(महात्मा गांधी सार्वजनिक जीवन में शुचिता, अन्याय के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष और सत्यनिष्ठा के प्रतीक हैं। उनकी महानता को दुनिया मानती है। फिर भी गांधी के विचारों से मतभेद या उनके किसी कार्य से असहमति हो सकती है। लेकिन गांधी के बारे में कई ऐसी धारणाएं बनी या बनायी गयी हैं जिन्हें गलतफहमी ही कहा जा सकता है। पेश है गांधी जयंती पर यह लेख, जो ऐसी गलतफहमियों का निराकरण करता है। गांधी की छत्रछाया में पले-बढ़े और उनके सचिव मंडल का हिस्सा रहे स्व. नारायण देसाई का यह लेख गुजराती पत्रिका ‘भूमिपुत्र’ से लिया गया है। नारायण भाई ने गांधी की बृहद जीवनी भी लिखी है।)
9. देश के बँटवारे के लिए गांधी जिम्मेवार थे?
एक गलफहमी यह है कि देश के बँटवारे के लिए गांधीजी ही जिम्मेवार थे! इस तरह की गलतफहमी गांधीजी की हत्या के बाद सुनियोजित रूप से फैलाने की कोशिश की गयी है। यह तो अफवाह ही हो सकती है। गांधीजी की हत्या के बाद संगठित रूप से इस तरह की गलतफहमी फैलानेवाले उनके जीते-जी सार्वजनिक रूप से इस विषय की चर्चा करने से बचते थे। लगता है इस दुनिया से उनके जाने के बाद भी इस बारे में सार्वजनिक चर्चा को टालते थे। हाँ, एक बार श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने, जब वह मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में विदेशमंत्री थे, गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में आयोजित एक सभा में अध्यक्ष के रूप में बोलते हुए कहा था कि ‘हम लोग भी बहुत दिनों तक यही मानते रहे कि देश के बँटवारे के लिए गांधीजी जिम्मेवार थे। लेकिन इमरजेंसी के दौरान जेल में अध्ययन का मौका मिला तब हमें समझ आया कि बँटवारे के लिए गांधीजी नहीं, बल्कि दूसरे लोग जिम्मेवार थे।’
देश-विभाजन के विचार को 1940 से 1945 तक किसी ने निरंतर समर्थन दिया तो वह मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व वाली मुसलिम लीग थी। अंगरेज सरकार की नौकरशाही में कुछ लोग विभाजन के विचार को निश्चय ही समर्थन दे रहे थे, पर खुले रूप से नहीं। वे गुप-चुप मुसलिम लीग का साथ देते थे। इसका एक कारण शायद यह रहा हो कि वे लोग तीस बरस से आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस के विरोधी बन गये थे। माउंटबेटन वाइसराय के रूप में भारत आए, तो उन्हें भारत से ब्रिटिश हुकूमत की विदाई के आदेश पर अमल करना था। वैसा करने में देश का बँटवारा करना पड़े तो वैसा भी करने की उन्हें छूट थी। हालांकि दक्षिण पूर्व एशिया में भारत जैसी एक सत्ता का होना इंग्लैंड के अनुकूल होता, पर बँटवारा अनिवार्य लगे तो माउंटबेटन को वैसा करके 1948 के जून माह तक भारत से ब्रिटिश हुकूमत का बोरिया-बिस्तर समेट लेने का आदेश मिला था।
कांग्रेस विभाजन के खिलाफ थी। पर उसे रोकने के उद्यम में अगर देश में तकरार बढ़े तो उससे निपटने की कांग्रेस के नेताओं की तैयारी नहीं थी। मुसलिम लीग बँटवारे की अपनी मंशा पूरी करने के लिए झगड़े-फसाद मोल लेने को तैयार थी। बँटवारा न हो और यथास्थिति जारी रहे तो गांधीजी कांग्रेस को साथ लेकर एक और अहिंसक लड़ाई लड़ने को तैयार थे। लेकिन कांग्रेस के नेताओं की ऐसी तैयारी नहीं थी। कांग्रेस की रणनीति यह थी कि अव्वल तो बँटवारा हो ही न, पर बँटवारे को लेकर अगर कुछ सौदेबाजी करनी ही पड़े तो जिस सिद्धांत के मुताबिक बँटवारे की बात मुसलिम लीग कर रही थी उसी सिद्धांत को लागू करते हुए पंजाब और बंगाल के भी विभाजन पर जोर दिया जाए। गांधीजी पंजाब और बंगाल के भी विभाजन के विरुद्ध थे, क्योंकि उन्हें यह दिख रहा था कि इस विचार को मान लेने का अर्थ होगा पूरे देश के विभाजन के तर्क को मान लेना।
लेकिन कांग्रेस ने गांधीजी के साथ कोई राय-मशविरा किए बिना ही अपनी बात आगे बढ़ा दी थी। बँटवारे की बाबत पंजाब में कुछ विशेष और बंगाल में उससे कुछ कम विरोध के जो स्वर थे, कांग्रेस ने उनकी परवाह नहीं की। बँटवारे के कारण जान-माल का भयानक नुकसान इन दो प्रांतों में ही हुआ था। स्वराज मिलने के तेरह साल बाद दो प्रसिद्ध पत्रकारों के सामने माउंटबेटन ने यह कबूल किया था कि आबादी की अदला-बदली में ऐसी भयानक मार-काट मचेगी इसकी कल्पना उस समय पंजाब, बंगाल और उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत के अंग्रेज गवर्नरों को नहीं थी। जिन्ना और लियाकत अली खान को भी नहीं थी। नेहरू और पटेल को भी नहीं थी। सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति ने उन्हें इस विनाश के बारे में चेताया था, और वह थे गांधीजी।
दो प्रांतों के बँटवारे समेत देश के विभाजन के फैसले पर दस्तखत होने के बाद ही इसके बारे में गांधीजी को जानकारी दी गयी थी। उसके बाद भी गांधीजी ने जो सुझाव दिया था वह विभाजन की योजना को अवरुद्ध कर सकने वाला था। उन्होंने कहा था कि अब तो विभाजन का सिद्धांत स्वीकार कर लिया गया है। अब बँटवारा किस तरह से हो और कौन-से मापदंड लागू किए जाएं, यह सब तय करते समय अँगरेज बीच में न रहें। दोनों तरफ के नेता साथ बैठकर आपस में यह सब तय करें। लेकिन गांधीजी के इस प्रस्ताव को कांग्रेस कार्यसमिति ने भी अव्यावहारिक करार दिया था; वह यह नहीं समझ सकी कि इसकी अव्यवहार्यता ही यह सिद्ध कर देती कि बँटवारा कितना निरर्थक था।
काल के प्रवाह को गांधीजी नहीं रोक सके। अलबत्ता गांधीजी ने खुद तो बँटवारे को मान्यता नहीं ही दी थी। देश का जो भाग पाकिस्तान बना, उनकी योजना वहाँ जाने की थी। इसकी तैयारी करने के लिए उन्होंने कुछ साथियों को सिंध और पंजाब भेजा भी था। कलकत्ता से पंजाब जाते हुए सरदार पटेल जैसे करीबियों ने उन्हें यह कहकर रोक दिया था कि जब दिल्ली जल रही है तो पंजाब जाकर क्या करेंगे? लिहाजा, गांधीजी दिल्ली रुक गये थे। काल ने उन्हें रोक दिया था, पर वह काल के आगे झुके नहीं थे।
गांधीजी के साथ चर्चा करने की पेशकश टालकर, उनकी जान लेकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयत्न करनेवालों को क्या कहेंगे? अदालत में हत्यारे की मुख्य दलील यह थी कि गांधीजी मुसलमानों का पक्ष लेते थे और हिंदुओं के प्रति अन्याय करते थे। 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत आए, उससे पहले उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों का ही नहीं, ईसाइयों, यहूदियों, पारसियों आदि का भी नेतृत्व किया था। वहाँ के आखिरी और सफल सत्याग्रह में दो मुद्दों को लेकर लड़ाई चली थी। एक मुद्दा था, विवाह संबंधी कानून का विरोध। यह विरोध हिंदुओं ने भी किया था और मुसलमानों ने भी। इस सत्याग्रह में दूसरा मुद्दा था, तीन पौंड के कर को रद्द करवाने का। वह कर सारे हिंदुस्तानियों पर समान रूप से लागू था, पर वह सबसे ज्यादा तकलीफदेह गिरमिटियों के लिए था, जिनमें ज्यादातर हिंदू थे।
जो भी हिंसा का शिकार हुआ, गांधीजी उसके साथ थे। उनका समर्थन किसी एक कौम के प्रति नहीं था। गांधीजी हमेशा मुसलमानों का ही पक्ष लेते थे, यह कहनेवाले बड़ी सुविधा से यह बात भूल जाते हैं कि नोआखाली में कौन किसको मार रहा था। नोआखाली में हिंदू ही पीड़ित थे। गांधीजी उनके आँसू पोंछने और उन्हें निर्भयता का पाठ पढ़ाने के लिए काफी कष्ट और खतरे उठाकर वहाँ घूम रहे थे। बिहार में तस्वीर उलटी थी। वहाँ हिंसा और क्रूरता के शिकार मुसलमान हुए थे। इसलिए वहाँ गांधीजी की सहानुभूति उनके साथ थी।
गांधीजी ने 1948 में दिल्ली में उपवास किया, तो उपवास छोड़ने की शर्तों में एक यह थी कि विभाजन के समय संसाधनों के बँटवारे के सिलसिले में हुए निर्णय के मुताबिक भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रु. देगा। एक अंतरराष्ट्रीय करार का पालन न होने से देश की बदनामी होगी, गांधीजी को इसकी चिंता थी। लेकिन गांधीजी की हत्या का समर्थन करनेवाले तो इस बात को यहाँ तक खींच ले जाते हैं कि इसी कारण से उनकी हत्या की गयी थी। ऐसी दलील देनेवालों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि 55 करोड़ की बात तो गांधीजी की हत्या के कुछ दिन पहले ही उठी थी। जबकि गांधीजी की हत्या के प्रयास तो बरसों से हो रहे थे। 30 जनवरी 1948 के दिन जो कृत्य किया गया, उसके पीछे मात्र एक घटना से उपजा आवेश नहीं था, बल्कि ऐसा लगता है कि वह बरसों से ठंडे दिमाग से रचे गये षड्यंत्र का परिणाम था।
यह भी याद रहे कि आखिरी चौदह वर्षों में गांधीजी की हत्या के कम-से-कम छह प्रयास हुए और उनमें से तीन में आखिरी बार का हत्यारा बढ़-चढ़ कर शामिल था। यह भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि जब गांधीजी ने सवा सौ साल जीने की इच्छा जतायी थी, तब उनकी इस इच्छा का जिक्र करते हुए ‘अग्रणि’ नामक पत्रिका के संपादक ने यह टिप्पणी की थी कि ‘पर उन्हें जीने देगा कौन?’ वह संपादक और ऐसी टिप्पणी लिखने वाला और कोई नहीं, हत्यारा खुद ही था।
(समाप्त)
(गुजराती से अनुवाद—–राजेंद्र राजन)