— सेवाराम त्रिपाठी —
जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनाएगा/ यह भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलाएगा।” – (स्वामी सहजानंद सरस्वती) “यह आशा करना कि पूँजीपति किसानों की हीन दशा से लाभ उठाना छोड़ देंगे, कुत्ते से चमड़े की रखवाली करने की आशा करना है। इस खूँखार जानवर से अपनी रक्षा करने के लिए हमें स्वयं सशस्त्र होना पड़ेगा।” (प्रेमचंद)
किसान-आंदोलन कहीं आकाश से उतरकर जमीन पर नहीं आया। वह इसी धरती की ठोस उपज है; जो आवश्यकताओं और किसानों की वास्तविक परिस्थितियों से पैदा हुआ है। किसानों के दुख, पीड़ाएँ, संघर्ष और समस्याएँ उसके मूल में है। उन्हें इसी से जोड़कर देखना चाहिए। किसान-आंदोलन के पूर्व के इतिहास को उसके कई कदमों से संबद्ध करके ही देखना चाहिए। पाबना-विद्रोह, तेभागा-आंदोलन, कूका-विद्रोह, चंपारण-आंदोलन, बारदोली-सत्याग्रह, मोपला-विद्रोह, स्वामी सहजानंद सरस्वती का किसान आंदोलन इसके मूल में हैं। सहाजानंद ने तो किसानों को ही जीवन का लक्ष्य घोषित किया था। जैसे राजनीति की राजनीति है उसी तरह किसान आंदोलन की भी विधिवत घोषित राजनीति है; लेकिन वह किसी प्रकार के राजपाट की माँग का आंदोलन नहीं है और न ऐसी राजनीति है। इस बारे में फैलाये गये भरम या परम झूठ को भी समझना चाहिए।
किसान-लूट में केवल पूँजीपति नहीं हैं; बल्कि सत्ताएँ भी लूटमार में उनकी हस्ती मिटाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती रही हैं। किसान-आंदोलन के प्रति सरकार का यह रवैया और गैर-जिम्मेदाराना हरकत यही बताती है। यह स्थिति अब भी जारी है। सत्ता ने अपनी मार्केटिंग के लिए अपने को हर हाल में सही साबित करने के लिए किसान-आंदोलन को बदनाम करने की लगातार कोशिश की। किसानों की वास्तविक समस्याओं को समझने के प्रयत्न ही नहीं हुए; पूर्व में ही किसान-आंदोलन के बारे में उसकी धार को कुंद करने के लिए तरह-तरह की धारणाएँ बना ली गयीं और विकसित की गयीं। महात्मा गाँधी ने समूचे देश में घूम-घूमकर देश के हालात और वास्तविकता को समझा था; लेकिन किसान आंदोलन की न तो जमीन देखी गयी और न उसकी समस्याएँ समझी गयीं। उनके आंदोलन को हवा में उड़ाये जाने के क्रियाकलाप चलते रहे। उनके कष्टों को, उनकी तकलीफों को बार-बार अनदेखा किया जाता रहा।
यह आंदोलन भक्ति-आंदोलन की तरह स्वाधीनता-आंदोलन की तरह किसानों की समस्याओं का, उनकी वास्तविकता का आईना भी रहा है। लगभग एक वर्ष से चल रहे आंदोलन को गलत मनोविज्ञान से निपटने की योजनाबद्ध कार्रवाई हुई; लेकिन सच्चाई यह है कि किसानों के जनप्रवाह, जनज्वार में निरंतर बदलते गये। किसान-आंदोलन किसानों के मिजाज की तरह ठंडा होते हुए भी इसमें भीतर-ही-भीतर अभूतपूर्व फैलाव और ज्वलनशीलता रही है, तभी यह हर तरह की आँधियों और तूफानों का बहादुरी से सामना कर सका और इसकी लौ कभी धीमी नहीं हुई।
इस किसान आंदोलन में भारतीय जनता के अपार संघर्ष रहे हैं। इस आंदोलन को सलाम करने की इच्छा होती है। इसकी गहरी जिजीविषा किसानों के संघर्षों, जीवन-मूल्यों और तापों से पैदा हुई है। जिन्होंने अपने आत्मीयों-परिजनों के शव ढोये हैं और अपने प्रिय लोगों के जनाजे उठाये हैं, वे ही इस अपार यातना को समझ सकते हैं। सत्ता-व्यवस्था और मीडिया ने तो आँकड़ों की बाजीगरी की है; चाहे वह संशोधित नागरिकता कानून के विरोध में चले आंदोलन के संदर्भ में हो, नोटबंदी हो, कोरोना हो या किसान आंदोलन हो। उसे आखिर हासिल क्या हुआ? किसी को फिक्र हुई, इस कार्रवाई में कितने लोग परेशान हुए, कितने मरे और कितने प्रताड़ित हुए?
आँकड़ों की बाजीगरी से देश नहीं चला करते। व्यवस्था ने पहली बार अपने गलियारों में नाक रगड़ने वालों को, हाँ जी-हाँ जी करने वालों को करीने से साधा। कॉरपोरेट घरानों को अपना पक्षधर बनाया और यह करिश्मा देश में पहली बार बड़े व्यापक पैमाने पर हुआ है। पहले छुटपुट होता था, अब तो विशाल दरिंदगी पर यह खेला जारी है। घोषणा हुई; लेकिन किसानों को देखना है कि कितनी राहत मिलती है और कितना कुछ हवा हवाई है। ये बातें हमें किसान आंदोलन के सिलसिले में बहुत गंभीरता से सोचने-विचारने की हैं; जो देश में हर समय घटता रहा या घटाया जाता रहा। मामला मॉब लिंचिंग का हो या बलात्कार के तमाम रूपों का, कभी ऐसा नहीं लगा कि यह अपनी ही सरकार है और किसान इसी देश के हैं; इसी मिट्टी में पैदा हुए हैं और यही अपनी मेहनत-मजदूरी और अपना सब कुछ दाँव पर लगाते हैं। यहीं उनकी नाभि-नाल गड़ी है। ये इस महादेश के पुस्त-दर-पुस्त के स्थायी निवासी हैं। किसान आंदोलन की कोख में मँहगाई, बेरोजगारी और क्रूर असमंजस है।
प्रश्न है कि किसान जो कि देश के असली अन्नदाता है; उन्हें नकली क्यों बताया जा रहा है? वे अपनी उपज के सही दाम-निर्धारण की बात करें तो नाजायज है! उनकी मौतों की कोई कीमत नहीं! ये वो लोग हैं जो कहते हैं कि वे किसान के बेटे हैं या उसे जोड़कर बड़े-बड़े तख्तोताज तक पहुँचे हैं। यह विडंबना जनपक्षधरता से नहीं; बल्कि व्यवस्था की भक्ति और उसके बगलगीर होने से पैदा हुई है। सरकार द्वारा कीलें ठोंकना जायज है! खड्डे-खाइयों से भी जी नहीं भरा और न अनर्गल प्रलाप से। किसानों की मौतों की तो शायद कोई कीमत ही नहीं है; कोई बकत नहीं। उनको श्रद्धांजलि देना सरकार के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं लगा।
किसानों की माँगों को खत्म करने के लिए मनमाने आँकड़ों को पटका जा रहा है। लोगों को मालूम नहीं है कि किसान जो उत्पादन करता है वह सब कुछ नहीं बेच देता। उसका उपयोग अपने निस्तार के लिए भी करता है। जो ज्यादा होता है उसे बेचता है। तरह-तरह के शिगूफे सरकार व उससे जुड़े लोगों ने कानूनों को निरस्त करने के बाद फेंकने शुरू किये हैं। किसान अपनी फसलों की बिक्री न करें तो क्या करें? दैनिक जीवन में उपयोग करनेवाली चीजें उसे कोई सेंत में या खैरात में तो देता नहीं, न उसे इसकी चाहत है। उसे अपने जिंसों की बिक्री करने से ही जीवनचर्या में सुविधा मिलती है।
अनाज, वस्तुएँ, सब्जी, दूध, फल, चाय और उसी तरह के तमाम उत्पादन किसान बेचकर ही अपना गुजारा करता है। कॉरपोरेट घरानों से सरकार डरे, किसान नहीं। बीच-बीच में तमाम हस्तियाँ यह याद करती हैं कि हम तो किसानों से संबद्ध हैं और हमारा उनसे कोई मतभेद नहीं है। हम भी किसान के बेटे हैं। वाह क्या नजरिया है इस खाये-अघाये और पूरी तरह से बौराये सामाजिक मनोविज्ञान का; जो व्यवस्था के साथ मिलकर इस तरह की क्रूरतम कार्रवाई करने में जी-जान से भिड़ा है।
असलियत एक होती है, अलग-अलग नहीं। काले कृषि-कानूनों वाकई गलत थे; जो कि एकदम गलत थे, फिर क्यों लगभग 700 किसानों के शहीद होने पर सरकार को उन्हें वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा? कुतर्कों का तो इस दौर में जखीरा रहा है। सांसद भी तो मुट्ठी भर होते हैं। वे समूची जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते। संसद में जो बहसें हुई हैं और जो दलीलें दी गयी हैं, वे क्यों अनदेखी की जा रही हैं? इस कानून के बारे में, कोरोना के बारे में, नागरिकता के बारे में, नोटबंदी के बारे में।
अपने हकों के लिए अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना, आंदोलन करना इस प्रजातांत्रिक देश में गुनाह है क्या? जो आंदोलन करेगा, वह ‘आंदोलनजीवी’ हो जाएगा! तब तो हमारे देश में स्वाधीनता आंदोलन भी नहीं होना चाहिए था। देश में हुए असंख्य आंदोलन— असहयोग-आंदोलन, सविनय अवज्ञा-आंदोलन, भारत छोड़ो-आंदोलन जेपी आंदोलन, जॉर्ज फर्नांडिस का रेल रोको आंदोलन, छात्रों के आंदोलन, युवकों के बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन भी नहीं होने चाहिए थे। सरकार जनता के लिए है; जनता सरकार के लिए नहीं। जनता सरकार के गलत कामों के लिए तो कभी नहीं। जो जनता का पक्षधर नहीं है, सत्ता का प्रवक्ता है।
आँकड़ों की अपनी लीला भी होती है और कर्मकुंडली भी। आँकड़ों का विराट खेला भी होता है। कुछ एजेंसियाँ आँकड़ों का सच्चा झूठा प्रबंधन भी करती हैं। अपना-अपना विश्लेषण भी हुआ करता है। भारतीय समाज एक जटिल समाज है; लेकिन, हम तो भारतीय प्रजातांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक मान्यताओं को भी जटिल बनाने पर अड़े और तुले हुए हैं। किसानों की मौत के बारे में बातें रखना तिल का ताड़ बनाना नहीं होता है। हम तो गर्व के साथ कहते हैं कि हम किसान के बेटे हैं। देश में जो सत्ता और अन्य दलों की राजनीति है, क्या वह प्रदूषित नहीं है? क्या सत्ता की राजनीति सुरक्षित और दूध की धुली हुई है? क्या वह प्रदूषित नहीं है?
ऐसे बहुत सारे मुद्दे हैं जिन पर हम विचार ही नहीं करना चाहते हैं; केवल एक बड़े पैमाने पर बचाव की मुद्रा में होते हैं। शब्दों को तरह-तरह से भाँजते है। क्या हमारे देश में जनता की मौतों के बारे में कोई बात नहीं की जाए; उनकी समस्याओं को अनदेखा किया जाए? हम ऐसी तथाकथित तटस्थता के प्रशंसक न हैं और न होना चाहते हैं।
हम किसानों के संघर्षों में, उनकी आवाज में, उनकी समस्याओं में इस समग्र आंदोलन को देखते हैं। किसान परिवार से आए तथाकथित ज़िम्मेदार किसानों की समस्याओं को अनदेखा करते हैं। यह उनकी अपनी प्रकृति हो सकती है; इस देश के हमारे नागरिकों की नहीं। किसानों की समस्याएँ विवाद का विषय नहीं हैं और न उनकी माँगें और समस्याएँ। शासक वर्ग हो या अधिकारी, कर्मचारी वर्ग, किसान-परिवार में पैदा होकर ही व्यवस्था से जुड़ते हैं।
किसानों का एक आवश्यक अंग होने के नाते हम किसानों की स्थिति, समस्याएँ और आपदाएँ बहुत निकट से देखते हैं। आज भी इतने परिवर्तनों के बावजूद किसान अपने जीवन-यापन के लिए, अपनी जीवन-रक्षा के लिए, अपने आपको बचाने के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। समूचे देश के किसान घोर विपदा में हैं। उनकी समस्याओं को पता नहीं किस चश्मे से देखा जा रहा है? खेती-किसानी की समस्याएँ राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी हैं और उसी अनुपात में उनको अवहेलित करने के प्रचुर संसाधन भी। अब भी ग्रामीण भारत के इलाकों में जीने-खाने अहम सवाल खड़े हैं; जिन्हें लगातार अनदेखा किया जा रहा है।