‘स्कूल इंग्लिश मीडियम तो है, लेकिन ठीक नहीं है। सभी टीचर्स को एमटीआई की प्रॉब्लम है। बच्चे कैसी इंग्लिश सीखेंगे?’
हम लोग दिवाली के मौके पर गांव-घर के लोगों से मिलने-जुलने हरियाणा गये थे। मेरा भतीजा बता रहा था कि वह गांव छोड़कर किसी बड़े शहर में रहने की सोच रहा है ताकि स्कूल जानेवाले उसके दो बच्चों को बेहतर अंग्रेजी शिक्षा मिल सके। ‘लेकिन दोनों बच्चे पास के कस्बे के इंग्लिश मीडियम स्कूल में जा तो रहे हैं,’ मैंने उसकी बात काटते हुए कहा। इसी दरम्यान उसने एमटीआई का जिक्र किया।
हम हैरान-परेशान कि आखिर यह एमटीआई है क्या बला! हमने एमटीआई का नाम कभी न सुना था। उधर, भतीजा अलग हैरान-परेशान, उसे सपने में भी उम्मीद न थी कि उसके पढ़े-लिखे चाचा-चाची एमटीआई के बारे में नहीं जानते होंगे। हमारे चेहरे पर नुमायां होते अचरज के भावों को पढ़ते हुए उसने कहा : एमटीआई मतलब `मदर टंग इन्फ्लुएन्स` (मातृभाषा का प्रभाव)। शिक्षक कुछ ऐसे अंग्रेजी बोलते हैं कि उससे हरियाणवी जबान की झलक आती है।
हम घर लौटे और कुछ खोजबीन की। पता चला कि अहमक तो एक हमी ठहरे! एमटीआई तो एक जानी-पहचानी समस्या है। गूगल-सर्च पर बस एक खटका मारो और `मदर टंग इन्फ्लुएन्स` पर हजारों पन्ने नुमायां मिलेंगे। इस नुक्ते पर न जाने कितने वीडियो लदे हैं और पोर्टल बना रखे हैं लोगों ने इंटरनेट पर — सबके सब अंग्रेजी बोलने पर! इन वीडियोज में बताया गया है कि एमटीआई की मुश्किल से कैसे निजात पायें, कैसे `अंग्रेजी` उस तरह से बोलें जैसे कि उसे बोला जाना चाहिए, कैसे अंग्रेजी बोलने के मामले में आत्मविश्वास जगायें और करिअर बनायें और ऐसी ही तमाम बातें।
एमटीआई की मुश्किल : हंसे कि रोयें
किसी भी भाषाविद से पूछिए, आपको यही जवाब मिलेगा कि एमटीआई नाम की ऐसी किसी `बीमारी` का वजूद ही नहीं, ऐसा तो हर जगह होता है कि कोई और जबान बोलिए तो उससे आपकी मातृभाषा की झलक आए। बोली जा रही जबान पर मातृभाषा के असर का होना एक आम बात है और यह सिर्फ आम बात ही नहीं बल्कि सबसे सहज और बोली जा रही जबान की सेहत के लिहाज से सबसे अच्छी बातों में से एक है, लोग किसी जबान को ऐसे ही अपनी जिंदगी में बरतते हैं। सच तो ये है कि अंग्रेजी जिनकी अपनी जबान है वे एमटीआई के सबसे ज्यादा शिकार हैं क्योंकि वे इसकी छाया से कभी निकल ही नहीं पाते! ग्रेट ब्रिटेन कहलाने वाले उस नन्हे से टापू में एमटीआई की छाया से ग्रसित कई तरह की इंग्लिश का प्रचलन है : इसमें स्कॉटिश और आयरिश इंग्लिश तो है ही, एक इंग्लिश ऐसी भी है जिसके बोल पर बर्मिंघम की छाया है। अंग्रेजी दुनिया भर में पसरी है, वैश्विक पग-चिह्नों वाली भाषा है और जब कोई भाषा वैश्विक पगचिह्नों वाली हो तो उसके एक से ज्यादा दीवान (रजिस्टर) होने ही हैं, ऐसी भाषा के भीतर एक से ज्यादा बोलियां और बोलने के एक से ज्यादा तरीके होने ही होने हैं। एक अमेरिकी तर्ज की इंग्लिश है तो एक आस्ट्रेलियाई तर्ज की और एक कैनीडियाई तर्ज की भी। जाहिर है, फिर इस कड़ी में भारतीय तर्ज की इंग्लिश, बंगाली तर्ज की इंग्लिश, तमिल तर्ज की इंग्लिश आदि की गुंजाइश बनती ही है।
जिंदगी में ऊंचा उठने और तरक्की करने की होड़ में अपनी मादरी जुबान को भुलाने में लगे हिन्दुस्तानियों की इस हालत पर, जो त्रासद है और प्रहसनात्मक भी, हंस पड़ना आसान है। मुझ जैसे लोगों को, जिन्होंने अंग्रेजी को एक विदेशी जबान के तौर पर अपनी दूसरी भाषा के रूप में सीखा है और ठीक इसी कारण जिन्हें आज भी लेख लिखते वक्त वाक्यों की बुनावट में कई जगह इस बात से जूझना होता है कि यहां प्रिपोजिशन (संबंध-सूचक अव्यय) कौन सा लगाएं, पीछे मुड़कर देखना चाहिए। देखना चाहिए कि अंग्रेजी सीखने का हमारा सफर कैसी कठिनाइयों से भरा रहा है। जिन्हें अंग्रेजी को कुछ यों सीखने का मौका मिला मानो वह उनकी प्रथम भाषा हो, वे भी चाहें तो यहां याद करें कि उन्होंने कैसे अंग्रेजी शब्दों का एक खास ढंग से उच्चारण करना सीखा या फिर किस तरह उनके अंग्रेजी बोलने का अंदाज अमेरिकी तर्ज का हो पाया। आपको ऐसे बहुत से आप्रवासी भारतीय (एनआरआई) मिल जाएंगे जो अंग्रेजी बोलते हुए उसे अपनी मादरी जबान की छाया से बचाने की जुगत में अपनी जीभ को ऐंठते मरोड़ते रहते हैं। अगर एमटीआई को सांस्कृतिक हीनता और आत्म-घृणा का एक संकेत-चिह्न मानें तो यही कहना ठीक होगा कि हम सभी इस बीमारी की चपेट में हैं।
इस सिलसिले में एक छोटी कहानी और सुनाने को जी चाहता है। इस कहानी का रिश्ता गांव से नहीं बल्कि शहर से है। हम एक प्रसिद्ध विद्वान से मिले। उनकी शिक्षा-दीक्षा विदेश में हुई थी और वो फर्राटे से `शुद्ध अंग्रेजी` या कह लें एमटीआई-मुक्त अंग्रेजी बोलती थीं। जब उन्हें पता चला कि मैं हिंदी में भी लिखता-पढ़ता हूं तो उन्होंने सराहना के भाव से कहा कि `आप बड़ा अच्छा कर रहे हैं जो यह ज्ञान-विज्ञान को हिंदी में फैलाने का काम कर रहे हैं।` मैंने उनकी बात को दुरुस्त करते हुए कहा कि `मैं ज्ञान-विज्ञान को हिंदी में फैलाने का काम नहीं कर रहा बल्कि शोध-अनुसंधान का अपना कुछ काम मैंने मूल हिंदी में ही किया है।` `शुद्ध अंग्रेजी` बोलनेवाली वो विदुषी तकरीबन चौंकने के भाव से बोलीं, ‘आप ज्ञान-विज्ञान का काम हिंदी में कैसे कर सकते हैं?’ मुझे लगा कि शुद्ध अंग्रेजी बोलनेवाली ये विदुषी महोदया जन्मना दक्षिण भारतीय हैं और दक्षिण भारत में हिंदी को लेकर एक अवहेलना का भाव रहा है तो शायद इसी नाते कह रही होंगी कि मूल हिंदी में ज्ञान-विज्ञान का काम नहीं हो सकता, लेकिन मैं गलती पर था। आगे उनकी बात से स्पष्ट हो गया कि वे हिंदी ही नहीं बल्कि तमिल या कन्नड़ या फिर ऐसी किसी भी भाषा को ज्ञान-विज्ञान रचने के लिहाज से अनुपयुक्त मानती हैं। ‘ये भाषाएं आधुनिक विचारों की भाषा नहीं। इनमें आप गीत और कहानियां रच सकते हैं, लेकिन इन भाषाओं में समाज-विज्ञान के सूत्र और सिद्धांत नहीं रच सकते,’ उन विदुषी महोदया की बात इस टेक पर आकर रुकी।
मुझे लगता है, जो कुछ उस विदुषी ने कहा वही इस देश के ज्यादातर अंग्रेजीदां, एकभाषी अभिजन और उसकी तरफ मुंह करके सोचने वाले लोग भी मानते हैं। मेरा भतीजा चाहे इस बात को सूत्र-वाक्य में न कह पाया या फिर ऐसा कहने का साहस न संजो पाया लेकिन अंग्रेजी की मोहिनी पर मुग्ध तो वह भी है। हथौड़ा-मार तरीके से कहें तो, हमारे देश के अंग्रेजीदां, एकभाषी अभिजन तबके के ज्यादातर में यह धारणा प्रचलित है कि अंग्रेजी ही आधुनिकता की एकमात्र वाहक-भाषा है। इस अंग्रेजी में अगर, जरा सा भी देसीपन का तड़का लग जाए तो फिर समझिए कि आधुनिकता को हासिल करने के हमारे सपने में ही कोई खलल पड़ गया। कुछ ऐसा है जो संज्ञानात्मक है, शुद्ध बुद्धि की बात है और कुछ ऐसा है जो शुद्ध बुद्धि के सहारे हासिल हुए ज्ञान को अभिव्यक्त करने से जुड़ा है और इन दोनों के बीच फर्क होता है।
ठीक इसी तर्ज पर शुद्ध बुद्धि के सहारे ज्ञान रचनेवाले और उस ज्ञान को अभिव्यक्त करनेवालों के बीच एक महीन और धारदार फर्क होता है— ऐसी मान्यता चली आ रही है जिसकी तरफ प्रोबल दासगुप्ता ने हमारा ध्यान खींचा है। यह मान्यता कहती है कि अंग्रेजी शुद्ध बुद्धि की भाषा है, विशिष्ट ज्ञान और विशेषज्ञता की भाषा है, वह विज्ञान, अर्थशास्त्र और साकार होने जा रहे हमारे भविष्य की भाषा है जबकि अन्य भाषाएं या पुरानी टेक पर कह लें हमारी भाषाएं, हमारी भावनाओं की अभिव्यक्ति की वाहक हैं। भाषाओं के सहारे बस गलियों और सड़कों पर चलनेवाला रोजमर्रापन किया जा सकता है, इनके सहारे अपने बचपन और बचपन की तोतली बातों-प्रसंगों में लौटा जा सकता है। यह सांस्कृतिक पूर्वग्रह या कह लें आधुनिक अंधविश्वास बहुत गहरे हमारे माथे में धंसा हुआ है और एमटीआई की `बीमारी` से छुटकारा पाने की तलब इसी सांस्कृतिक पूर्वग्रह की देन है।
भाषाई रंगभेद
आधुनिक समाजों में भाषाएं वर्ग-संघर्ष की रणस्थली रही हैं। सांस्कृतिक बरतरी का जो खेल चलता है उस खेल का सबसे पसंदीदा मैदान रही हैं भाषाएं। भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में यह खेल कहीं ज्यादा संगीन रूप ले लेता है। यों समझिए कि हमारे देश में सांस्कृतिक बरतरी के इस खेल ने एक भाषाई रंगभेद का रूप ले लिया है। हमारे देश में अंग्रेजी ताकत की भाषा है। भारतीय भाषाओं या यू.आर.अनंतमूर्ति के शब्दों में कहें तो `भाषाओं`से अंग्रेजी का रिश्ता बहुत कुछ वैसा ही है जैसे कि रंगभेद के जमाने में गोरी चमड़ी के लोगों का अश्वेत चमड़ी के लोगों से होता था। अंग्रेजी का ज्ञान हासिल करने का मतलब सिर्फ एक भाषा सीखना भर नहीं होता, अंग्रेजी सीखने का मतलब हो जाता है ताकत की तिजोरी की चाबी हाथ लग जाना। अचरज नहीं कि अंग्रेजी कहीं बहुत गहरे में हमारी महत्वाकांक्षाओं की भाषा बनकर दर्ज है और `शुद्ध अंग्रेजी` न सीख पाने का मलाल हमारे मानस में निराशा, त्रासदी, प्रहसन और स्वांग के भाव जगाता है।
त्रासदी यह नहीं कि मेरा भतीजा जिस एमटीआई की बीमारी से अपने बच्चों को बचाना चाहता है उस बीमारी का भाषा विज्ञान या फिर शिक्षा शास्त्र में कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है। ऐसी भी कोई बात नहीं कि वह सांस्कृतिक हीनता और आत्म-घृणा की किसी ग्रंथि से बंध चला है। त्रासदी यह भी नहीं कि मेरा भतीजा या फिर उस जैसे लोग एक ऐसी दौड़ में लगे हैं जिसमें उन्हें हर बार बहुत पीछे रह जाना है, इस देश के अंग्रेजीदां अभिजन तबके से मीलों पीछे छूट जाना है। असल त्रासदी यह है कि `शुद्ध अंग्रेजी` बोलना सिखाने का जो उद्योग चल निकला है, उसके कर्ता-धर्ता कामयाब हुए हैं, उन्होंने मेरे भतीजे तथा उस जैसे तमाम लोगों को यह समझा दिया है कि तुम्हारी ताकत ही तुम्हारी कमजोरी है। मानवता की सेवा में अपना सर्वश्रेष्ठ हम भारतीय तभी दे पाएंगे जब हम पूर्ण निष्ठाभाव से `क्वीन्स इंग्लिश` सीख लेंगे— इस बात को मानने का कोई आधार ही नहीं है। हमारी रचना शक्ति, हमारे योगदान के वैशिष्ट्य और औदात्य को अगर निखरना है तो वह एमटीआई के सहारे ही हो सकता है। लहजे और रंगत में मातृभाषा की छायाओं को लेकर ही पूरी दुनिया में अंग्रेजी और आधुनिक विचारों का विकास-विस्तार होना है। राममनोहर लोहिया ने कहा था कि किसी दूसरे ने अपने लिए आधुनिकता का एक रास्ता बनाया है तो वही रास्ता हमारा एकमात्र विकल्प नहीं हो सकता बल्कि हमें तो आधुनिकता का रास्ता अख्तियार करने के लिए खुद अपने पैरों पर खड़ा होना होगा, अपनी आधुनिकता का रास्ता खुद तैयार करना होगा।
लोहिया ने `अंग्रेजी हटाओ` का नुस्खा सुझाया। इस नुस्खे पर आज अमल करने की जरूरत नहीं। हमारे वक्त का नारा होना चाहिए- `अंग्रेजी बदलो`। हमारे वक्त में अंग्रेजी का भारतीयकरण होना चाहिए और धड़ल्ले से होना चाहिए। इसके लिए हमें भारतीय भाषाओं से उधार लेना होगा, भाषाओं से सीखना होगा। ऐसा होने में ही आत्मतेज गंवा चुके हमारे अंग्रेजीदां अभिजन की मुक्ति है और ऐसा करने पर ही अंग्रेजी का भी उबारा है। `घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध` वाली कहावत को याद करते हुए कहें तो हमारे देश में एक लंबा वक्त बीत चला है अंग्रेजी को `आन गांव की सिद्ध भाषा` मानकर बरतते हुए। अब वक्त एमटीआई को अपनाने का है, उसे हिन्दुस्तान की ही भाषा मानकर बरतने का है, कुछ यों कि वह मां-भाषा नहीं तो भी मौसी-भाषा जरूर लगे।
(द प्रिन्ट से साभार)