1. आशंका
जहाँ-तहाँ गड़बड़झाला है,
जाने क्या होने वाला है!
रंग बदलते कानूनों के, तेवर बदल गये,
सीमाओं से बाहर आखिर, रिश्ते निकल गये,
अधिकारों के नंगे चेहरे,
आतंक बना रखवाला है।
फूँक रहे मूल्यों की पोथी, हक-पद भूल गये,
आजादी के बाद नशे में, जैसे झूल गये,
भक्त बने सत्ता के भूखे,
लोकतंत्र की मधुशाला है।
उखड़ी-उखड़ी जली कटी, बिगड़ीं घर की बातें,
चकमे खाकर दिन लौटे, बेकही-सुनी हैं बातें,
प्रतिशोधों के हवन-कुंड में
स्वारथ की जलती ज्वाला है।
चिकने-चिकने रंग-रूप से, करतूतें हैं काली,
टूट रहे संयम कमरे में, अनुशासन है जाली,
‘सारनाथ’ से ‘राजघाट’ तक,
करुणा को देश निकाला है।
2. भक्त देश के
मुँह खाता है
आँख लजाती है,
ये कितने निर्लज्ज भक्त हैं देश के।
पानी से बेपानी ऐसे
पानी-पानी होते जैसे,
डूबे हैं आकंठ पाप में
हथकंडे हैं कैसे-कैसे,
खुद को कहते
खुद को सुनते हैं,
चलते-फिरते प्रेत भक्त हैं देश के।
पब्लिक को बस टा-टा करते
ठूँस-ठूँस कर जेबें भरते,
अनुरागी, बागी, त्यागी हैं
आपस में ही कटते-मरते,
मीठे-मीठे
बोल बोलते हैं,
दंगों में मिल गये भक्त हैं देश के।
उल्टी-सीधी बातें करते
गला दबाते कभी न डरते,
जनता से, जनता के द्वारा
जनता के ही लिए जनमते,
सुख-सुविधा के
भोगी जीवन के,
खाते हैं जो देश भक्त हैं देश के।
3. उनसे क्या रोना है
स्वागत में उनके हैं, सजे हुए रास्ते,
हम केवल झंडियाँ दिखाने के वास्ते।
खुशी हुई इतनी कि बाँसों हम
उछल गये,
चेहरे कुछ अनायास वक्त पर
बदल गये,
समझौतावादी हैं, ये गाँधीवादी हैं,
अपने मुँह आप बड़ी शेखियाँ बघारते।
जिनका दिल पत्थर है उनसे क्या
रोना है,
सबके सब पीतल हैं, खरा वही
सोना है,
सुविधाएँ हैं खड़ी, द्वार पर बड़ी-बड़ी,
चमचों की क्या कमी खाँसते-खँखारते।
कुरसी उन हाथों की कठपुतली
है बनी,
दंगा, हत्याएँ जो करवाते
अनमनी,
आश्वासन, भाषण पर, देश योग-आसन पर,
साहब, बस आसमान पर चक्कर कटते।
समता इन को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
सुरेन्द्र वाजपयी जी की आपने तीन अच्छी रचना प्रकाशित की।
धन्यवाद!