— क़ुरबान अली —
उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल से लेकर बीसवीं सदी की शुरुआत तक भारत ने कई महान सपूत पैदा किये जो न सिर्फ अपने देश की आजादी के लिए लड़े बल्कि जिन्होंने तमाम तरह के शोषण के खिलाफ़ और समतामूलक समाज बनाने में अपने आप को होम कर दिया। ऐसे ही एक महान सपूत और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे आचार्य नरेंद्रदेव। विलक्षण प्रतिभा के धनी भारत के प्रमुख शिक्षाविद , पत्रकार , साहित्यकार, विधायक एवं सांसद रहे आचार्य नरेंद्रदेव की आज (31 अक्तूबर) 128वीं जयंती है। आचार्य नरेंद्रदेव को भारतीय समाजवाद का पितामह कहा जाता है। वे सही मायनों में भारतीय समाजवाद के पितामह थे। बहुत ही सौम्य व्यक्तित्व, शालीन आचरण और प्रांजल भाषा, चेहरे से टपकती ममता, करुणा और प्यार। सादगी की ऐसी प्रतिमूर्ति कि जो एक बार उनके संपर्क में आया वो हमेशा के लिए आचार्य जी का होकर रह गया और आचार्य जी उसके।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब महात्मा गांधी की आँख के तारे आचार्य जी ने कहा कि केवल गांधीजी की अहिंसक विचारधारा और शांतिपूर्ण तरीक़ों से देश आजाद नहीं हो सकता और इसके लिए हिंसा तथा उग्रवाद का समर्थन किया। लेकिन तब भी आचार्य जी की भाषा आक्रामक नहीं हुई और गांधीजी के प्रति उनमें कोई तल्खी नहीं आयी। देश को स्वतंत्र कराने का जुनून उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में खींच लाया और भारत की आर्थिक दशा व गरीबों की दुर्दशा ने उन्हें समाजवादी बना दिया। हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, बांग्ला, संस्कृत, प्राकृत, पाली, जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषाओं के जानकार आचार्य जी का अध्ययन अत्यंत विशाल था और अध्यापन शैली अत्यंत सरल।
1911 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए, 1913 में बनारस के क्वीन्स कॉलेज से एमए और 1915 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एलएलबी करने के बाद आचार्य जी ने फै़जाबाद (उ.प्र.) में अपने पिता की तरह वकालत शुरू की। इसी के आसपास वे राजनीति और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति आकर्षित हुए। लोकतांत्रिक समाजवाद के सिद्धांतकार आचार्य नरेंद्रदेव राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ चिंतक और मनीषी भी थे। बाल गंगाधर तिलक और योगी अरविंद के संपर्क में आने के बाद वे भारत की स्वाधीनता के लिए समर्पित हो गये। उनके चिंतन पर स्वामी रामतीर्थ, श्रीमती एनी बेसेंट और मदन मोहन मालवीय का भी गहरा असर पड़ा। 1920 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने वकालत छोड़ दी। राजनीति के साथ-साथ वे इतिहास, समाजशास्त्र और शिक्षाशास्त्र के भी विद्वान थे। सच्चे अर्थों में वे एक शिक्षक ही थे। पं. जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वे काशी विद्यापीठ में 1921 में अध्यापन करने लगे और बाद में उसके कुलपति भी बने।
विद्यापीठ में सेवाकाल को अपनी अक्षुण्ण पूँजी स्वीकार करते हुए, उन्होंने अपने ‘संस्मरणों‘ में लिखा है, “मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियाँ रही हैं – एक पढ़ने-लिखने की और, दूसरी राजनीति की; और इन दोनों में संघर्ष रहता है। यदि दोनों की सुविधा एकसाथ मिल जाए तो मुझे बड़ा परितोष रहता है और यह सुविधा मुझे विद्यापीठ में मिली। इसी कारण वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा है जो विद्यापीठ की सेवा में गुजरा। अपनी जिंदगी पर एक निगाह डालने से मालूम होता है कि जब मेरी आँखें मुँदेंगी तो मुझे एक परितोष होगा कि जो काम मैंने विद्यापीठ में किया वह स्थायी है।”
काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के बाद वे 1947 से 1951 तक लखनऊ विश्वविद्यालय और 1951 से 1953 तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। एक अध्यापक के तौर पर वे मार्क्सवाद और बौद्ध दर्शन की ओर उन्मुख हुए। महात्मा गांधी का सान्निध्य उनके लिए युगांतकारी सिद्ध हुआ और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वे कई बार जेल गये। वे समाजवाद के सूत्रधार बने और उसके सिद्धान्त के रचनाकार। आचार्य जी, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के साथ समाजवाद का त्रिभुज कहे जाते थे। 1934 में आचार्य जी ने जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया तथा अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की और उसके पहले सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये। कांग्रेस से बाहर आने पर 1949 में सोशलिस्ट पार्टी का जो सम्मेलन पटना में हुआ उसकी अध्यक्षता भी आचार्य जी ने ही की। समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्रदेव का वही स्थान रहा है जो एक परिवार में मुखिया का होता है।
समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार हेतु उन्होंने लखनऊ से ‘संघर्ष’ (साप्ताहिक) पत्रिका का संपादन किया और ‘जनवाणी’ के जरिए शिक्षण पद्धति और शिक्षकों की स्थिति का विवेचन किया। आचार्य जी ने ‘विद्यापीठ’ त्रैमासिक पत्रिका, ‘समाज’ त्रैमासिक और ‘समाज’ साप्ताहिक पत्रों का संपादन भी किया। इनमें जो लेख, टिप्पणियाँ वगैरह समय-समय पर प्रकाशित हुए उनके संग्रह हैं : राष्ट्रीयता और समाजवाद, समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन (भाषण संग्रह), राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास, समाजवाद और राष्ट्रीय क्रांति, सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास, युद्ध और भारत, किसानों का सवाल, आदि। इसके अलावा उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार और नयी संस्कृति के आह्वान के लिए संपादक का दायित्व ओढ़ते हुए राष्ट्रीय पत्रकारिता को भी गति प्रदान की। वे ‘जनवाणी’, ‘संघर्ष’, ‘जनता’, ‘समाज’ आदि पत्रिकाओं के संपादन और प्रकाशन से भी जुड़े रहे।
बौद्धदर्शन के अध्ययन में आचार्य जी की विशेष रुचि रही है। नैतिक व्यवस्था की स्थापना में नरेंद्रदेव जी धर्म की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानते थे, इसलिए उन्होंने धार्मिक शिक्षा को भी महत्त्वपूर्ण माना। आजीवन वे बौद्धदर्शन का अध्ययन करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘बौद्ध-धर्म-दर्शन’ग्रंथ लिखकर उन्होंने पूरा किया। ‘अभिधर्मकोश’ भी प्रकाशित कराया। ‘अभिधम्मत्थसंहहो’ का हिंदी अनुवाद भी किया। प्राकृत तथा पालि व्याकरण हिंदी में तैयार किया। बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माण भी उन्होंने शुरू किया था। अपने जीवन के अंतिम दिनों में आचार्य जी ने पेरुंदुराई में एक व्याख्यात्मक कोश भी बनाया था, किंतु उनके आकस्मिक निधन से यह काम पूरा न हो सका।
इतिहास, दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीति, संस्कृति, भाषा आदि के संदर्भ में उनकी अपनी विशिष्ट सोच थी। उनकी बौद्धिक प्रखरता और पांडित्य से प्रभावित होकर ही उनके एक अन्यतम साथी श्रीप्रकाश ने उन्हें ’आचार्य‘ कहना शुरू कर दिया।उनकी समस्त रचनाओं का संकलन तीन खंडों में प्रकाशित हुआ है। हिंदी में पाठ्य पुस्तकों की कमी को देखते हुए, उन्होंने अमरीका, रूस, इंग्लैंड, इटली आदि देशों का इतिहास भी लिखा। उत्तर-प्रदेश शासन ने 1937 में गठित शिक्षा-सुधार समिति का उन्हें अध्यक्ष नियुक्त किया था। उनके शिष्यों में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी और सोशलिस्ट नेता राजनारायण तथा चंद्रशेखर थे। चंद्रशेखर तो आचार्य जी की प्रेरणा से ही राजनीति में आए और अंत तक उन्हें अपना गुरु मानते रहे। एक अध्यापक , चिंतक, मनीषी और समाजवादी नेता के रूप में आजादी के आंदोलन और राष्ट्र निर्माण में आचार्य जी का अप्रतिम योगदान है।
राजनीति के अलावा, दूसरी प्रवृत्ति, उन्हीं के शब्दों में, “लिखने पढ़ने की ओर” रही है। इस दिशा में आचार्य नरेंद्रदेव जी का योगदान अत्यंत महत्त्व का है। विद्यापीठ के द्वारा पिछले वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में जो महत्त्व का काम हुआ है, उसकी आज भी, जबकि राष्ट्रीय शिक्षाप्रणाली की खोज ही चल रही है, विशेष उपयोगिता है। काशी विद्यापीठ के अध्यापक, आचार्य और कुलपति की हैसियत से आपने अपनी विद्वत्ता, उदारता और चरित्र के द्वारा अध्यापन और प्रशासन का जो उच्च आदर्श कायम किया, वह अनुकरणीय है।
आचार्य जी मूलतः मार्क्सवादी समाजवादी थे और चिंतन-पद्धति के रूप में मार्क्सवाद को मानते थे। आचार्य जी ने एक मौके पर कहा भी कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं पर मार्क्सवाद नहीं। वे मार्क्सवाद और भारत की पराधीन दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई विरोध नहीं देखते थे। वैसे ही वे किसान और मजदूरों की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, परस्पर पूरकता देखते थे। वे कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने काफी समय किसान राजनीति को दिया। किंतु वे बराबर कहा करते थे कि इस युग की दो मुख्य प्रेरणाएँ राष्ट्रीयता और समाजवाद हैं और राष्ट्रीय परिस्थितियों और आकांक्षाओं की दृष्टि से ही समाजवाद का अर्थ करने पर जोर देते रहे। भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना, आचार्य जी की भारतीय समाजवाद को एक स्थायी देन है।
पर आचार्य जी की समाजवादी व्याख्याएँ मानववादी आधारों पर विकसित हुईं। उन्होंने साम्यवादियों की तरह इसके अंतर्गत केवल पेट का सवाल नहीं उठाया। उन्होंने कहा, “समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है, समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है।….एक स्वतंत्र-सुखी समाज में संपूर्ण मनुष्यत्व की सृष्टि तभी हो सकती है जब साधन भी हों।” उन्होंने अतीत के अनुभव के आलोक में ही वर्तमान को देखा और इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र तथा साहित्य के विविध विषयों पर अधिकारपूर्वक कलम चलायी। उन्होंने उसी साहित्य को प्रगतिशील माना, जो जीवन को केंद्र में रखकर चलता हो।
अपनी पुस्तक ‘समाजवाद : लक्ष्य और साधन’ में वे कहते हैं, ‘‘समाजवाद का ध्येय वर्गहीन समाज की स्थापना है। समाजवाद प्रचलित समाज का इस प्रकार का संगठन करना चाहता है कि वर्तमान परस्पर विरोधी स्वार्थ वाले शोषक और शोषित, पीड़क और पीडि़त वर्गों का अंत हो जाए; वह सहयोग के आधार पर संगठित व्यक्तियों का ऐसा समूह बन जाए जिसमें एक सदस्य की उन्नति का अर्थ स्वभावतः दूसरे सदस्य की उन्नति हो और सब मिल कर सामूहिक रूप से परस्पर उन्नति करते हुए जीवन व्यतीत करें।’’ (‘समाजवाद : लक्ष्य और साधन’ से उद्धृत)
आचार्य जी राजनीतिक रूप से कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी-प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय रहे। 17 मई 1934 को पटना में संपन्न हुए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता भी उन्होंने ही की थी। इस अवसर पर अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने कहा :
“समाजवाद अब इस देश में स्थायी रूप से आ गया है और कांग्रेस के साथ-साथ देश में दिन-प्रतिदिन ताकत और प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है। इस नयी विचारधारा का सामाजिक आधार जो कांग्रेस में सामने आया है, वह है लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी वर्ग। कांग्रेस के बाहर इसके अनुयायियों में श्रमिकों के प्रतिनिधि और बहुत हद तक किसान हैं जो साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के वास्तविक क्रांतिकारी तत्त्वों का गठन करते हैं। वस्तुत: मजदूर वर्ग उसका हरावल दस्ता है जबकि किसान और बुद्धिजीवी वर्ग उसके सहायक हैं। आज कांग्रेस में हम में से अधिकांश केवल बौद्धिक समाजवादी हैं, लेकिन राष्ट्रीय संघर्ष के साथ हमारे लंबे जुड़ाव ने हमें बार-बार जनता के साथ घनिष्ठ संपर्क में लाया है, ऐसा लगता है कि हमारे सिद्धांतों में गिरावट का कोई खतरा नहीं है। हमें मजदूरों और किसानों को अपने पाले में लाकर अपने आंदोलन के सामाजिक आधार को व्यापक बनाने का प्रयास करना चाहिए। मुझे आशा है कि हम शिक्षित वर्गों को समाजवादी विचारों से परिचित कराने से संतुष्ट होंगे। मैं समाजवादी अध्ययन मंडलों के गठन और भारतीय भाषाओं में समाजवादी साहित्य के एक निकाय के निर्माण के महत्त्व को कम नहीं करता। यह अच्छा काम है और सबसे जरूरी भी। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे सामने वास्तविक कार्य जनता की राजनीतिक शिक्षा, उनके बीच आर्थिक मुद्दों पर दिन-प्रतिदिन आंदोलन करना और उनके संगठन को राजनीतिक रूप से जागरूक वर्ग में ले जाना है। जनता के बीच काम करके ही हम प्रतिक्रियावादी प्रभावों से खुद को मुक्त कर सकते हैं और सर्वहारा दृष्टिकोण विकसित करने में सक्षम हो सकते हैं। हम बुद्धिजीवी वर्ग के सदस्यों की बड़ी गलती यह है कि हम जनता को सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं लेकिन उनसे सीखने के लिए कभी तैयार नहीं होते। मन का यह रवैया गलत है। हमें उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए और उनकी इच्छाओं और जरूरतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए।”
साथ ही आचार्य नरेंद्रदेव ने अपने नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू को बहुत ही प्यार से याद किया और उन्हें अपनी सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने कहा : “दोस्तो, आज हम कांग्रेस के भीतर समाजवादी आंदोलन के पहले सैल की स्थापना कर रहे हैं। हमारे महान नेता (पं. जवाहरलाल नेहरू) की अनुपस्थिति में, हमारा यह कार्य अत्यंत कठिन हो गया है। हम नहीं जानते कि हम कब तक उनकी बहुमूल्य सलाह, मार्गदर्शन और नेतृत्व से वंचित रहेंगे। मुझे विश्वास है कि वह कांग्रेस के भीतर इस नयी पार्टी के जन्म से प्रसन्न होंगे और जेल की सलाखों के पीछे से वह हमारी प्रगति को गहरी दिलचस्पी से देख रहे होंगे। उनके महान उदाहरण हमें उनकी कैद की अवधि के दौरान प्रोत्साहित और प्रेरित करते हैं और आइए हम इस आश्वासन के साथ आगे बढ़ें कि हम जिस उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करते हैं वह अंत में विजयी होगा।”
1936 के उनके एक भाषण का अंश है : ‘‘हमारा काम केवल साम्राज्यवाद के शोषण का ही अंत करना नहीं है किंतु साथ-साथ देश के उन सभी वर्गों के शोषण का अंत करना है जो आज जनता का शोषण कर रहे हैं। हम एक ऐसी नयी सभ्यता का निर्माण करना चाहते हैं जिसका मूल प्राचीन सभ्यता में होगा, जिसका रूप-रंग देशी होगा, जिसमें पुरातन सभ्यता के उत्कृष्ट अंश सुरक्षित रहेंगे और साथ-साथ उसमें ऐसे नवीन अंशों का भी समावेश होगा जो आज जगत में प्रगतिशील हैं और संसार के सामने एक नवीन आदर्श रखना चाहते हैं।’’ (आचार्य नरेंद्रदेव वाड्ंमय, खंड 1)
आचार्य जी के गंभीर अध्येता अनिल नौरिया ने माना है कि, ‘‘आचार्य नरेंद्रदेव के विचारों की सबसे बड़ी सार्थकता व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का समाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी प्रक्रिया के साथ संवर्द्धन कऱने में है। उनका सामाजिक परिवर्तन के नैतिक पक्ष पर आग्रह जहाँ भारतीय दृष्टि से जुड़ा है, सामाजिक शक्तियों के वैज्ञानिक विश्लेषण का आग्रह मार्क्सवादी दृष्टि से। वे निश्चित रूप से मार्क्सवाद की बोल्शेविक धारा में विकसित नैतिकता-निरपेक्ष प्रवृत्ति के विरोधी थे।’’ (आचार्य नरेंद्रदेव बर्थ सेंटेनरी वोल्यूम)
(जारी)
आचार्य नरेंद्र देव सम्पूर्ण वांग्मय को किस प्रकाशक ने छापा है? और (आचार्य नरेंद्रदेव बर्थ सेंटेनरी वोल्यूम) क्या अंग्रेजी में छपी है? कृपया बताएं