गांधी सभी का नेतृत्व करते हुए खड़े थे। तभी उनके सामने मीर आलम आया जो अपना मूल प्रमाणपत्र जलाने के लिए साथ लाया था। वह गांधी से लाठी का प्रहार करने के लिए क्षमा माँगने लगा और गांधी से लिपटकर रो पड़ा। मीर आलम को पूरा अहसास हो गया था कि यह आदमी बिका नहीं था। उस वक्त जो सच लग रहा था गांधी उस पर अटल था और जो उसे आज सच लग रहा है वह उस पर अटल है।
गांधी के सत्याग्रह का सारा दारोमदार इस बात पर है कि सत्याग्रही को सत्य के वर्तमान रूप की सही पहचान है या नहीं। उसे सबसे पहले सत्यग्राही ही बनना पड़ता है। इसके लिए यह क्षमता विकसित करनी पड़ती है कि बदलते समय के साथ सत्य के नये रूप को वह पहचान ले।
सत्याग्रह की यह कहानी शुरू हुई थी 11 सितंबर 1906 को ईश्वर के नाम पर शपथ ग्रहण से, और बीच का पड़ाव है गांधी पर 10 फरवरी को जानलेवा लाठी बरसानेवाले मीर आलम द्वारा गांधी से 16 अगस्त 1908 को माफी माँगना। यह माफी माँगना मीर आलम की हार नहीं थी। सत्याग्रह में विपक्ष भी हारता नहीं है। सिर्फ सही क्या है इसे वह समझ जाता है।
इसी बीच गांधी ने संघर्ष की इस प्रक्रिया को जिसे अब तक पैसिव रेजिस्टेंसकहा जाता था नया नाम दे दिया सत्याग्रह का। पैसिव रेजिस्टेंस शब्द गांधी के मन में इस संघर्ष के प्रति जो भाव था वह प्रकट नहीं कर पा रहा था। नये शब्द की खोज के लिए गांधी ने एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनायी। अपने इंडियन ओपीनियन अखबार में जो इस संघर्ष का अखबार था और इसके हजारों पाठक थे, गांधी ने विज्ञापन दिया कि हमारी इस लड़ाई का नाम क्या रखा जाए। अनेक सुझाव आए। सबसे अच्छा सुझाव लगा मगनलाल गांधी का। सद+आग्रह = सदाग्रह। मगनलाल को पुरस्कार भी मिला लेकिन गांधी ने इसमें सुधार किया। सत+आग्रह = सत्याग्रह। यही सत्याग्रह शब्द सटीक भी रहा और दुनिया भर में प्रचलित भी हुआ।
इस पहले सत्याग्रह का अंत भी इसी प्रकार सन 26 जून 1914 को तब हुआ जब एशियाटिक कानून समाप्त करते हुए भारतीय राहत अधिनियम लाया गया। इस पूरे प्रकरण का एक खलनायक जनरल स्मट्स था जिसे उसकी जेल में रहते हुए गांधी ने अपने हाथ से एक जोड़ी चप्पल बनाकर उपहार में दी थी। वर्षों बाद स्मट्स ने बताया कि उस चप्पल को उसने कभी पहना नहीं और वह आज भी उसके घर में सुरक्षित रखी है। उसके मन में जो नफरत की आग थी उसे सत्याग्रह के प्रेम ने बुझा दिया था।
इतिहास में सत्य और अहिंसा की बातें करनेवाले कई महापुरुष हुए हैं। बुद्ध और महावीर जो समकालीन थे दोनों का जोर अहिंसा पर था। अपने विचारों का जो प्रचार और उसकी स्वीकृति उन्होंने अहर्निश क्रियाशील रहकर करवायी, वह अद्वितीय है।
सम्राट अशोक का बुद्ध के अहिंसा के विचारों के प्रचार में अद्वितीय स्थान है। यह भी सही है कि अहिंसा, सत्य के साथ जुड़ी ही रहती है फिर भी उस प्रचार-प्रसार को सत्याग्रह नहीं कहा जा सकता।
अपनी जान देकर भी जिन्होंने सत्य को नहीं छोड़ा ऐसे उदाहरण भी सुकरात और ईसा के रूप में हमारे सामने हैं। सत्य की वेदी पर मिट जानेवाले अनेक होंगे जो अनाम ही रह गये। परंतु सत्याग्रह एक अलग ही चीज है। इसकी खोज गांधी ने पूर्वजों द्वारा रखी गयी सत्य और अहिंसा की आधारशिला पर खड़े होकर की।
गांधी सिर्फ सत्य की राह पर चलनेवाले सत्यमार्गी नहीं थे। वे सत्य के प्रयोगी थे। सत्याग्रही सिर्फ सत्यनिष्ठ नहीं रह सकता, वह सत्य का अहिंसा के तरीकों से ऐसे प्रयोग करता है कि जिससे आम लोग अपने आत्मबल को महसूस करें और अन्यायी के अन्याय को निरस्त करने में लग जाएँ।
सत्याग्रह की खोज के कारण, अन्याय मिटाने के नाम पर ईंट का जवाब पत्थर से देकर सभी अपना सर फोड़ लें, इसकी जरूरत नहीं रह गयी है। सत्याग्रह अन्याय मिटाने की एक ऐसी पद्धति है जो अन्याय को मिटाती है और अन्यायी को आदमी बना देती है।
सत्य किसी व्यक्ति की शक्ति हो सकता है परंतु सत्याग्रह लोगों की जमात का शस्त्र है। यह जमात जब अहिंसा के बल पर जिसका भौतिक रूप आत्मबल या साहस है खड़ी होती है और सत्याग्रह ठान देती है तो अन्याय करनेवाला विरोधी पक्ष इस अहिंसक जमात के साथ मिल जाता है। अन्याय समाप्त हो जाता है। गांधीजी की सोची-समझी ध्रुव मान्यता थी कि बुरे साधनों से हम किसी अच्छी मंजिल पर नहीं पहुंच सकते। सत्याग्रह का साधन अहिंसा ही हो सकती है।
( जारी )