— राजेन्द्र राजन —
मेरे एक पड़ोसी हैं। पेशे से वकील। व्यस्तता, कामयाबी और पैसा उन्हें घेरे रहते हैं। उनके घर में एक मंदिरनुमा कोना है जहाँ कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित हैं। कोई पंडितजी उन मूर्तियों की नियमित रूप से विधिपूर्वक पूजा-अर्चना किया करते थे, जिसके बदले में वकील साहब से उन्हें कुछ पारिश्रमिक मिलता था। किसी कारण पंडितजी इस ‘नौकरी’ को छोड़ गये। तब से उक्त वकील साहब को अपने घर की मूर्तियों की पूजा-अर्चना की चिंता हो आयी है। एक दिन उन्होंने मुझसे कोई पुजारी दिलाने का आग्रह किया। मुझे उनकी समस्या बहुत अजीब लगी। ईश्वर है या नहीं, आस्तिक ठीक कहते हैं या नास्तिक, ये विवाद युगों पुराने हैं और हमेशा बने भी रहेंगे। मगर किसी ऐसे आदमी के लिए, जो ईश्वर या देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में विश्वास करता है, उचित और स्वाभाविक यही जान पड़ता है कि वह खुद पूजा-अर्चना करे। वकील साहब की फरमाइश के जवाब में मैंने कहा भी, ‘आप अपने देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना खुद क्यों नहीं करते?’ उनका जवाब था, ‘क्या करें, समय ही नहीं मिलता।’
उक्त वकील साहब का समय एक कामयाब, खासकर पैसे की दृष्टि से कामयाब आदमी का समय है। ऐसे ही लोगों के लिए ‘टाइम इज मनी’ का जुमला लागू होता है। ऐसा नहीं है कि वकील साहब अपने आराध्य के लिए समय निकाल ही नहीं सकते, मगर समय निकालने पर इसकी जो आर्थिक कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी उसे चुकाना नहीं चाहते। आजक की दुनिया में अधिकांश व्यस्तता का यही राज़ है। ज्यादातर व्यस्त लोगों की व्यस्तता के पीछे पैसे की माया है। यह माया उनकी आस्था के लिए भी समय निकाल पाने से उन्हें रोकती है। हमारी दुनिया में कुछ धंधे ऐसे हैं जिनमें कामयाबी का मतलब है कि फिर पैसा बहुत तेजी से आता है। ऐसे लोगों को अपनी आस्था के लिए भी समय निकालना बहुत महँगा सौदा मालूम पड़ता है। पर अपनी आस्था को वे छोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि सच तो यह है कि उनकी आस्था उनकी माया का ही एक रूप है। इनके लिए आराधना-प्रार्थना का एक ही उद्देश्य है- सांसारिक सफलताओं के लिए दैवीय कृपा का प्रबंध करना। पूजा या प्रार्थना कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे किसी के बदले में किसी कोई दूसरा करे, लेकिन जब वह महज प्रबंध में बदल जाती है तब वह भले ही निरर्थक हो, उसका जिम्मा आसानी से औरों को सौंपा जा सकता है।
धनी-मानी और कामयाब लोग- जिनका समाज के अधिकतर लोग अनुकरण करने की कोशिश करते हैं- कैसी-कैसी विडंबनाओं के शिकार रहते हैं इसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। घरेलू नौकर और ड्राइवर की तरह वे पारिश्रमिक पर पुजारी भी रखना चाहते हैं। सोचते हैं कि पूजा-अर्चना भले इनके पुजारी करेंगे, मगर दैवीय कृपा उनपर बरसेगी। क्योंकि पूजा के मालिक तो आखिर वे हैं! पूजा का व्यय उनका है, पुजारी जी तो नौकर मात्र हैं! धार्मिक नौकर। उनके लिए पूजा-अर्चना करने को राजी या विवश।
कुछ लोग जो जीवन के किसी क्षेत्र में सफल हो जाते हैं, जरूरी नहीं कि बाकी मामलों में भी समझ या बुद्धिमत्ता का परिचय दें। क्या ईश्वर का स्मरण या प्रार्थना कोई ऐसी चीज है जिसे हमारे बदले में कोई दूसरा कर सकता है? क्या भक्त अपनी भक्ति किसी और को सौंप सकता है? क्या प्रेमी की जगह कोई और ले सकता है? अगर ऐसा हो सकता है तो फिर यह भी हो सकता है कि ज्ञान की साधना कोई और करे और ज्ञानी हम हो जाएं! ऊपर के उदाहरण से यह न समझें कि धार्मिक मूढ़ता कुछ ही लोगों तक सीमित है, यह तो अधिकांश समाज में फैली हुई है। कुछ लोगों की स्थिति भिन्न बस इस मायने में है कि वे अपनी आर्थिक हैसियत की बदौलत वेतन पर नियमित पुजारी रख सकते हैं। वरना लगभग सारे समाज की धार्मिक आस्था सिकुड़ कर या बिगड़ कर बस इसी भूमिका में रह गयी है कि वह सांसारिक सफलताओं की खातिर देवी-देवताओं की कृपाएँ प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के अनुष्ठानों को आजमाए।
धर्म, जो सांसारिकता से परे जाने का माध्यम था, सांसारिक स्वार्थों के पूरा होने की कसौटी पर कसा जाने लगा है। उसी का धरम-करम, पूजा-पाठ सफल और सार्थक है जिसके दुनियावी काम बन जाएं। भक्तिकाल के दो धार्मिक सबक अत्यंत मूल्यवान हैं। भक्तिकाल ने यह सिखाया कि भक्ति अपने आप में मूल्यवान है, वह कोई सांसारिक हेतु सिद्ध करने के लिए नहीं है। भक्तिकाल का दूसरा महत्त्वपूर्ण सबक यह है कि ईश्वर और भक्त, आराध्य और आराधक के बीच किसी एजेंट या बिचौलिये की जरूरत नहीं है, यानी किसी महंत, पुरोहित या अनुष्ठान आयोजक की जरूरत नहीं है। एक तरह से भक्तिकाल ने धर्म को संगठित तंत्र बनाने के बजाय उसे वैयक्तिक बनाने का संदेश दिया। शायद भक्तिकाल की यही सबसे बड़ी प्रासंगिकता है। धार्मिक मूढ़ता के इस दौर में हम चाहें तो उससे कुछ सीख सकते हैं।