— राममनोहर लोहिया —
हिंदुस्तान क्यों इतनी बार गुलाम हो जाता है? क्यों इतने लंबे अरसे तक गुलाम हो जाता है? कहीं कोई खराबी है और खराबी बिलकुल साफ है। कि हम झुक बहुत जाते हैं, बहुत दबते हैं, हर चीज के साथ हम समझौता कर लेते हैं और हमारे सोचने के तरीके बड़े गंदे हो गये हैं। मिसाल के लिए मैं इतिहास की दो घटनाएँ बताऊँ, एक तो साँगा वाली मिसाल। तारीफ करते हैं कि कितनी बहादुरी से लड़ा कि उसके शरीर पर 150 घाव हो गये। इसमें क्या बहादुरी है?
बहादुरी तो यह होती है कि देश को स्वतंत्र रखो। बहादुरी यह नहीं है कि मरने या हारने के पहले तुम्हारे शरीर पर कितने घाव लगे। क्या बहादुर थी पद्मिनी? कि चित्तौड़ के फतह होने पर हजारों रानियों और औरतों को लेकर अग्नि में प्रवेश कर गयी। ये सब किस्से-कहानियाँ छोडो, बहादुरी तो तब होती जब पद्मिनी भी औरतों को लेकर किले की रक्षा में कुछ हाथ बँटाती। ऐसा न समझ लेना कि उन पद्मिनियों से अब काम चल पाएगा जो अपने मरे हुए भाइयों और पतियों के शरीर के साथ-साथ जल जाएँ। उनसे भी देश की रक्षा संभव नहीं।
अभी कुछ दिनों पहले एक किस्सा मैंने पढ़ा अमरीका का कि एक पति और पत्नी हवाई जहाज पर उड़ रहे थे। वे अमीर रहे होंगे, उनका अपना हवाई जहाज था। श्री ब्लेक और श्रीमती ब्लेक, उनका नाम भी छपा था अखबार में। हवा में उड़ते-उड़ते पति को मालूम होता है, हृदय का कोई आघात हो गया और वह मर गया। अब जरा अंदाजा लगाओ। हवाई जहाज पर ये दोनों हैं, और कोई नहीं है। पति मर जाता है, बगल में औरत बैठी हुई है। उसे हवाई जहाज उड़ाना नहीं आता। साधारण तौर पर हमारे देश की स्त्री क्या करेगी? एक तो उसके मन पर इतना आघात होगा कि वह खाली रोना ही सोचेगी, दूसरे उसको भूत वगैरह के पचास झंझट दिखने लग जाएँगे। लेकिन श्रीमती ब्लेक ने हवाई जहाज में बोलने और सुनने की जो मशीन होती है उसके जरिये हवाई-अड्डे से बातचीत करना शुरू किया कि देखो, मैं और मेरे पति इस हवाई जहाज में उड़ रहे थे, मेरा पति मर गया है और मैं बिलकुल नहीं जानती कि हवाई जहाज कैसे चलाया जाता है, तो तुम अब मुझे बताओ कि किस मशीन को, किस यंत्र को किस तरह से मोडूँ। तब नीचे से उसको हवाई रेडियो आता है कि यह यंत्र अब इस तरह से घुमाओ। वह घुमा देती है और करते-करते वह हवाई जहाज को नीचे उतार लेती है। किसको पसंद करोगे? ऐसी औरत पसंद करोगे जो आपके प्रति अपना प्रेम, अपनी भक्ति, अपना आदर आपके मरने के बाद आपके शरीर के साथ या शरीर के बिना जल कर दिखाये या ऐसी औरत पसंद करोगे जो आप ही के साथ-साथ या आपके आगे-पीछे देश की रक्षा करते हुए खुद अलग से मरे। जब तक हम अपने सोचने को ढंग को नहीं बदलेंगे, तब तक अपने देश की इन कमजोरियों से छुटकारा नहीं पा सकते। एक बात बिलकुल समझ करके रखनी चाहिए कि इतना ज्यादा जम जाना, एक तालाब के पानी की तरह जिसमें काई आ जाती है, गंदा हो जाना, किसी भी देश और धर्म के लिए खतरनाक हुआ करता है।
मैं नहीं जानता कि किस हद तक उस कर्मकाण्ड और ब्रह्मज्ञान का संबंध आज के गंदे पानी के जमाव से है। थोड़ा बहुत तो संबंध है ही, ज्यादा है कम-है, इसके ऊपर सोच-विचार करके उसके दूर करने की अब जरूरत बहुत आ गयी है। मुझे ऐसा लगता है कि इस जमाव का एक बहुत बड़ा कारण जातिप्रथा है। यह संसार में और कहीं नहीं है। सिर्फ हिंदुस्तान में है। जातियों में हम लोग बँटे हुए हैं। सिर्फ चार-पाँच बड़ी जातियाँ ही नहीं हैं, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र-हरिजन वगैरह में भी हजारों उपजातियाँ हैं, बल्कि दस हजार उपजातियाँ हैं। ऐसा लगता है कि यह जाति-संगठन हिंदुस्तान ने इतना बढ़िया, अपने उपयुक्त पाया कि जब कभी भी कोई समुदाय तादाद में ज्यादा हो जाता है, कोई जाति संख्या में बहुत बढ़ जाती है, तब उसके अंदर से उपजाति भी बन जाती है। शायद इसलिए भी कि जाति के जो बहुत से काम हैं, ज्यादा संख्या वाली जाति पूरा नहीं कर पाती। जाति एक तरह से बीमा कंपनी है। शादी, पैदाइश, मौत, बेकारी सभी मौके पर जाति काम आती है। चाहे और पचास तरह के संबंध कायम हो जाएँ, लेकिन आज एक हिंदुस्तानी किस चीज के ऊपर निर्भर कर सकता है? निर्भर वह केवल जाति पर कर सकता है। बारात निकालनी होगी तो ज्यादातर बारात में कौन आएँगे, शव ले जाना होगा, उसके जाति के लोग आएँगे। पैदाइश के मौके पर उसके जाति वाले आएँगे और अगर बेकार हो गया, बीमार पड़ गया तो कुछ थोड़ी बहुत देखभाल करने के लिए जाति वाले आएँगे। यह सबके लिए लागू है।
ये जातियाँ, उपजातियाँ बहुत हो गयीं। वैसे, वेद के जमाने में, विशेषतः ऋग्वेद में केवल एक शब्द था, विश्, जो उस जमाने के लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। ऐसा हो सकता है कि इन विश् लोगों में समय के अनुसार बँटवारा होता चला गया। कुछ विश् लोगों ने पूजा का काम किया, कुछ ने लड़ाई वगैरह का काम किया, कुछ ने खेती, धंधा, व्यापार वगैरह का काम किया, तो नतीजा यह हुआ कि उसमें अनेक प्रकार की डालियाँ निकल गयीं, कोई क्षत्रिय हो गये, कोई ब्राह्मण। मुझे ऐसा लगता है कि आज जो वैश्य हैं वह उसी विश् का वंशज हैं, उसी से निकला हुआ। इसमें भी पचासों तरह के हो गये। बनियों मे कोई ऐसा है कि जिसके बाप-दादों ने थोक धंधा किया तो वह तो अग्रवाल वगैरह बन कर ऊँची जाति में शामिल हो गया और बाप-दादों के हिसाब से जो बेचारा गरीब रहा है या जिसने फुटकर व्यापार किया, उसको तेली, कलवार कह कर छोटी जाति में कर दिया। कितनी मजेदार बात है जातियों के बारे में कि यह चीज पैसे से कितनी जुड़ी हुई है। जिसके पुरखों ने थोक व्यापार किया वह हो गया सेठ-साहूकार, अग्रवाल-वैश्य, द्विज और जिसके पुरखों ने फुटकर व्यापार किया वह हो गया तेली-कलवार वगैरह, वगैरह।
कमाल यह है कि इन जातियों के होने के कारण बँधाव आ गया, लोगों का मन बँध गया और हर एक आदमी अपनी जगह पर थोड़ा बहुत संतुष्ट है। यह सबसे बड़ी बात हुई है कि वह चाहे जितना दुखी है, चाहे जितना सताया हुआ है, चाहे जितना दरिद्र है, लेकिन अपनी जगह पर सुखी है। अपने बदलाव को भी वह नहीं पसंद करता। कहारों के बीच में जब मैं गया, और उनसे कुछ किस्सा-कहानियाँ सुनने लगा तब पता चला कि उनके दिमाग में भी क्या घमंड घुसा हुआ है। कहार बर्तन माँजते हैं, मछली पकड़ते हैं, लेकिन फिर भी अपने कुलगोत को जब याद करते हैं, अपने कुल देवता को, तब उनके यहाँ एक किस्सा मशहूर है कि शिव महाराज के दो लड़के थे। एक लड़का ईमानदार था, दूसरा बेईमान था। एक लड़का सरल, सहज स्वभाव का था, दूसरा चतुर और कपटी था। शिव महराज ने दोनों को समान रूप से हीरे-जवाहरात बाँट दिये। जो कपटी और छली था उसने इस सरल और सहज वाले लड़के के हीरे-जवाहरात को हड़प लिया। जो सरल और सहज स्वभाव का था, वह तो हो गया कहार, मछुआ और जो कपटी था वह हो गया क्षत्रिय। यह किस्सा कहारों के घर में प्रचलित है। साल भर में एक दफे गुप्त रूप से वे अपने कुलदेवता की पूजा करने के लिए इकट्ठा होते हैं। उनके दिमाग में यह घमंड घुसा हुआ है कि हम तो बड़े हैं, सरल, सहज, अच्छे लोग हैं और ऊँची जाति वाले कपटी हैं, इन्होंने हमारा धन छीन लिया है। अब हमारे जैसा आदमी कहारों के बीच में जाकर उनको इनकलाब के लिए तैयार करने की कोशिश करे कि अरे भाई कहार उठो, करो क्रांति, तो उनके दिमाग में पहले से ही हिंदू धर्म ने एक चीज की जड़ जमा दी है कि तुम ठीक हो, तुम तो बड़े हो, तुम्हारा पुरखा तो बड़ा सरल और सहज स्वभाव का था, ये तो छली लोग हैं।
(जारी)