सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन को असफल करने के लिए राजसत्ता की तरफ से की गयी व्यूह-रचना में आचार्य विनाबा भावे की प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाने में संकोच नहीं किया गया। सर्व सेवा संघ में आन्दोलन के विरोधी हिस्से ने कांग्रेस सरकार के कुछ नेताओं के साथ मिलकर यह भ्रम फैलाने में सफलता हासिल की कि आचार्य विनोबा और जेपी में गंभीर मतभेद हैं। जहाँ विनोबा जी इंदिरा सरकार के समर्थक हैं वहीं जेपी इंदिरा-विरोधी ताकतों के सहयोगी बन गये हैं। यह ’अर्ध-सत्य’ का और प्रचार की ताकत का शर्मनाक उदाहरण था। इसके परिणामस्वरूप विनोबा जी की निष्पक्षता के बावजूद‘सरकारी संत’ का कलंक लग गया।
आचार्य विनोबा भावे के एक वर्ष के मौनव्रत समापन पर एक रजत जयंती सम्मेलन पवनार आश्रम में भी 25 से 27 दिसम्बर, ’75 तक संपन्न हुआ। इसकी सार्वजनिक सभा में लगभग 25,000 स्त्री-पुरुष शामिल थे। इसमें विनोबा को सुनने के लिए देशभर से सर्वोदय कार्यकर्ता और अन्य लोग जुटे थे। उन्होंने इस मौके पर अनुशासन की विशेष चर्चा की– ‘शासन और अनुशासन में जो फर्क है, वह हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। आचार्यों का अनुशासन होता है और सत्तावालों का होता है शासन। अगर शासन के मार्गदर्शन में दुनिया रहेगी तो दुनिया में कभी भी समाधान नहीं होनेवाला है…उसले बदले अगर आचार्यों के अनुशासन में दुनिया चलेगी तब तो शांति रहेगी…आचार्य निर्भय, निर्वैर और निष्पक्ष होते हैं…’. उन्होंने अंत में यह भी कहा कि यदि आचार्यों के अनुशासन का शासन विरोध करेगा तो उसके सामने सत्याग्रह करने का प्रसंग आएगा। लेकिन उन्हें पूरा विश्वास है कि भारत का शासन कोई ऐसा काम नहीं करेगा जो आचार्यों के अनुशासन के खिलाफ होगा। इसलिए ऐसा सत्याग्रह का मौक़ा भारत में नहीं आएगा. (देखें : कुसुम देशपांडे (2010); पृष्ठ 219-224)
इमरजेंसी में हजारों सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की पूरे देश में गिरफ्तारी के बीच सरकार ने 11 सितम्बर, ‘76 में पूरे देश में आचार्य विनोबा की 80वीं जन्मतिथि को उत्सव की तरह मनाया। अपनी जेल डायरी में जेपी ने इसे‘क्षोभजनक धूर्तता’ (डिस्गस्टिंगली कनिंग’) के रूप में देखा (देखें : प्रिजन डायरी – जयप्रकाश नारायण (1976) (पापुलर प्रकाशन, बम्बई; पृष्ठ 65)।
सरकारी प्रोत्साहन से सर्व सेवा संघ के विघटन को बढ़ाने के लिए सर्वोदय नेतृत्व का एक छोटा हिस्सा जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन का खुला निंदक हो गया। इस हिस्से से जुड़े 54 लोकसेवकों ने एक सामूहिक त्यागपत्र विनोबा जी को ही सौंप दिया। सरकार ने इनमें से कई लोगों की मदद से भूदान रजत जयंती समिति भी बनायी।
आचार्य विनोबा के 25 दिसम्बर,’74 से 25 दिसम्बर, ’75 तक एक बरस लम्बे मौनव्रत के कारण लगातार यह भ्रामक प्रचार भी संभव हो गया कि वह इमरजेंसी के समर्थक हैं – उन्होंने इमरजेंसी को ‘अनुशासन पर्व’ का सम्मानजनक विशेषण दिया है! यह सही था कि विनोबा जी 4 नवम्बर को पटना में जेपी पर हुए पुलिस प्रहार और 26 जून को उनकी इमरजेंसी लागू करने की रात दिल्ली में गिरफ्तारी और महीनों लम्बी कैद के बारे में कुछ नहीं बोले थे। लेकिन यह कम लोगों को पता चल पाया कि 1976 में उन्होंने फरवरी और जुलाई के 6 महीनों के बीच कम से कम चार बार सत्ताधीशों से इमरजेंसी हटाने और नयी लोकसभा का चुनाव कराने की बात कही– 17 फरवरी को आचार्य सम्मेलन के संयोजक श्रीमन्नारायण से, 24 फरवरी को प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी से, 3 जून बिहार कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी से, और 1 जुलाई को सर्वसेवा संघ के अधिवेशन में गुजरात से आए प्रतिनिधिमंडल से। उन्होंने 18 जुलाई को जेपी से हुई लम्बी बातचीत में स्वयं के ‘ओपन जेल’ में होने जैसी अनुभूति की बात कही और ‘मैत्री’ पत्रिका के अंक को पुलिस द्वारा उठा ले जाने का उदाहरण दिया।
सरकारी दंडशक्ति का बिहार आन्दोलन में संलग्न सर्वोदयी कार्यकर्ताओं के खिलाफ खुला इस्तेमाल हुआ। तरुण शांति सेना और सर्व सेवा संघ के सभी प्रमुख कार्यकर्ता जेलों में बंद थे। 26 जून ’75 को स्वयं जेपी की गिरफ्तारी के बाद तो सरकार की दंडनीति बेलगाम हो गयी। जेपी के मार्गदर्शन में जनवरी, ’75 में स्थापित छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के सदस्यों को बड़ी संख्या में बंदी बनाया गया। सर्व सेवा संघ से जुड़ी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन असंभव कर दिया गया। महिला चरखा समिति (कदम कुआं, पटना) और गांधी शांति प्रतिष्ठान (दिल्ली) से लेकर पवनार (वर्धा) तक सर्वोदय से जुडी संस्थाओं पर पुलिस की निगरानी बैठा दी गयी। गुजरात और दक्षिण भारत के अलावा बाकी पूरे भारत में जेपी के अधिकांश सक्रिय समर्थकों को जेलों में भर दिया गया। इसके खिलाफ सर्वोदयी विचारक वसंत नार्गोलकर ने 25 दिसम्बर, ’75 से यरवदा केंद्रे कारागार में 25 दिनों का अनशन किया। इस सबसे क्षुब्ध होकर 65 वर्षीय सर्वोदय कार्यकर्ता प्रभाकर शर्मा ने 11 अक्तूबर, ’76 को नलवाडी (पवनार आश्रम से मात्र 2 किलोमीटर दूर) में आत्मदाह कर लिया। इस सर्वोच्च बलिदान के पूर्व उन्होंने प्रधानमन्त्री के नाम एक पत्र लिखकर इमरजेंसी के अंतर्गत चल रहे क्रूर शासन की निंदा के साथ ही आचार्य विनोबा के आमरण अनशन की खबर पर रोक लगाने का विशेष जिक्र किया था। एक अनुमान के अनुसार इमरजेंसी में बंदी बनाये गये 1 लाख लोगों में से 20,000 स्त्री-पुरुष जेपी से जुड़े युवा आंदोलनकारी थे।
सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन और दलों का दलदल
सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में राजनीतिक दलों की बढ़ती दिलचस्पी और जेपी द्वारा नेताओं से संवाद बढ़ाना आन्दोलन के उत्तरार्ध का सबसे बड़ा विवाद था। अप्रैल, ’75 में युवा फिल्मकार आनन्द पटवर्धन ने आत्म-समीक्षा की प्रक्रिया में योगदान करते हुए चिंता प्रकट की कि जेपी विभिन्न दलों के नेताओं से विचार-विमर्श में जुट गये हैं। दलगत राजनीति संसदीय प्रणाली में सतही सुधार ला सकती है लेकिन क्रांतिकारी बदलाव नहीं हो पाएंगे। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे पुराने विरोधियों को अपने समर्थकों में शामिल करना एक प्रकार का दृष्टिदोष है जिससे क्रांति का लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा? इससे यह स्पष्ट हो गया है कि जेपी का आन्दोलन एक चौराहे पर है और कुछ लोग यह भी आरोप लगा सकते हैं कि यह गलत दशा की ओर मुड़ चुका है। बिहार में आन्दोलन पर जेपी का नैतिक नियंत्रण रहा है लेकिन बिहार से बाहर इसको विभिन्न दलों के नेताओं का सतही समर्थन मिल रहा है और संघर्ष समितियाँ जल्दीबाजी में बनने लगी हैं। इससे कांग्रेस के सत्ता पर एकाधिकार को जरूर चुनौती दी जा सकती है और यह उपयोगी योगदान होगा।
लेकिन सिवाय प्रतिबद्ध और प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं के आधार पर संगठन बनाने का धीरज दिखाये कोई टिकाऊ प्रभाव नहीं हो सकेगा। ऐसे एक सौ कार्यकर्त्ता एक लाख की भीड़ अथवा जनसंघ और कांग्रेस (संगठन) के 40,000 सदस्यों से जादा उपयोगी रहेंगे जिनकी आन्दोलन के दीर्घकालीन उद्देश्यों के प्रति वफादारी का भरोसा नहीं किया जा सकता है। (एवरीमैन्स; 20 अप्रैल,’75) यह उल्लेखनीय है कि आनंद पटवर्धन ने इस आलोचना के साथ ही बिहार आन्दोलन के बारे में ‘क्रान्ति की तरंगें’ फिल्म बनायी और 26 जून, ’75 – 23 मार्च, ’77 के बीच आपातकाल में प्रतिरोध को मजबूत करने में इसके जरिये देश-विदेश में उल्लेखनीय योगदान भी किया।
इस आत्म-समीक्षा को जेपी के सहयोगी और एवरीमैंस के सम्पादक अजित भट्टाचार्य ने आगे बढ़ाते हुए जयप्रकाश नारायण के दक्षिण भारत के दौरे के बाद ‘हार्ड चोयस फॉर जेपी (जेपी के सामने कठिन विकल्प)’ लेख (इंडियन एक्सप्रेस; 24 मई,’75) में कहा कि जेपी के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन का आधार उनकी पारदर्शिता, निर्मल और निष्पक्ष सुझाव और सत्ता की राजनीति के प्रति विरक्ति है। लेकिन वह क्रांतिकारी आन्दोलन और सीमित राजनीतिक सुधार को एकसाथ नहीं साध सकते। जेपी दोनों प्रक्रियाओं को परस्पर-पूरक मानते हैं और ऐसा संभव भी हो सकता है। लेकिन देश की मौजूदा दशा में उन्हें यह तय करना होगा कि बिहार में आन्दोलन को सुगठित करने पर पूरा ध्यान लगाया जाए या चुनाव-सुधार, मजबूत विपक्ष की रचना आदि राजनीतिक सुधारों को संभव बनाने के लिए देशभर में दलों से संपर्क के जरिये सहयोग जुटाया जाए। क्योंकि उनके बिहार के बाहर समय देने से और संदिग्ध पृष्ठभूमि के नेताओं से संवाद करने से आन्दोलन की तेजस्विता पर प्रभाव पड़ने लगा है। अजित भट्टाचार्य का मानना था कि जेपी और आन्दोलन के लिए बिहार पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। बिना बिहार में जड़ें गहरी किये जनता पार्टी की रचना और चुनावों को अप्रासंगिक मानना चाहिए।
नये बिहार के लिए एक घोषणापत्र : स्पष्ट मार्गदर्शन
इन समीक्षाओं के सन्दर्भ में जेपी द्वारा ‘एक नए बिहार के लिए घोषणापत्र’ का 11 मई,’75 के एवरीमैंस में प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस घोषणापत्र में बिहार आन्दोलन के कारणों, मुख्य उद्देश्यों, कार्य पद्धति, शंकाओं और सतर्कताओं का व्यवस्थित विवरण देकर जेपी ने एक बार फिर दुहराया कि जनसाधारण की जीवन दशा में बुनियादी बदलावों के लिए यह एक जन आन्दोलन है न कि विपक्षी दलों के संयुक्त मोर्चे का अभियान। इसलिए गाँव से लेकर जिले तक ‘जनता सरकार’ (लोक समिति) का गठन इसकी सर्वोच्च प्राथमिकता रहेगी। इस काम का विधानसभा चुनाव से जादा महत्त्व है।
जनता सरकार के तीन स्तर प्रस्तावित किये गये – 1. गाँव, 2. पंचायत, और 3. प्रखंड। नयी सरकार बनने पर इन्हें कानूनी मान्यता भी दिलाई जाएगी। इसके लिए जनचेतना निर्माण और लोगों की पहल से शोषण, अन्याय और निर्धनता से मुक्ति का शुभारम्भ करना ही इसका मूल उद्देश्य है। इसमें विभिन्न विचारधाराओं, पारंपरिक राजनीति और लम्बे-चौड़े वायदों की बहुत उपयोगिता नहीं होगी। जातिगत विषमता और स्त्री के प्रति दुर्व्यवहार को तो जन साधारण, विशेषकर युवाओं, के संकल्प और आत्म-सुधार से ही दूर किया जा सकेगा। इन कार्यक्रमों से सम्पूर्ण क्रांति के चार आयामों की रचना करनी होगी – 1. लोकशिक्षण, 2. स्थानीय जनसंगठन, 3. भ्रष्टाचार और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष, और 4. नये मूल्यों पर आधारित समाज व्यवस्था के लिए रचनात्मक कार्य। क्योंकि इस क्रांति का अंतिम लक्ष्य मौजूदा सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था की जगह गाँधी प्रेरित शोषणविहीन समाज व्यवस्था, नकि समाजवाद के नाम पर पनप रहा सरकारी पूंजीवाद, की स्थापना है। इस घोषणापत्र ने बंटाईदारों, सीमान्त और छोटे किसानों, खेतिहर मजदूरों और शहरी गरीबों के बीच चेतना निर्माण और अपने अधिकारों के प्रति सजगता को सबसे महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी बतायी।
इसी के साथ अगले तीन महीनों के बीच बिहार के हर गाँव में लोक समिति गठन के ‘जनता सरकार अभियान’ का टाइम-टेबुल जारी किया गया था। इन दोनों में सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन की रणनीति में जरूरी हो चुके सुधारों का प्रतिबिम्ब था। लेकिन 12 जून और 26 जून के बीच तेजी से बदले हालात के कारण समय नहीं मिल सका। इमरजेंसी राज ने सब कुछ बदल दिया। बिहार और देश ने अपनी दशा-दिशा में बेहतरी पैदा करने का मौक़ा खो दिया।