क्या स्वाधीनता संग्राम को गति देने के लिए सावरकर जेल से बाहर आना चाहते थे?

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— राजू पाण्डेय —

सावरकर के माफीनामों के बचाव में बार-बार यह दलील दी जाती है कि सावरकर के माफीनामे जेल से बाहर निकलकर पुनः क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने का मौका प्राप्त करने की रणनीति का हिस्सा थे।

लिहाजा यह गौरतलब है कि सेल्युलर जेल से रिहा होने के बाद उन क्रांतिकारियों का जीवन किस प्रकार बीता जो सावरकर के साथ कैद थे।

शचीन्द्रनाथ सान्याल सेल्युलर जेल से रिहा होने के बाद भी ब्रिटिश सरकार का उग्र विरोध करते रहे। कहा जाता है उनकी इन क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें दुबारा सेल्युलर जेल भेज दिया गया था। बाद में 1924 में रामप्रसाद बिस्मिल और सान्याल तथा उनके अन्य साथियों ने क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका द रेवोल्यूशनरी शीर्षक मैनिफेस्टो सान्याल ने ही लिखा था। काकोरी बम कांड में संलिप्तता के कारण सान्याल को सजा हुई किन्तु वे 1937 में नैनी सेंट्रल जेल से रिहा कर दिये गये। टीबी से ग्रस्त हो जाने के बाद 1942 में उनकी मृत्यु हुई।

हेमचंद्र कानूनगो के विषय में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य अपनी पुस्तक महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग में लिखते हैं- वहाँ (सेल्युलर जेल) उन्होंने दस वर्ष बिताये और 1919 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड योजना के अनुसार बंदियों की आम रिहाई के समय उन्हें भी (1921 में) मुक्त कर दिया गया। काले पानी की सजा काटकर आने के बाद वे पुनः राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय भाग लेने लगे। किन्तु 10 वर्ष तक असह्य शारीरिक यंत्रणाएँ झेलते-झेलते उनका शरीर लगभग टूट चुका था। अतः अब वे उस जोश-खरोश के साथ काम न कर पाये। अंत में 1951 में उनका देहांत हो गया। (पृष्ठ 95)

बरिंद्र घोष की सेल्युलर जेल से रिहाई बाद उनके आचरण के विषय में सोर्स मैटेरियल फ़ॉर द हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया वॉल्यूम 2 बॉम्बे गवर्नमेंट रिकार्ड्स में अंकित है- बरिंद्र के बारे में नवीनतम गोपनीय रिपोर्ट्स यह दर्शाती हैं कि इस प्रकार के अपराधियों को क्षमादान देना किसी भी प्रकार लाभदायक नहीं है। (मंगलेश जोशी द्वारा इंडिया फैक्ट्स, 8 दिसंबर 2019 को प्रकाशित आलेख में उद्धृत) बरिंद्र बाद में अपने भाई महर्षि अरविंद से प्रभावित होकर 1923 में उनके पांडिचेरी स्थित आश्रम में चले गये। 1929 में वे लौटे और मुख्य रूप से पत्रकारिता करते रहे।

उल्लासकर दत्त को सेल्युलर जेल में अमानवीय यंत्रणाएँ दी गयीं और कहा जाता है कि कुछ समय के लिए उनका मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया था। 1920 में उन्हें रिहा किया गया और वे कलकत्ता लौट आए। बाद में 1931 में उन्हें क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण पुनः गिरफ्तार किया गया और पुनः 18 महीनों की सजा दी गयी।

त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती सेल्युलर जेल से रिहाई के बाद कलकत्ता वापस आए किन्तु 1927 में क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। वे बर्मा की मांडले जेल भेज दिये गये। वे 1928 में रिहा हुए। फिर वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी में भर्ती हो गये। वे 1929 की लाहौर कांग्रेस का भी हिस्सा रहे। इसके बाद 1930 से 1938 की अवधि तक वे पुनः कारागार में रहे। अपनी रिहाई के बाद उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी में विद्रोह कराने का असफल प्रयास किया। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहे और फिर जेल भेज दिये गये। उनकी रिहाई 1946 में हुई।

सेल्युलर जेल में सावरकर के साथ कैद ये सभी क्रांतिकारी गांधी की अहिंसक रणनीति से सहमत नहीं थे। इनके धार्मिक विश्वास भी अलग अलग थे। इनकी विचारधाराएं भी अलग अलग थीं। किंतु गांधी की विचारधारा से असहमति और स्वाधीनता संग्राम की मुख्यधारा का हिस्सा न होने के बावजूद इन्होंने सेल्युलर जेल से अपनी रिहाई के बाद यथाशक्ति देश को आज़ाद कराने का प्रयत्न जारी रखा। इनका गांधी-विरोध कभी भी स्वाधीनता आंदोलन को खारिज करने का कारण नहीं बना। न ही उन्होंने कभी कोई ऐसा कदम उठाया जो ब्रिटिश सरकार के लिए फायदेमंद होता।

इतिहासकारों और विद्वानों एवं लेखकों का एक समूह (वाय.डी फड़के, वेद राही, विक्रम संपत, मंगलेश जोशी आदि) सावरकर को एक चतुर और प्रैक्टिकल क्रांतिकारी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता रहा है जो मूर्खतापूर्ण भावुकता में पड़कर अपने प्राण गँवाने के स्थान पर कारागार से निकलकर देश में स्वाधीनता संग्राम को गति देने का इच्छुक था। यह कहने में बहुत पीड़ा होती है कि आगे का घटनाक्रम इस बात का समर्थन नहीं करता। बल्कि इससे बार-बार यह संकेत मिलता है कि क्षमादान हेतु लिखी गयी याचिकाओं में जो कुछ सावरकर ने लिखा था वह शायद किसी रणनीति का हिस्सा नहीं था अपितु इन माफीनामों में लिखी बातों पर उन्होंने लगभग अक्षरशः अमल भी किया।

अंततः मई 1921 में सावरकर सेल्युलर जेल से निकलने में कामयाब रहे। निरंजन तकले (द वीक, अ लैम्ब लायनाइज़्ड, 24 जनवरी 2016) तथा प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम (हिंदुत्व : सावरकर अनमास्क्ड, तृतीय संस्करण, 24 नवंबर 2015) के अनुसार यद्यपि उन पर राजनीतिक गतिविधि न करने समेत अनेक पाबंदियां थीं किन्तु अंडमान से लौटने के बाद उन्हें अपनी पुस्तक- हिंदुत्व हू इज हिन्दू- लिखने की पूरी सहूलियत जेल में ही अंग्रेज अधिकारियों ने दी थी। वर्ष 1924 में 6 जनवरी को अंग्रेज सरकार से समझौते के बाद पुणे की यरवदा जेल से उनकी रिहाई हुई। वे अब राजनीतिक गतिविधि न करने की पाबंदी के साथ रत्नागिरि में नजरबंद थे। राजनीतिक गतिविधियों पर पाबंदी के बावजूद अंग्रेजों ने 1925 में तब कांग्रेस के सदस्य और गांधी से गहन असहमति रखनेवाले हेडगेवार और सावरकर की मुलाकात पर कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि हेडगेवार, सावरकर के हिंदुत्व से प्रभावित थे और सावरकर की गांधी-विरोध की रणनीति में उनका सहयोग स्वाधीनता आंदोलन को कमजोर ही करता।

ऐसा नहीं लगता कि सावरकर पर रत्नागिरि में नजरबंदी के दौरान कोई विशेष बंधन लगाये गये थे, इस दौरान वे गांधीजी से भी मिले और हिन्दू महासभा की गतिविधियों को भी संचालित करते रहे। सावरकर को बी.एस. मुंजे द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में नासिक जाने की अनुमति भी दी गयी। सावरकर के जीवनी लेखक धनंजय कीर के अनुसार उन्होंने नासिक में “कुछ महार हिंदुओं को आगाखानी मुसलमानों के चंगुल से छुड़ाया। सरकार की अनुमति से उन्होंने भागुर, त्रिम्बक, येओला तथा नागर की यात्रा की और अपनी विचारधारा का प्रचार किया।” सावरकर ने 1924 में ही शुद्धि समारोह शुरू किये जो आज के घर वापसी अभियान की भांति थे। शम्सुल इस्लाम के अनुसार इस अभियान ने स्वाधीनता संग्राम में हर वर्ग के लोगों को सम्मिलित करने की कोशिशों को काफी नुकसान पहुँचाया।

निरंजन तकले ने बीबीसी संवाददाता रेहान फजल को बताया- सावरकर ने वायसराय लिनलिथगो के साथ लिखित समझौता किया था कि उन दोनों का समान उद्देश्य है गाँधी, कांग्रेस और मुसलमानों का विरोध करना। अंग्रेज उनको पेंशन दिया करते थे, साठ रुपए महीना। वे अंग्रेजों की कौन-सी ऐसी सेवा करते थे, जिसके लिए उनको पेंशन मिलती थी? वे इस तरह की पेंशन प्राप्त करनेवाले अकेले व्यक्ति थे।

जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया-  हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो।

प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम ने हिन्दू महासभा आर्काइव्ज के गहन अध्ययन के बाद बताया है कि ब्रिटिश कमांडर इन-चीफ ने हिंदुओं को ब्रिटिश सेना में प्रवेश हेतु प्रेरित करने के लिए बैरिस्टर सावरकर का आभार व्यक्त किया था।

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सावरकर ने हिन्दू महासभा के सभी सदस्यों से अपील की थी कि वे चाहे सरकार के किसी भी विभाग में हों, अपने पद पर बने रहें। (महासभा इन कॉलोनियल नार्थ इंडिया, प्रभु बापू)।
इसी कालखंड में जब विभिन्न प्रान्तों में संचालित कांग्रेस की सरकारें अपनी पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र दे रही थीं तब सिंध, उत्तर पश्चिम प्रांत और बंगाल में हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चला रही थी। (सावरकर : मिथ्स एंड फैक्ट्स, शम्सुल इस्लाम)।

सावरकर ने जेल से अपनी रिहाई के बाद स्वाधीनता हेतु किये जा रहे प्रयासों से दूरी बना ली थी- चाहे वह गांधी का अहिंसक आंदोलन हो अथवा क्रांतिकारियों की हिंसक कोशिशें। वे तटस्थ भी नहीं थे, उन्होंने अंग्रेजों को सक्रिय सहयोग दिया। शायद वे स्वाधीनता आंदोलन के सर्वसमावेशी स्वरूप को हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में बाधक समझने लगे थे।

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