इसे नया मॉडल कहें, या कोई बंटाधार, जो बस हुआ चाहता है? बाजरे की खेती वाली दक्षिण हरियाणा की रेतीली पट्टी से गुजरते हुए मैं ये सवाल अपने सहकर्मियों से और खुद से बार-बार पूछ रहा था। हम लोग रेवाड़ी, कनिना , अटेली , नारनौल , दादरी और भिवानी की मंडियों में रुके। यहाँ किसानों, आढ़तियों और मंडी के अधिकारियों से बातचीत की, जानना चाहा कि हरियाणा सरकार ने किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के लिए जो भावान्तर भरपाई योजना चलायी है, उसके क्या नतीजे सामने आ रहे हैं। भावान्तर भरपाई योजना की खोज-खबर लेने के बाद मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई है।
दरअसल, बात बाजरा या फिर हरियाणा की नहीं है—दाँव पर यहाँ कोई बड़ी चीज लगी हुई है।
भावान्तर योजना के मूल में क्या है? यही कि किसानों की कड़ी मेहनत, निवेश और इससे जुड़े जोखिम को देखते हुए कुछ ऐसा उपाय किया जाय कि उन्हें अपनी फसल का कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित तौर पर मिल जाए। सरकार नियमित रूप से 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा करती है। लेकिन, एमएसपी किसानों के लिए मृग-मरीचिका साबित होता है क्योंकि धान और गेहूँ जैसी कुछ फसलों को छोड़ दें तो सरकार की ओर से बाकी फसलों पर जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, उसे हासिल करना किसानों के लिए किसी सएपने के सच होने से कम नहीं।
जहाँ तक धान और गेहूँ की बात है, इन दो फसलों पर भी किसानों को एमएसपी सिर्फ उन्हीं चंद राज्यों में हासिल हो पाता है जहाँ सरकार की ओर से बड़े पैमाने पर अनाज का उपार्जन किया जाता है। तो फिर, सवाल ये है कि ज्यादातर किसानों को एमएसपी हासिल हो, इसके लिए क्या किया जाए?
संभव है, सरकार सभी 23 फसलों की कुल उपज की खरीदारी ना कर सके। सभी 23 फसलों की कुल उपज खरीदने का मतलब होगा कि कृषि-विपणन की पूरा व्यवस्था सरकार अपने हाथ में ले ले। ऐसा करने पर कृषि-विपणन की व्यवस्था में नौकरशाही का पसारा बड़े पैमाने पर बढ़ेगा, लाल-फीताशाही का मकड़जाल घना होता जाएगा और भ्रष्टाचार के जोर पकड़ने की आशंका रहेगी। नतीजतन, एक तरफ सरकारी व्यवस्था का दम फूलने लगेगा, दूसरी तरफ किसान भी हलकान-परेशान होंगे। किसान-विरोधी लॉबी ने इस तर्क का इस्तेमाल भी किया है और हवा-हवाई आँकड़ों के सहारे यह बताने की कोशिश की है कि किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी दे पाना ‘अव्यावहारिक’ है।
भावान्तर योजना : एक प्रयोग
किसान-प्रतिनिधियों और अर्थशास्त्रियों ने बारंबार कहा है कि गल्ले की सरकारी खरीद के अतिरिक्त भी किसानों को एमएसपी सुनिश्चित करने के बहुत से रास्ते हैं। पूरी दुनिया में अमल किया जानेवाला ऐसा ही एक विकल्प भावान्तर मुहैया कराने का है। भावान्तर मुहैया कराने का विचार सीधा सा है : गल्ले की खरीद की जगह सरकार ये देखती है कि वास्तविक बाजार-मूल्य क्या चल रहा है और फसल का कितना मूल्य किसानों को देना वाजिब है। वांछित मूल्य और बाजार में जारी मूल्य के बीच जो भी अन्तर होता है, सरकार वह मूल्य किसान को दे देती है। किसान अपनी उपज बाजार में बेचते हैं और बाजार में उन्हें एमएसपी से कम मूल्य मिल रहा हो तो सरकार मूल्यों के बीच के इस अन्तर की भरपाई कर देती है।
विचार तो नेक है। लेकिन, मुश्किल इस विचार को अमल में लाने के लिए रचे जाने वाले इंतजाम से जुड़ी है। भावान्तर को निर्धारित करने और भरपाई की रकम मुहैया कराने का इंतजाम चौकस और कारगर ना हो तो भावान्तर भुगतान की पहल से किसानों को भारी नुकसान हो सकता है। साल 2017 में मध्यप्रदेश सरकार ने भावान्तर भुगतान योजना चलायी तो बिल्कुल यही हुआ। योजना को अमल में लाने के इंतजाम लचर थे और लागू करने में लापरवाही हुई। नतीजतन, किसानों को भावान्तर मुहैया कराने का विचार ही कलंकित हुआ।
इसी वजह से हरियाणा में चल रही भावान्तर योजना पर बारीकी से गौर करना बनता है।
बीते चार सालों से, जय किसान आंदोलन के जारी धरना-प्रदर्शन के असर में हरियाणा सरकार ने एमएसपी पर बाजरा की खरीद शुरू की है। पिछले साल हुई ऐसी खरीद की सफलता ने सरकार के आगे मुश्किल खड़ी कर दी। दअसल, गुजरात और राजस्थान में बाजरा की ऐसी खरीद नहीं हुई थी और इन दो राज्यों का बाजरा भी हरियाणा चला आया। भंडारण का मामला तो था ही, सूबे की सरकार को मंडी का शुल्क और आढ़तिये का कमीशन भी चुकाना पड़ा। राशन दुकानों ने बाजरा को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखाया। यों बाजरा, गेहूँ की तुलना में कहीं ज्यादा पौष्टिक होता है। ऐसे में सरकार को बाजरा फिर से बाजार में बेचना पड़ा और इसमें उसे नुकसान हुआ। इस साल सरकार ने तय किया कि किसानों को बाजरे की उपज बाजार में बेचने पर एमएसपी से कम रकम मिलती है तो इस अन्तर की पूर्ति भावान्तर भरपाई योजना के माध्यम से की जाएगी।
हरियाणा में जो भावान्तर भरपाई योजना चलायी गयी है वह अपनी बनावट में मध्यप्रदेश वाली भावान्तर योजना से कहीं ज्यादा सरल और सुगढ़ है, मध्यप्रदेश वाली भावान्तर योजना तो फिसड्डी साबित हुई। उपज के भाव में अन्तर के आकलन के लिए आधार यह बनाया गया है कि उपज पर किसान को बाजार में क्या भाव मिल रहा है और उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य कितना है। तो, भावान्तर के आकलन का यह तरीका ठीक है, ऐसा ही होना भी चाहिए। किसान से उपज की बिक्री की रसीद माँगने और हर किसान के लिए अलग-अलग भावान्तर निकालने की जगह (जैसा कि मध्यप्रदेश में हुआ और इस कारण गुंजाइश बनी कि व्यापारी भी इसमें साँठगाँठ कर लेंगे) हरियाणा में चलायी जा रही भावान्तर भरपाई योजना में पूरे राज्य के लिए भरपाई की प्रति क्विंवटल के हिसाब से एक दर निर्धारित कर दी गयी। योजना के इस मुकाम पर भी, किसान से यह नहीं पूछा जाता कि आपकी उपज कितनी है, क्योंकि इसमें भी भ्रष्टाचार होने की गुंजाइश है। किसान से उपज की मात्रा पूछने की जगह हरियाणा की भावान्तर योजना में प्रखंड में हुई औसत उपज में किसान का हिस्सा निर्धारित किया गया है।
मान सकते हैं कि यहाँ योजना में उन किसानों के साथ कुछ नाइंसाफी हुई है जो अपने खेतों में बाकी किसानों की तुलना में कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन योजना को इस हद तक सरल रखने का जो फायदा है, वह ऐसी छोटी-मोटी नाइंसाफी की तुलना में कहीं ज्यादा ठीक है। सो, जिस भी किसान ने बाजरा उपजाया है और अपना नाम सरकारी पोर्टल पर दर्ज कराया है, सत्यापन के बाद उसके बैंक खाते में, प्रखंड में हुई औसत उपज के आधार पर 600 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से राशि भेजी गयी है। ऐसा करने से गल्ले की सरकारी खरीद, भंडारण और फिर से बाजार में बेचने की झंझट नहीं रहती। बिचौलिये को भुगतान करने की परेशानी से भी बच जाते हैं। तस्करी की मार्फत नजदीकी राज्य से उपज के आने की आशंका भी खत्म हो जाती है। हरियाणा की यह भावान्तर भरपाई योजना बहुत सरल है, इसे बनाने में पर्याप्त चतुराई बरती गयी है, सो अन्य राज्यों में इसी तर्ज पर भावान्तर भरपाई योजना बनायी जा सकती है- ऐसा कहने के पर्याप्त कारण गिनाये जा सकते हैं।
दक्षिण हरियाणा के अपने दौरे के क्रम में मुझे नजर आया कि खोट दरअसल योजना के क्रियान्वयन के मोर्चे पर है।
हरियाणा का अनुभव
पहली बात तो यही कि 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से भावान्तर निर्धारित कर देना अनुचित है।
कुछ बाजार से मिली खबरों का असर रहा और कुछ उम्मीद पालने की बात। इन दोनों के असर में सरकार ने मान लिया कि बाजरा का बाजार-भाव औसतन 1650 रुपये प्रति क्विंटल रहेगा। ऐसा मान लेने से तय हुआ कि भावान्तर की रकम प्रति क्विंटल 600 रुपये की बैठती है क्योंकि बाजारा का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2250 रुपये तय किया गया है। लेकिन जमीनी सच्चाई ये थी कि बाजरे के भाव बाजार में नीचे चल रहे थे। अक्टूबर के पहले हफ्ते में, छोटे या फिर जरूरतमंद किसानों ने बाजरे की उपज लगभग 1200 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बेची। अक्टूबर के आखिर तक भाव में कुछ सुधार हुआ और गुणवत्ता के हिसाब से औसत दर्जे के बाजरे का भाव 1400 रुपये प्रति क्विंटल हुआ (कुछ असर इस साल हुई बेमौसम की बारिश का भी रहा, हम जब मंडी पहुँचे तो बारिश हुई थी)। इस तरह भावान्तर की राशि और ज्यादा नहीं, तो भी, 850 रुपये की बैठती है।
सरकार ने किसानों को भावान्तर की राशि के रूप में प्रति क्विंटल 600 रुपये का भुगतान करके दरअसल एमएसपी को घटाकर प्रति क्विंटल 2000 रुपये करने का काम किया। किसान को यह जो उपज के प्रति क्विंटल पर 250 रुपये का नुकसान हुआ उसे एकसाथ जोड़ें तो नजर आएगा कि हरियाणा के किसानों को भावान्तर भरपाई योजना में 300 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। मतलब, अगर सरकार 250 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से भावान्तर भरपाई की दूसरी किस्त जारी नहीं करती तो हरियाणा के किसानों के पास नयी योजना से अपने को ठगा महसूस करने के पर्याप्त कारण हैं।
दूसरी बड़ी समस्या लाभार्थियों की पहचान की है। किसानों को सरकारी पोर्टल पर अपना पंजीकरण करवाना था। इस कारण लगभग एक चौथाई किसान जो सबसे गरीब और सबसे पिछड़े इलाके के हैं, भावान्तर भरपाई योजना का लाभार्थी होने के लिए जरूरी पंजीकरण नहीं करवा पाये—उन्हें या तो पंजीकरण करवाने की शर्त के बारे में पता नहीं था या फिर अपने इलाके में उन्हें नेट की सुविधा हासिल नहीं थी। बटाई या पट्टे पर खेती करनेवाले किसान भी योजना का लाभार्थी नहीं बन सके जबकि वे किसानी करते और उपज बेचते हैं। पंचायत की जमीन पर खेती करनेवाले किसान भी योजना का लाभार्थी नहीं बन पाये।
पंजीकरण की व्यवस्था में ऐसी मुश्किल हमेशा आती है। इस बार मुश्किल कुछ ज्यादा संगीन थी क्योंकि सत्यापन में सख्ती बरती जा रही थी और इंतजाम कुछ ऐसा किया गया था कि किसान को अपना सत्यापन कई स्रोतों के आधार पर कराना पड़े। किसान के दावे का मिलान गिरदावारी के दस्तावेज से करना (यह हर कृषि-मौसम में जमीन के हर टुकड़े पर उगायी गयी फसल का ब्योरा होता है) था, कृषि-विभाग की रिपोर्ट से भी मिलान करना था और उपग्रह/ड्रोन से हासिल किये आँकड़ों से भी।
अब कागज की लिखाई के रूप में यह बात ठीक जान पड़ती है लेकिन जमीनी तौर पर चीजें इतनी गड़बड़ हुईं कि ऐसे इंतजाम को स्वीकार नहीं किया जा सकता। हमें दक्षिणी हरियाणा के दौरे में ऐसे बहुत से किसान मिले जिन्होंने बाजरा की खेती की थी और अपना पंजीकरण भी करवाया था लेकिन सरकारी दस्तावेज में यह लिखा मिला कि इन किसानों की जमीन पर खेती ही नहीं हुई या फिर किसी और फसल की खेती हुई है, बाजरे की नहीं।
मेरी भेंट एक ऐसे भी किसान से हुई जिसकी बाजरे की फसल का चयन एक बीमा कंपनी ने अपने ‘क्रॉप कटिंग एक्सपेरीमेंट’ के लिए किया था लेकिन सरकार का कहना था कि उस किसान ने बाजरे की नहीं बल्कि कपास की खेती की है! ऐसे सारे ही मामलों में, फरियाद जिला मजिस्ट्रेट को की जा सकती है लेकिन किसी आम किसान के लिए जिला मजिस्ट्रेट तक पहुँच पाना तकरीबन असंभव सी बात है। अगर सरकार चाहती है कि भावान्तर भरपाई योजना पर किसानों का विश्वास बना रहे तो उसे योजना के क्रियान्वयन की इन कठिनाइयों को दूर करना होगा।
किसान, किसान नेता, अर्थशास्त्री और नीति-निर्माता सबको भावान्तर भरपाई योजना का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए क्योंकि यह योजना भविष्य का रास्ता दिखाती है और उससे जुड़ी मुश्किलों के बारे में भी सिखाती है।