— मंथन —
युवा जब प्रेरित हो, अपने सोच और कर्म के लिए स्वतंत्र हो तो क्या कुछ कर सकता है, यह छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का इतिहास बखूबी बता जाता है। शायद ही अन्य किसी युवा संगठन ने इसकी बराबरी के काम किये हों। कुछ मायने में तो उम्रमुक्त लेकिन सही अर्थों में पकती उम्र के क्रांतिकारी संगठनों से भी ज्यादा गहरी और मौलिक विरासत इस स्वतंत्र युवा संगठन ने बनायी। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि भूमि मुक्ति और मुक्त भूमि पर महिला स्वामित्व की उपलब्धि युवा संगठन के नेतृत्व और संचालन के कारण ही संभव हुई। अधिकांश पकती उम्रें चली आ रही बातों और चीजों की अभ्यस्त होती जाती हैं, नयी जिद्दी उम्मीदों से ज्यादा अनुभव से सनी आदतें उन्हें चालित करती हैं।
हर पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को थोड़ा कम जिम्मेदार बताती है। हम सब भी जाने-अनजाने इसी लीक पर हैं। कुछ तो स्वाभाविक है। उम्र का तकाजा है। आज के युवाओं की क्रांतिकारी सामूहिकता के मसले पर भी हम इसी तरह से सोचते हैं। अकसर सुनते हैं, कहते हैं कि आज युवा संगठनों से नहीं जुड़ रहा, देश-समाज के लिए कुछ नहीं कर रहा, कैरियरजीवी हो गया है, इंटरनेटजीवी हो गया है।
यह सच है कि पारंपरिक किस्म के संगठनों की सामूहिकता में युवा अब काफी कम आ रहे हैं। किन्तु यह कहना कि युवा में देश व समाज को बदलने की ललक और क्षमता कम हो गयी है, शायद सही नहीं होगा। इस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए नौजवानों को जितनी गहराई से परखना चाहिए, हमने नहीं परखा है। हम अपने सामने सही प्रश्न नहीं रखते और तेजी से बदल रहे युवा मानस को पुरानी कसौटियों पर कसकर अपना फैसला सुना देना चाहते हैं।
याद करें तो पाएंगे कि हम सब भी अपने युवा काल में पूरे युवा समाज की एक क्षीण संगठित धारा ही थे। हाँ आज हमारी विरासत में उसका भी काफी छोटा हिस्सा ही बचा है, जिसका अंत अवश्यंभावी सा लगता है। सांगठनिक रूप से वंशविहीन हो जाने की व्यग्रता ही हमें इस विषय पर बार-बार सोचने को बाध्य करती है।
जाहिर है, हम युवा सामूहिकता यानी एक तरह से युवा संगठन की बात कर रहे हैं। यहाँ हमें संगठन की युक्ति की बुनियादी बातों पर गौर करना चाहिए। विचार-विश्लेषण, आंदोलन निर्माण और संगठन निर्माण व विस्तार, तीनों एक दूसरे से जुड़ी लेकिन अलग अलग प्रक्रियाएँ हैं। विरले ही ये तीनों दक्षताएँ किसी एक व्यक्ति और नेतृत्व समूह में मिलती हैं। अच्छा विचारक, अच्छा आन्दोलन करनेवाला व्यक्ति जरूरी नहीं कि अच्छा संगठनकर्ता भी हो। अच्छे विचारक और सूत्रकार अकसर अच्छे संगठक नहीं होते। इसमें तो इतना सूक्ष्म अंतर है कि जरूरी नहीं कि संगठन बनाने और चलाने के हरेक छोटे पहलू को समझ पानेवाला व्यक्ति भी कुशल संगठनकर्ता हो।
कुशल संगठनकर्ता होने के लिए लोगों से जुड़ने, लोगों को जोड़ने, जुड़ रहे लोगों से से नियमित सम्पर्क रखने तथा उन सबको नियमित बैठकों या मेलजोल की अन्य गतिविधियों से सामूहिकता में बाँधने का हुनर और दिलचस्पी होना जरूरी है। त्रासदी है कि इन तीनों क्षमताओं के विकास का कोई नियोजित सिलसिला नहीं चलता। शायद ही किसी संगठन के पास संगठन-क्षमता वाले व्यक्तियों को विशेष तौर पर चिह्नित करने और इस क्षमता के कारण उन्हें नेतृत्व में शामिल करने की विशेष दृष्टि होती है।
अकसर संगठन में अच्छा सोचनेवाले और उससे भी ज्यादा अच्छा लिखने और बोलनेवालों का नेतृत्व होता है। हम विचार को ही सब कुछ मान लेते हैं। विचार में ही सब निहित मान लेते हैं। क्रांतिकामी संगठनों में तो ऐसा खासकर चलता है। गैर-क्रांतिकारी आम संगठनों में भीड़ जुटानेवालों की चलती है। वहाँ विचारक लोग प्रवक्ता या प्रचार सामग्री लेखक से ज्यादा नहीं होते। और वैचारिक प्रक्रिया के अभाव में जुटी भीड़ बिखरती जाती है। भीड़ जुटानेवालों की आपसी होड़ में सामूहिकता टूटती चली जाती है या रहने पर भी विश्वसनीय और सार्थक नहीं रह पाती। यानी दोनों जगह अंसतुलन और अधूरापन है। इसे विशेष प्रयास से दूर करने की जरूरत है।
इस संकट या खालीपन को दूर करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि युवाओं के मूड और दिलचस्पी में मौजूद सकारात्मक परिवर्तन के तत्त्वों को पहचाना जाय। युवाओं से संवाद करने और उन्हें संगठित करने में समर्थ एवं रुचिशील लोगों को चिह्नित कर उन्हें इस काम में जोड़ा जाय। इसके लिए अपनी शब्दावली के आरोपण से बचना होगा। युवाओं में प्रचलित शब्दावली और तकनीक को जानना–सीखना होगा। उसी शब्दावली और तकनीक में परिवर्तन की अंतर्वस्तु जोड़कर युवाओं से रिश्ता बनाना होगा।
क्रांतिकारी अंतर्वस्तु के मसले पर भी थोड़ा गौर करना होगा। हम सब आज से आज को कदम दर कदम सुधारते हुए बढ़ने की जगह पूरा बदल डालने की शब्दावली में ही परिवर्तन या क्रांति को समझाने के आदी हैं। यहाँ वर्तमान और भविष्य के साथ जुड़ाव की मानसिकता को समझने की बात है।
कुछ लोगों को खासकर उन्हें जिन्हें अपना वर्तमान तत्काल बदलता, अच्छा होता नहीं दिखता, बदलाव की बातें बहुत कम आकर्षित करती हैं। और एक मानसिक दौर के बाद जब करती भी हैं तो भविष्य बदलने की बात उन्हें ज्यादा आकर्षित करेगी, इसी की ज्यादा उम्मीद है। कुछ लोगों को आज को ही अच्छी तरह जीने, आज संभव मसलों पर ही कुछ करने में ज्यादा दिलचस्पी होती है। मुझे लगता है कि आज के युवा का आम मानस बीते कल के युवा के औसत मानस से भिन्न है। वह ज्यादा फास्ट चाहता है, तत्काल चाहता है। वह ज्यादा क्षणजीवी, वर्तमानजीवी है। वह लम्बी धीमी योजना में खपने, दीर्घकालिक मसलों पर आंदोलन खड़ा करने से ज्यादा तात्कालिक मुद्दों पर रियेक्ट करता है। आंदोलन बनाने से ज्यादा अचानक उमड़ रहे आंदोलनों में कूदता है।
युवापन की खास दिलचस्पियाँ होती हैं। हमारे वक्त में भी थीं। सिनेमा, खेल, तरह-तरह के डांस, नये-नये किस्म के गाने, फैशनबाजी, जोश और उल्लास की हंगामेबाजियाँ आदि। क्रांतिकारी अमूमन इनसे दूर होते हैं या होते जाते हैं। बहुतों को तो इनमें भटकाव और अपगमन भी लगता है। इन विषयों पर क्रांतिकारी संगठनों की तो क्या किसी भी संगठन का कोई नीति और कार्यक्रम नहीं है। जबकि सच यह है कि युवाओं का, वंचित तबकों के लोगों के जीवन का बड़ा समय इनमें ही गुजरता है। इन विषयों, इन कार्यों पर अपनी समझ, नीति, रणनीति एवं कार्यक्रम बनाने की जरूरत है। इन सबकी ज्यादा सकारात्मक और अर्थपूर्ण गतिविधियों के रूप गढ़ने होंगे। उनमें युवाओं को शामिल करना होगा। इससे ज्यादा अच्छा यह कहना होगा कि ऐसी गतिविधियों में शामिल युवाओं के साथ जुड़कर इन्हें ज्यादा सकारात्मक, अर्थपूर्ण और सामूहिक बनाना होगा।
शिक्षा और रोजगार के प्रश्न युवाओं की पूरी जिन्दगी और भविष्य से गहरे जुड़े हैं। हमको लगता है कि अपने मन से अपनी जिन्दगी तय करने, चुनने, जीने की आजादी का सूत्र युवाओं के लिए बहुत ही आकर्षक और प्रेरक हो सकता है।
सबको अपने मन, अपने निर्णय से जीने की आजादी लायक माहौल और व्यवस्था होनी चाहिए। पढ़ाई, रोजगार, शौक, शादी, पहचान सबकुछ अपनी दिलचस्पी और क्षमता के मुताबिक हो सके, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। इस केन्द्रीय मान्यता के इर्दगिर्द नारे और कार्यक्रम गढ़कर युवाओं को अच्छी संख्या में जोड़ा जा सकता है। और उन्हें शिक्षा, रोजगार, खेल, कला, प्रेम, अपने मन से जीने की आजादी जैसे प्रश्नों पर खुद गहराई से सोचने को प्रेरित किया जा सकता है।
इसके लिए बोलने पर संयम और ज्यादा सुनने का स्वभाव विकसित करना उपयोगी होगा। युवाओं के साथ बैठकर उनकी सुनें, बीच-बीच में अपनी भी कुछ कहें, ऐसे कहें इतनी भर कहें कि वह उपदेश न लगे, उनके मिजाज से बेमेल न लगे। इस शैली को साधना होगा।
मुद्दों, शब्दावली, संवाद शैली में नयापन, युवा मानस सापेक्ष बदलाव की बात तो आ चुकी है। एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष पर गौर करना जरूरी है। यह काफी कठिन है। बहुत से लोगों को शायद एतराज भी हो।
मार्क्स, लेनिन, स्तालिन, माओ, गाँधी, जेपी, लोहिया, विनोबा, फुले, आंबेडकर जैसे खेमों में हम सब रहे हैं। हम अपने प्रेरणा-व्यक्तित्व के विचारों और उद्धरणों से युवा को प्रेरित करना, अपने खेमों में डालना चाहते हैं। ऐसी कोशिशें सफलता से ज्यादा असफलता देंगी। आज का युवा किसी एक व्यक्ति का अनुचर या प्रचारक नहीं रहनेवाला। समस्याओं और प्रश्नों पर विचार करते वक्त उन तक जा सकता है किन्तु उन्हीं तक नहीं, वह ऐसे व्यक्तियों के पास भी जा सकता है जिन्हें हम नहीं जानते या पसन्द नहीं करते।
यहीं एक गौरतलब बात है। अच्छा नहीं लगता, पर सच है। दलित, आदिवासी, महिला, थर्ड सेक्सजन जैसे सचमुच अंतिम जन के समुदायों में, उनके युवाओं में गाँधी विचार प्रवाह और उनके व्यक्तियों के प्रति आकर्षण नहीं है। फुले, आंबेडकर, बिरसा आदि का आकर्षण है। नये-नये स्थानीय व्यक्तित्वों को खोजने और स्थापित करने की कोशिशें सामुदायिक स्तर पर भी जारी हैं। और यह केवल दुष्प्रचार और प्रचार की वजह से नहीं है। विभूति-केन्द्रित, वाद-केन्द्रित प्रयासों से बचते हुए युवाओं को जोड़ना होगा। तभी नये युवा जुड़ेंगे और उन युवाओं को हम सच्चा नया युवा बना सकेंगे।
क्रांतिकारी संगठनों के युवा संगठन कम हैं, कमजोर हैं। अब तो चुनावी पार्टियों के युवा संगठनों में भी लोग नहीं हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी पहले सा नहीं है। धर्मों, जातियों, समुदायों के नाम पर छोटे-छोटे, क्षेत्रीय स्तर पर सक्रिय संगठन हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा हिन्दू के नाम पर हैं। हाँ, वहाँ युवतियाँ नहीं के बराबर हैं। इन युवा संगठनों का मुख्य कार्यक्रम किसी उत्तेजक प्रकरण को लेकर तात्कालिक हंगामा और शक्ति प्रदर्शन है। वे किसी भी संगठित पार्टी या भाजपा के सीधे नियंत्रण में नहीं हैं। यहाँ से एक संकेत मिलता है कि युवतियों का संगठन बन सकता है। युवतियों की नियमित सार्वजनिक सामूहिकता गढ़ी जा सकती है। यह बहुत खाली मोर्चा है।
उपरोक्त परिदृश्य का यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक, परिवर्तनकारी कामों और संगठनों से युवा पूरी तरह गायब हैं। 2014 के बाद नयी विकट चुनौतियों के उभरने के काल में युवाओं की आशाजनक, उत्साहजनक, कुछ आश्चर्यजनक भी हिस्सेदारी रही। कुछ नये युवा नेता उभरे हैं। ये परिघटनाएँ बड़े शहरों की ज्यादा हैं। पर जहाँ अच्छे संगठक हैं, वहाँ युवा संगठन बढ़ रहे हैं। बाकी संगठनों ने, हमने भी युवा को जोड़ पाने में पहले से ही अपनी हार सी मान ली है। हममें से अधिकांश इस जरूरी काम में अपनी विफलता और निष्क्रियता की ग्लानि से बचने के लिए कुछ साथियों की शैली, कुछ युवाओं के कैरियरी मिजाज और अराजक स्वभाव पर दोष मढ़ अपने को प्रश्नमुक्त मान लेते हैं।