— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
(पाँचवीं किस्त)
राजनैतिक विश्लेषक, इतिहासकार रामचंद्र गुहा द्वारा संपादित प्रस्तुत पुस्तक ‘मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया’ में एक पूरा अध्याय राममनोहर लोहिया पर ‘इनडिजअनस सोशलिस्ट’ ‘देशी सोशलिस्ट’ शीर्षक से लिखा गया है, लोहिया की विद्वत्ता, विशद अध्ययन, कई भाषाओं के सक्षम ज्ञान तथा साहित्य एवं कला में गहन रुचि के कारण उन्हें भारतीय ट्राटस्की के रूप में देखा जा सकता है जिसके कारण भारत के उच्च कोटि के अनेकों लेखक,कलाकार उनकी ओर उसी तरह आकर्षित तथा समर्पण भाव से जुड़ते थे जैसे कि रूस में ट्राटस्की के साथ।
एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने अपने एक लेख में लिखा कि “यह तस्वीर गोवा की है। राममनोहर लोहिया की फूलमाला से लदी उनकी प्रतिमा। मुख्यमंत्री और मंत्री फूल चढ़ा गए थे। दिन था 18 जून। गोवा हर साल 18 जून को गोवा क्रांति दिवस मनाता है। प्रतिमा के बाहर लिखी इबारत के अनुसार 18 जून 1946 को युवा राममनोहर लोहिया ने पुतर्गाली शासन के खिलाफ़ आज़ादी का नारा दिया था। हज़ारों गोवन की भीड़ जमा हो गयी थी। भारत छोड़ो आंदोलन में हुई गिरफ्तारी के बाद लोहिया गोवा आए थे अपने मित्र के यहाँ आराम करने। इतिहासकारों ने आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं के जीवन के दूसरे पहलुओं का अध्ययन नहीं किया है। इतने सघन में भी लोहिया गोवा पहुँचे थे आराम करने। मैं कुछ देर तक विस्मय में सोचता रहा। …. उत्तर प्रदेश में जन्मे राममनोहर लोहिया के नाम पर देश में कहीं सरकारी कार्यक्रम मनता है तो वह गोवा है। खुद उत्तर प्रदेश में सरकार बदलते ही लोहिया मैदान अम्बेडकर मैदान हो जाता है।
गोवा में कांग्रेस के मुख्यमंत्री दिगम्बर कामत तो लोहिया की प्रतिमा पर फूल माला चढ़ा रहे थे। उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई कांग्रेसी नेता ऐसा करे।
टेलीविजन पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के अनुसार ‘लोहिया विकल्पों के आसरे वैकल्पिक मुद्दों को टटोलते थे, लोहिया उन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को छूने की कोशिश करते हैं, जो समाज में हाशिए पर हैं।’
वामपंथी/मार्क्सवादी सोच के बुद्धिजीवी भी लोहिया की वैचारिक धारा के कितने कायल हो गए। मार्क्सवादी सिद्धांतकार प्रो. पूरन चंद जोशी के शब्दों में “मैंने जब ‘लोहिया रचनावली’ की विषय-सूची देखी तो मैं चकरा गया कि लोहिया के चिंतन का कितना विस्तृत दायरा है; मैं सोचने लगा कि क्या मुझे लोहिया जैसे चिंतक व राजनीतिक कर्मी के बारे में कुछ कहने की क्षमता और अधिकार है।”
वामपंथी साहित्य के शिखर पुरुष डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘गांधी, अम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं’ में लिखा है “20वीं सदी के अंतिम दशक में जिस व्यक्ति के विचारों ने आज की राजनीति को सबसे अधिक प्रभावित किया है वह डॉ. राममनोहर लोहिया जी हैं। भारत की कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके विचारों से अछूती नहीं है।
नाम के मुताबिक मशहूर वामपंथी साहित्यकार डॉ. नामवर सिंह का कहना है कि “मैं लोहियावादी नहीं हूँ, लेकिन लोहिया को केवल लोहियावादियों के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता, लोहिया सारे देश की अनूठी संपत्ति हैं ….. हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का इतिहास लोहिया जी के जिक्र के बिना अधूरा रहेगा …. जब सारी विचारधाराएं पिट चुकी हैं, सबका अंत हो चुका है चाहे वह मार्क्सवाद हो, समाजवाद हो, सैकुलरिज्म हो, पोस्ट मार्डर्निज्म हो या पोस्ट सेकुलरिज्म हो सारी की सारी थ्योरी फेल हो चुकी है। ऐसे समय में यह संभव है कि हमारे इतिहास के कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो जीने की नयी प्रेरणा दे सकते हैं जिनमें लोहिया जी अग्रणी हैं। जिस प्रकार गांधी जी का दरबार सबके लिए खुला था, उसी प्रकार लोहिया जी का भी दरबार सबके लिए खुला रहता था, शायद यही वजह है कि महात्मा गांधी के बाद हमारी पीढ़ी के लेखकों को अपनी ओर खींचनेवाले लोहिया जी ही थे। हिंदी में एक दौर में जितने अच्छे लेखक थे उनके विचार में समाजवाद का पुट था।
प्रगतिशील विचारों के साहित्यकार राजेन्द्र यादव के शब्दों में लोहिया जी अपने युग के बहुत बड़े नेता, क्रांतिकारी और विचारक थे। वे ऐसे बुद्धिजीवी थे जो चीज़ों को बिलकुल एक अलग नज़रिये से देखते थे, चाहे वे सामान्य चीज़ें हो या इतिहास पुराण की बातें हों।
दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे राजेन्द्र सच्चर के शब्दों में “गांधी जी के बाद जितना आज का ‘डिस्न्ट्रेलाइजेशन है’ उसमें डॉ. साहब का बहुत योगदान है। उन्होंने जो नारा दिया कि “चौखम्बाराज’ गाँव, जिला स्टेट सैंटर। उनका मानना था कि जो ताकतें है वह केंद्र में नहीं होनी चाहिए। इसका विकेंद्रीकरण होना चाहिए और यह नारा था उनका कि हिंदुस्तान की जम्हूरियत और सोशलिज्म को बचाने के लिए ‘चौखम्बाराज’ ज़रूरी है। आप देखेंगे कि उनकी इसी फिलोस्फी को रूस वाले और कम्युनिज्म वाले खुद मान रहे हैं और सबसे पहले बैकवर्ड क्लास को उठाने की कोशिश लोहिया ने ही की थी।”
हिंदुस्तान के बेहद चर्चित लड़ाकू, ख़तरे उठानेवाले, यहाँ तक कि जब श्रीमती इन्दिरा गांधी के हत्यारे की पैरवी करने से बार कौंसिल ने मना कर दिया था तब प्राणनाथ लेखी ने यह कह कर कि पहले दिन काला कोट पहनते हुए जो कसम उठायी थी, उसको निभाने के लिए जो भी लानत-मलानत बहिष्कार को झेलना पड़े पर मैं अपना फर्ज़ निभाऊँगा, उन्होंने लिखा है –
“एक दिन मैं डॉ. लोहिया को मिलने उनके निवास स्थान पर गया। मुझसे उन्होंने पूछा कि क्या तुम्हारी गाड़ी में पेट्रोल है? मैंने उन दिनों नयी-नयी वकालत शुरू की थी। डॉ. लोहिया को ज्ञान था कि जिस तरह मेरी जेब खाली रहती है उसी प्रकार इसकी कार की पेट्रोल की टंकी भी खाली रहती है। मैंने कहा, हाँ, डॉ. साहब गाड़ी में पेट्रोल है बताइए कहाँ चलना है? उन्होंने कहा तिहाड़ जेल। मैंने यह नहीं पूछा कि वहाँ क्यों चलना है। डॉ. लोहिया मेरी गाड़ी में बैठ गये। उनके साथ उनकी महिला मित्र प्रो. रमा मित्रा भी बैठ गयीं। मुझसे कहा कि पहले हनुमान मंदिर चलो, वहाँ पहुँचकर उन्होंने दो टोकरियों में ताजा फल खरीदे, जब दुकानदार से पूछा कि कितने पैसे हुए। दुकानदार ने 25 रुपये बताये। हालाँकि वह ज़माना काफी सस्ता था। लोहिया जी ने अपनी जेब में हाथ डाला तो सिर्फ़ दो रुपये निकले मेरी जेब में भी पाँच रुपये निकले। डॉ. लोहिया ने कहा सात रुपये के फल दे दो बाकी वापिस कर दो। प्रो. रमा मित्रा ने अपने बटुए में से पैसे निकालकर दे दिये, जब हम तिहाड़ जेल पहुँचे तो मैंने पूछा कि सारे फल आप किसके लिए लाये हैं? वे बोले उनके मित्र कम्युनिस्ट पार्टी के नेता श्री ए. के. गोपालन जेल में बंद हैं, ये फल उन्हीं के लिएं हैं। मुझे यह सुनकर एक प्रकार का सदमा पहुँचा, मैंने कहा कि भगवान न करे कभी भारत में कम्युनिस्ट सरकार बने और आपको जेल में डाल दे और गोपालन सत्ता में हों, मुझे पूरा भरोसा है कि वह आपको कभी जेल में मिलने नहीं आएगा, ऐसा करने पर उसका पार्टी में कोई स्थान नहीं रहेगा, हो सकता है उसे अपनी जान भी गँवानी पड़े। मैंने फिर कहा डॉ. साहब आप ऐसे लोगों को क्यों इज्जत देते हो जो आपको वह कभी वापिस नहीं कर सकेंगे। आपकी यह राजनीतिक आदत अच्छी नहीं है। डॉ लोहिया ने कहा कि तुम ठीक कहते हो मैं आज एक राजनीतिक नेता के पास नहीं बल्कि अपने परम मित्र को देखने आया हूँ और मुझे कभी यह अफसोस नहीं होगा कि वही मित्र सत्ता में आने के बाद राजनीतिक कारणों से मुझे देखने न आ सकें।
भारत के राजनैतिक इतिहास में कितने ऐसे राजनीतिक हुए हैं, जिन पर देश-विदेश में मशहूर मुत्तलिफ फनकारों ने उनको नमन किया है।
लोहिया इस मायने में भी बेजोड़ हैं।
दुनियाभर में मकबूल फिदा हुसैन की शोहरत उनकी पेंटिग्स के बल पर है। नंगे पैर चलनेवाला यह कलाकार फिदा हुसैन लोहिया पर कितना फिदा है यह उनकी ही जुबानी सुनिए। ‘डॉ. राममनोहर लोहिया एक असीम ऊर्जा के धनी नायक थे। सन् पचास और साठ के दशक में जब वे हैदराबाद में थे उनके साथ लंबा वक्त बिताने का अवसर मिला। उनका व्यक्तित्व विशाल था वे दूरदृष्टि संपन्न राजनेता थे। मैं उनके साथ सात वर्ष रहा।
हैदराबाद के ढाबे में लोहिया से बहस करते हुए हुसैन ने आधुनिकता की बिल्कुल निराली परिभाषा खोज निकाली, निराला और ठेठ शुद्ध भारतीय परिभाषा ‘मार्डन आर्ट’ का एक मज़ेदार पहलू यह है कि देखने वाला अपनी मर्जी और मिजाज में तस्वीर को ढालने का हक रखता है …. एक लिहाज से मॉडर्न आर्ट का मिजाज अमीराना नहीं ‘डेमोक्रिटिक’ है। जैसे कि देखने में व्यक्तित्व शहाना हो, लकीरों का तनाव खुद्दारी का ऐलान करता हो, रंगों की शोखी स्वाभिमान से संपूर्ण हो।
लोहिया कुछ देर हुसैन को देखते रहे, आधुनिक कला का यह लोकतांत्रिक लोक पक्ष उन्होंने पहली बार देखा था। लोहिया ने हुसैन की पीठ थपथपायी और उत्साह में आकर बोले ‘यह तो ठीक है, लेकिन यह जो तुम बिड़ला और टाटा के ड्राइंग रूम में लटकने वाली तस्वीरों के बीच घिरे हो, इनसे बाहर निकलो। चित्रकला केवल धनी के लिए नहीं है। इस देश के साधारण लोगों के लिए भी बनाया करो। तुम्हारी कला इस देश के साधारण लोगों के लिए होगी तो वे तुम्हें कहीं ज्यादा आदर सम्मान देंगे, उन्होंने मुझसे रामायण और महाभारत के चित्र यह कहते हुए बनवाये कि इस देश में अनेकों पौराणिक चरित्र हैं, तुम उन्हें चित्रित करो लोग पसंद करेंगे। यहाँ लोग छोटे से पत्थर में भगवान ढूंढ़ लेते हैं। चित्र देखकर तो वे और आनंदित होंगे। रामायण को पेंट करो। इस देश की सदियों पुरानी कहानी है ….. गाँव-गाँव इसका गूँजता गीत है संगीत है।
जिस तरह आधुनिक कला की परिभाषा सुनकर लोहिया सकते में आ गए थे, उसी तरह रामायण के बारे में लोहिया का कथन हुसैन को ‘तीर की तरह चुभ गया’ बरसों तक वह उसके बारे में सोचते रहे। हुसैन लिखते हैं, लोहिया की सलाह पर मैंने आठ साल रामायण के आधार पर डेढ़ सौ चित्र कैनवास पर बनाये।
यह काम मैंने ऐसे ही नहीं शुरू कर दिया था। मैंने बाक़ायदा काशी के पंडितों को आमंत्रित कर उनसे विषय पर चर्चा की। वाल्मीकि एवं गोस्वामी तुलसीदास की रामायण को लेकर गहन अध्ययन किया तब कहीं जाकर चित्र बनाये। कालजयी चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के इन चित्रों को ‘हुसैनी रामायण’ के नाम से जाना जाता है, आज इसकी कीमत करोड़ों डॉलरों में है परंतु हुसैन ने कोई दाम नहीं माँगा, सिर्फ़ लोहिया का मान रखा।
हुसैन ने लिखा है कि बड़े अफसोस की बात है कि ऐसा राजनेता बहुत जल्दी हमारे बीच से चला गया। अगर वे कुछ दिन और रहते तो देश का काफी भला होता। आज हम कहाँ से चलकर कहाँ पहुँच गये हैं। चाहे गाँव हो या शहर, लोग अपनी संस्कृति अपने मूल्य भूलते जा रहे हैं। आज के नेता का भी ध्यान न तो देश पर है और न देशवासियों पर। नेता तो बस अपनी तिजोरी भरने में व्यस्त है। ऐसे में मुझे डॉ. लोहिया की कमी काफी खलती है।
(जारी)