— प्रयाग शुक्ल —
लखनऊ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कथाक्रम’ के लिए मनोहर श्याम जोशी से मुझे एक लंबा साक्षात्कार करना था। और इसकी याद दिलाने के लिए कथाक्रम के संपादक शैलेन्द्र सागर के फोन भी मेरे पास पिछले दिनों प्रायः आते रहते थे। मैं उन्हें आश्वस्त करता था कि ‘यह मैं जरूर ही करूँगा, पर, इन दिनों मेरी भी कुछ व्यस्तताएँ हैं, और जोशी जी की भी हैं ही (साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने के बाद उन्हें छोटे-मोटे कई इन्टरव्यू यों भी देने पड़ते थे)- ये व्यस्तताएँ निबट जाएँ तो मैं यह इन्टरव्यू ही सबसे पहले करूँगा। पर, वह अपूर्ण ही रहा, बल्कि कहना चाहिए ठीक से शुरू भी नहीं हो सका। और जोशी जी चले गए। उनसे भी मैं इस इन्टरव्यू की चर्चा करता रहता था और वह हँस कर यही कहते थे, ‘जब चाहो तब आ जाओ।’ इस इन्टरव्यू को करने की कई तरह की तैयारियाँ भी मैं मन-ही-मन बना रहा था और मित्रों को यह बताया भी करता था कि जोशी जी से पहला वाक्य तो मैं यही कहूँगा कि ‘जोशी जी से इन्टरव्यू तो स्वयं जोशी जी ही कर सकते हैं। पर, मैं भी जब इस काम के लिए उकसा दिया गया हूँ तो कुछ तो आपसे पूछूँगा ही….।’
पर, यह भी कहना क्या ठीक होगा कि जोशी जी से मैंने साक्षात्कार नहीं लिया। नहीं, वह तो ठीक नहीं ही होगा। एक औपचारिक इन्टरव्यू की शक्ल में भले मैं जोशी जी से साक्षात्कार नहीं ले सका, और उसका मलाल तो अब हमेशा बना रहेगा; पर, उनसे ‘प्रश्नोत्तरों’ का सिलसिला तो कोई चालीस वर्षों से भी अधिक का है। मैं 1963-64 में कोलकाता से, ‘कल्पना’ हैदराबाद में रहकर, दिल्ली आया था। 1965 में एक फ्रीलांसर के तौर पर ‘दिनमान’ से जुड़ा था। तब जोशी जी की नियुक्ति दिनमान के सहायक संपादक के रूप में हो चुकी थी। और जानने वाले जानते हैं कि 1965 से 1968 तक के दिनमान की बात जोशी जी के बिना पूरी नहीं हो सकती। अज्ञेय उसके संपादक थे, और उनका तो दिनमान में महती योगदान है ही। पर दिनमान जैसी पत्रिका के लिए मनोहर श्याम जोशी चाहिए-
और वह तो हिंदी में एक ही अकेला है – इसका भान स्वयं वात्स्यायन जी को भी था, तभी वह आग्रहपूर्वक जोशी जी को लाए थे। जोशी जी के अलावा भला कौन विज्ञान, खेलकूद, सिनेमा, संगीत, नृत्य, पुरातत्त्व, दर्शन, आधुनिक चिंतन, राजनीति, अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य, कला, आदि-आदि पर अधिकारपूर्वक लिख और लिखवा सकता था।
हम चौबीस-पचीस वर्ष के युवा तब चकित होकर उनके कामकाज और उनके जानकारीपूर्ण ज्ञान को देखा-सुना करते थे, और अचरज इस बात का सबसे अधिक करते थे कि इतने विषयों की जानकारी और इतनी विविध चीजों में उनकी दिलचस्पी क्योंकर सम्भव हो सकी है। जोशी जी भी तब युवा ही थे, अगर हम चौबीस-पचीस के थे तो वह बत्तीस-तैंतीस के रहे होंगे। विवाह तब तक उन्होंने किया नहीं था। तब सिगरेट खूब पीते थे और किसी सहयोगी से विनोदपूर्वक माँगी गई एक सिगरेट के बदले उसके पाँच पन्ने या तो उसकी ओर से दुबारा लिख सकते थे या दस पन्ने सुधार सकते थे। आज मुझे जोशी जी की वही छवि सबसे अधिक याद आ रही है कि वह टाइम्स ऑफ इण्डिया बिल्डिंग में दिनमान के दफ्तर में सहयोगियों की इस मेज से उस मेज जा रहे हैं, सिगरेट के लंबे कश भरते हुए और किसी को कुछ बता या सुझा या हँसा रहे हैं। और सहयोगियों में हैं – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्याम लाल शर्मा, श्रीकान्त वर्मा आदि। रघुवीर सहाय तब नवभारत टाइम्स में हैं, और कभी-कभी दिनमान दफ्तर की ओर भी आ जाते हैं- जो उसी हॉल में है। जोशी जी कभी वात्स्यायन जी के कमरे से निकल रहे हैं, कभी हम जैसे किसी फ्रीलांसर को पकड़ रहे हैं, उसे कोई कार्ड दे रहे हैं कि अमुक-अमुक जगह जाकर तुम्हें एक वृत्तान्त बनाना है, जाओ….। वह दोपहर भला कैसे भूल सकता हूँ। जोशी जी ने एक असमिया नाटक का कार्ड मुझे थमाया है। नाटक शाम को ही है। प्रगति मैदान में उन दिनों आयोजित होने वाले नाट्य समारोह में।
मैं अचकचा कर कहता हूँ, ‘असमिया नाटक! नाटक पर तो मैंने कभी लिखा नहीं है।’ ‘तो, अब लिखो न भाई! हर चीज कभी-न-कभी तो पहली बार ही की जाती है।’ फिर मेरे चेहरे पर थोड़ी बेचारगी भाँप कर यह जोड़ना नहीं भूलते, ‘अरे, घबराते काहे हो, तुम लिखकर तो लाओ….।’ अब कोई बहाना नहीं चल सकता। मैं कार्ड हाथ में लिये हुए टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर निकलता हूँ। ….और वह शाम भी तो जब मैं जोशी जी के साथ बैठा हूँ, दिनमान दफ्तर में। एक-एक कर लोग जा चुके हैं। पिकासो के सत्तर वर्ष पूरे होने पर, मुझे उन्होंने दिनमान की कवर स्टोरी सौंपी है। आज डेडलाइन है। मेरा लिखा हुआ वह पढ़ते, और कुछ सुधारते जा रहे हैं। कुछ तथ्यों के लिए मैं तीन-चार बार टाइम्स ऑफ इंडिया की लाइब्रेरी में जा चुका हूँ जो दिनमान दफ्तर से लगी हुई ही है। पर जोशी जी हैं कि दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालते हैं और कई तथ्य, कई मर्म, कागज पर उतर आते हैं- पिकासो के। शायद रात नौ बजे हम टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर आते हैं….कवर स्टोरी प्रेस को सौंप कर।
उनका हँसमुख और आपको हँसाता-गुदगुदाता चेहरा ही बार-बार सामने आ रहा है….भुवाल संन्यासी पर कोई चीज लिख रहे थे जोशी जी। पिछले दिनों उनके फोन आते थे किसी-न-किसी बांग्ला शब्द को लेकर। बांग्लादेश से लौटे थे जोशी जी तो भी खूब बातें हुई थीं। फिर, पीछे लौटा जा रहा हूँ।
जोशी जी के साथ फटफटिया में बैठ कर कनॉट प्लेस जा रहा हूँ।…कॉफी हाउस। जोशी जी ‘सारिका’ के लिए लेखकों के मजेदार इंटरव्यू ले रहे हैं। जोशी जी दिनमान के खेलकूद संपादक योगराज थानी की मेज पर बैठे हैं और हॉकी या क्रिकेट की बारीकियों में ‘उलझे’ हैं, उलझा रहे हैं, नहीं, नहीं, उलझा नहीं रहे हैं, वही तो सब कुछ सुलझा रहे हैं।….जोशी जी किसी की आवाज की नकल उतार रहे हैं, किसी की मिमिक्री कर रहे हैं। जोशी जी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में आए हैं, हमारे निमंत्रण पर, ‘रंग प्रसंग’ के पारसी थियेटर अंक का लोकार्पण करने और अपनी टिप्पणियों से सबको मोहे ले रहे हैं….रंजीत कपूर की अनुपस्थिति में उन्हें ‘शाबासी’ दे रहे हैं और ‘रंग प्रसंग’ में भूलवश रंजीत की जन्मतिथि गलत छप जाने पर ऐसी मीठी चुटकियाँ भी ले रहे हैं कि पूछिए मत! नहीं, न कभी किसी का नुकसान किया, न किसी के आड़े आए, सबको बढ़ाया, जो भी उनके संपर्क में आया, कुछ पाकर गया, खोकर नहीं। ‘श्रुति’ में अपना उपन्यास पढ़ा तो सुनने वाले ऐसा रस में भीगे कि मनाने लगे कि यह रचना-पाठ कभी समाप्त ही न हो….।
‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’ का अंश ‘इंडिया टुडे’ में पढ़कर फोन किया तो रात के ग्यारह बज रहे थे। मैंने कहा, ‘यह मुझे इतना अच्छा लगा है कि इच्छा हुई आपको अभी बताऊँ।’ हँसे, बोले, ‘चलो, तुम्हें अच्छा लगा, उधर नैनीताल-कुमाऊँ में न जाने कितने परिजन नाराज बैठे हैं…गालियाँ पड़ रही हैं, मुझे गालियाँ।’
याद नहीं पड़ता कि कभी उन्हें किसी को निराश करते देखा हो….भगवती जी (जोशी जी की पत्नी) और जोशी जी, भला कब किसी मित्र-परिजन को अपने घऱ के किसी कामकाज में भूलते थे…।
1963-64 में कल्पना में रहते हुए मैं जोशी जी की कुछ चीज़ों और कविता में उनके ‘कूर्मांचली’ रूप से परिचित हो चुका था, दिनमान से जुड़ा तो भाषा को लेकर रोज ही खेले जाने वाले उनके ‘खेल’ से, फिर पढ़ने में आयीं उनका कहानियाँ, ‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’ जैसी कहानियाँ। और आपके भीतर अपनी कहन शैली से न जाने क्या-क्या जगा गयीं। जब ‘कुरु कुरु स्वाहा’ पढ़ा तो लगा कि जोशी जी तो अपने समय, समाज, भूत-वर्तमान, देश-दुनिया में ‘इतना गहरे पानी पैठ’ हैं कि आप दाँतों तले ऊँगली दबा लें! ‘कसप’, ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’, ‘ट-टा प्रोफेसर’, ‘क्याप’….पिछले दो-तीन दशकों में जोशी जी ने ‘गप्प’ (गल्प) और आधुनिक-उत्तर आधुनिक विमर्श की न जाने कितनी खिड़कियाँ खोल दीं….अपनी शर्तों पर, पश्चिम की या किसी प्रवृत्ति या आंदोलन की शर्तों पर नहीं….सब कुछ जानते-बूझते, पढ़ते-सुनते-गुनते हुए जोशी जी ने जो कुछ किया अपनी तरह से, और मौलिक ढंग से….।
थे ही वह मौलिक! हर बतकही, हर महफिल में, अपने लहजे में, अपनी तरह से बात करने वाले! ‘हलो’ कहने के बाद उनका हँसते हुए बतियाना और फिर बीच-बीच में आपको भी वजह-बेवजह हँसा देना और पते की कोई बात भी थमा देना, उन्हें जिस तरह आता था, उस तरह भला कहाँ किसी को आता है!
कोई बारह-तेरह दिन पहले की बात है। मैं रोहतक के रास्ते में था। मोबाइल बजा और जोशी जी की आवाज सुनाई पड़ी, ठीक उन्हीं की, पर मोबाइल में कटती हुई-सी….इतनी बात मैं समझ सका कि बच्चे अमेरिका से आए थे, अब जाने वाले हैं। सो जोशी जी शायद उस प्रसंग से घर बुला रहे हैं। मैंने कहा, दिल्ली पहुँच कर आपको आज शाम ही फोन करूँगा। बताया कि जा तो रहा हूँ रोहतक, पर, शाम तक लौट आऊँगा। लौटा तो उस शाम फोन नहीं कर सका। मैंने मान लिया था कि बुलावा कल-परसों का होगा। सुबह फोन कर लूँगा। सुबह फोन किया तो वह हँसे, ‘अरे भाई, बुलावा कल शाम का ही था। तुमने शाम को फोन ही नहीं किया। पुष्पेश (पंत) भी बाहर गये थे उस दिन, शाम को लौटे तो सीधे मेरे यहाँ ही आ गए थे… ’ आदि। और अंत में, मुझे आश्वस्त करने के लिए, ‘चलो कोई बात नहीं, फिर मिलेंगे।’
फिर न तो उनकी आवाज सुनने को मिली, न मिलना हुआ। पर, वह सशरीर भले हमसे बिछुड़ गए हों, वैसे बिछड़े कहाँ हैं!
(2006 में लिखा गया यह लेख लेखक की पुस्तक ‘स्मृतियाँ बहुतेरी’ में संकलित है)