पं.देवनारायण द्विवेदी : कर्ममय जीवन के 98 साल

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— योगेन्द्र नारायण —

भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य को जहां आमफहम रूप मिला, वहीं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उसका संस्कार कर भाषा को व्याकरण-सम्मत एकरूपता प्रदान की। आधुनिक हिन्दी गद्य के उत्थान के प्रथम चरण भारतेन्दु युग में बांग्ला, अंग्रेजी और मराठी के अनुवाद के अलावा मौलिक रूप से ज्यादातर नाटक और निबन्ध ही लिखे गये, परन्तु परिमार्जन काल (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग) में अनुवाद के अलावा मौलिक रूप से लिखे गये उपन्यासों, कहानियों एवं निबन्धों की बाढ़ सी आ गयी। इसके पश्चात का समय हिन्दी साहित्य में नयी जागरूकता के साथ भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में बाद में हुए परिवर्तनों के उथल-पुथल का काल था। जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक क्षेत्र में राष्ट्रीय परिवर्तन की वाहिनी संस्था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885) का गठन हुआ तथा हिन्दी साहित्य में माधव शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, प्रेमचन्द, लक्ष्मीनारायण मिश्र आदि महारथियों का प्रादुर्भाव हुआ।

साहित्य और राष्ट्रीय जीवन में उथल-पुथल की इस उषा बेला में सन 1892 में कछवा रोड रेलवे स्टेशन के पास मिर्जापुर जिले के भंइसा गांव में भाद्रपद शुक्ल दशमी के दिन पं. देवनारायण द्विवेदी का जन्म हुआ। सामान्य मध्यवित्त परिवार के द्विवेदीजी के सरल हृदय पिता रामप्रसाद द्विवेदी संस्कृत के पंडित थे तथा जीविका के लिए थोड़ी सी खेती थी। उस समय की आर्थिक स्थिति में जैसे-तैसे हरिश्चन्द्र स्कूल से उन्होंने नौवीं कक्षा पास कर ली, परन्तु आगे की पढ़ाई कठिन थी। उस समय हरिश्चन्द्र स्कूल का अपना कोई भवन नहीं था। भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा महज पांच विद्यार्थियों के साथ चौखम्बा में स्थापित यह स्कूल अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा था। कभी सितारेहिन्द के बरामदे में, तो कभी दीनानाथ के गोले में स्थित बेतिया के राजा के भवन में और कभी टाउनहाल में पढ़ाई चलती थी। डममगाते स्कूल की डगमगाती उनकी पढ़ाई पूरी हो गयी। परिवार के भरण-पोषण की समस्या तो थी ही, भीतर के रचनाकार और बाहर के राष्ट्रीय जागरण ने उन्हें भंइसा से वाराणसी और वाराणसी से कोलकाता (कलकत्ता) पहुंचा दिया।

द्विवेदीजी ने जीविका के लिए कलकत्ता के नारायण बाबू लेन में सन 1918 में ‘भारतीय पुस्तक एजेन्सी’ नामक प्रकाशन संस्था खोल ली तथा रचनाकार और सामाजिक दायित्व की पूर्ति हेतु हिन्दी साहित्य परिषद का गठन कर कार्य शुरू किया। इसी नारायण बाबू लेन में शिवपूजन सहाय का ‘भारतीय प्रकाशन मंडल’, महावीर प्रसाद पोद्दार की ‘हिन्दी पुस्तक एजेन्सी’, जिसे बाद में स्व.बैजनाथ केडिया ने ले लिया, रामकुमार भुवालका का ‘भारतीय साहित्य मंदिर’, पं.झाबरमल शर्मा का ‘प्रकाशन संस्थान’ आदि थे।

जिस प्रकार इलाहाबाद का दारागंजबंबई (मुम्बई) का खेतवाड़ी से लेकर हीराबाग तक का क्षेत्र हिन्दी प्रकाशन के गढ़ माने जाते थेउसी प्रकार कलकत्ते का नारायण बाबू लेन हिन्दी साहित्य की गतिविधियों का संचालन केन्द्र माना जाता था। यहां पं.अम्बिका प्रसाद वाजपेयीनिरालाउग्रपं.लक्ष्मीनारायण गर्दे,बाबू मूलचन्द अग्रवालपं.बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी को चहलकदमी करते हुए देखा जा सकता था।

सन् 1921 में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ होने पर द्विवेदीजी ने दो पैसे में प्रचार पम्पलेट निकालना शुरू किया जिसकी महीने में एक लाख से अधिक प्रतियां बिक जाती थीं। इसी समय मौलाना अबुल कलाम ‘आजाद’, देशबन्धु चितरंजन दास, सम्पादकाचार्य अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, राष्ट्रकवि माधव शुक्ल, विश्वमित्र के संस्थापक एवं सम्पादक मूलचन्द अग्रवाल आदि लोगों के साथ जेल भी गये। सन् 1923 में गया कांग्रेस के अवसर पर, सखाराम गणेश देउस्कर की 1906 में छपी ‘देशेर कथा’ नाम की पुस्तक के आधार पर ‘देश की कथा’ नाम की पुस्तक प्रकाशित की, जो बाद में अंग्रेज सरकार द्वारा धारा 124ए के तहत जब्त कर ली गयी। पुस्तक का जबरदस्त स्वागत हुआ और एक ही वर्ष में उसके तीन संस्करण हुए।

इसी अधिवेशन के समय कलकत्ता की कुमार सभा पुस्तकालय की ओर से ‘यंग इण्डिया’ में गांधीजी द्वारा लिखे गये सम्पादकीय एवं पत्रों का हिन्दी अनुवाद भीछप कर आया। ढाई हजार पृष्ठों के (तीन खण्डों में छपे) अनुवाद की भी बहुत प्रशंसा हुई। पुस्तक के अनुवादक पं. छविनाथ पाण्डेय थे। इसी प्रकार भारतीय पुस्तक एजेन्सी से प्रकाशित ‘पंजाब का भीषण हत्याकाण्ड’ पुस्तक प्रकाशित होते ही इसकी 22 हजार प्रतियां बिक गयी थीं। ‘किसान सुख साधन’ (काशी पुस्तक भंडार,1939) नाम की इनकी एक और पुस्तक भी प्रतिबंधित कर दी गयी। करीब 15 वर्षों तक कलकत्ता में रहने के बावजूद आर्थिक स्थिति न जम पाने के कारण वे वाराणसी वापस चले आये तथा वाराणसी और मिर्जापुर को ही अपना कार्यक्षेत्र बना कर सक्रिय हुए।

द्विवेदीजी 17 वर्ष की उम्र में जैसे कलकत्ता गये थे, वैसे ही कोरे नहीं लौटे थे। उनके साथ था अधिक पुष्ट संस्कृत और अंग्रेजी भाषा और साहित्य तथा नयी सीखी बांग्ला भाषा और साहित्य का ज्ञान। आर्थिक रूप से वे भले ही खाली थे, परन्तु बड़े राजनेताओं, साहित्यकारों और व्यवसायियों के सान्निध्य से उन्होंने विपुल वैचारिक संपदा बटोरी, जिसे अपने चरित्र बल से मिलाकर उन्होंने जमकर आगे के कार्यों में उपयोग किया। युवावस्था में खादी के सफेद धोती-कुर्ते को जो धारण किया तो अंत तक यही उनका परिधान रहा। इसमें बाद में एक छड़ी भी जुड़ गयी थी। अपने आवास चाहे वह बड़ा गणेश मुहल्ले का रेलवे टाइम टेबल प्रेस हो या दुलहिनजी रोड स्थित सन्मार्ग प्रेस के ऊपरवाला हिस्सा या नगवा का अंतिम आवास, जहां भी देखा घर के अंदर खड़ाऊं, धोती और फतुही में या घर के बाहर छड़ी के साथ पैदल आते-जाते। रिक्शे पर बैठ कर जाते तो कभी नहीं देखा।

92 वर्ष की आयु में जबकि आंखें समलबाई (ग्लुकोमा) के कारण धुंधला गयी थींनगवा से चौक तक वह पैदल ही जाते आते थे। उनसे कुछ देर की ही मुलाकात कोई नई जानकारी दे जाती थी। एक बार बताया कि बीड़ा उठाने का मुहावरा कैसे बनातो एक बार उन्होंने चर्चा में बताया कि सरसों के तेल को कैसे रंग और गंधहीन कर पकवान बनाने में प्रयुक्त किया जाता था।

इस तरह की उनसे प्राप्त कई छोटी-छोटी जानकारियां याद हैं और बहुत सी विस्मृत हो गयीं। व्यवहार के वे मूर्तिमान स्वरूप थे तथा आवेश में आकर बात करना तो जैसे वे जानते ही नहीं थे।

द्विवेदीजी 1930-31 में स्वतंत्रता संग्राम शिविर में ‘मतवाला’ के सम्पादक महादेव सेठ, यूसुफ इमाम तथा हनुमान प्रसाद पाण्डेय की गिरफ्तारी के बाद मिर्जापुर जिला कांग्रेस के चौथे डिक्टेटर चुने गये। मिर्जापुर में ही हुए प्रान्तीय कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन की स्वागत समिति के मंत्री भी बनाये गये। एक तरफ देश की आजादी के लिए द्विवेदीजी अपना कर्तव्य निभा रहे थे दूसरी ओर सामाजिक जागरण व पुनर्निर्माण के लिए। साथ ही साहित्य के क्षेत्र में भी सक्रिय थे, उनके चार उपन्यास ‘कर्तव्याघात’, ‘प्रणय’, ‘पश्चाताप’ और ‘दहेज’ आ चुके थे।

कहना न होगा कि उपन्यासकार के रूप में द्विवेदीजी प्रेमचन्द की परंपरा के व्यक्ति थे तथा सन 1926 में फरवरी के ‘माधुरी’ पत्रिका के अंक में ‘कर्तव्याघात’ उपन्यास की आलोचना लिखते हुए प्रेमचन्दजी ने यहां तक लिखा कि ‘हिन्दी में इतना अच्छा उपन्यास अब तक हमारी नजरों से नहीं गुजरा था। कहानी इतनी सुन्दर है, लेखक की शैली इतनी प्यारी है, चरित्रों का प्रदर्शन इतना मनोहर है कि पाठक मानो भावों के उद्यान में विचर रहा है। कहीं मानमय पितृभक्ति है, तो कहीं दीपशिखा की भांति हृदय में जलनेवाला पु़त्र प्रेम! चित्रकला का चित्र तो हिन्दी संसार में एक अनूठी वस्तु है।…हम पाठकों से अनुरोध करते हैं कि इस करुणकथा को अवश्य पढ़ें। ऐसे उपन्यास उन्होंने कम पढ़े होंगे।’

‘दहेज’ उपन्यास लिखने का आग्रह काशी पुस्तक भंडार के मालिक सूर्यबली सिंह ने पहले प्रेमचन्दजी से ही किया था, परन्तु अस्वस्थता की वजह से उनके न लिख पाने के कारण यह दायित्व द्विवेदीजी को सौंपा गया। द्विवेदीजी के बड़े सुपुत्र शंकरदत्त द्विवेदी ने बताया कि दहेज विषय पर उपन्यास लिखने का अनुरोध आदरणीय श्रीप्रकाश जी ने भी किया था और सन 1940 में उपन्यास प्रकाशित होने के एक वर्ष के भीतर तीन संस्करण छपे। इस उपन्यास का 36वां संस्करण तो मैंने खुद देखा था। इस समय पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने इसका नया संस्करण छापा है, परन्तु श्रीप्रकाशजी की भूमिका गायब है। इस समय जब नारी विमर्श पर जगह-जगह संगोष्ठियां चल रही हों और विद्वत्तापूर्ण भाषण दिये जा रहे हों, नारी उत्पीड़न और दहेज की कुप्रथा पर ‘दहेज’ उपन्यास अपनी पूरी प्रासंगिकता के साथ अपने को जनवादी, प्रगतिवादी, आधुनिक आदि कहे जानेवाले तमाम लेखकों के लिए इस विषय पर आगे कुछ लिखने की चुनौती के रूप में खड़ा है।

द्विवेदीजी का ‘प्रणय’ उपन्यास भार्गव पुस्तकालय गायघाट से सन 1935 में छपा तथा इसी प्रकाशन की मासिक पत्रिका ‘कमला’ में इसके कुछ अंश धारावाहिक रूप से छपे, परन्तु इस उपन्यास को सन 1929 में साहित्य आश्रम भंइसा से स्वयं प्रकाशित कर चुके थे। भार्गव पुस्तकालय ने रावर्ट ब्लैक सीरिज के लगभग सौ जासूसी उपन्यासों के उनके द्वारा किये गये अनुवाद भी छापे। इनमें से कुछ उपन्यास अब भी नागरी प्रचारिणी सभा के पुस्तकालय में सुरक्षित हैं।

इसके अलावा महर्षि अरविंद की धर्म और जातीयता (हिन्दी साहित्य मंदिर, 1923), हमारी स्वतंत्रता कैसी हो? (काशी पुस्तक भंडार,1934) और क्या भारत सभ्य है? (काशी पुस्तक भंडार,1934) के अनुवाद, गीता की भूमिका, अरविंद मंदिर में, घाघ और भड्डरी की कहावतें (संकलन), ब्रह्मचर्य का महत्त्व, हमारा आहार (प्रो.मीनू मसानी द्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद), संतान विज्ञान, लव लेटर (संपादकीय), रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली(1942), दोहावली, हनुमान बाहुक की टीका, गोरा (रवीन्द्रनाथ टैगोर), शरदचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यासों के अनुवादों एवं अपने लेखों के माध्यम से वे हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में लगे रहे। उन्होंने गीतांजलि का पद्यानुवाद भी किया जो समालोचकों द्वारा पर्याप्त सराहा गया।

सन् 1942 में सूर्यबली सिंह द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘काशी समाचार’ के द्विवेदीजी सम्पादक हुए। साल भर तक यह पत्रिका पूरी गरिमा के साथ प्रकाशित हुई, परन्तु बाद में कागज न मिल पाने के कारण यह बंद हो गयी। इसके पश्चात द्विवेदीजी के जीवन में ज्ञानमंडल लिमिटेड के प्रकाशन विभाग के अध्यक्ष के रूप में नया मोड़ आया और अब उन पर अपने अलावा दूसरों से भी लिखवाने का बड़ा दायित्व आ पड़ा तथा इस प्रयत्न में द्विवेदीजी असफल नहीं रहे। कलकत्ते में होमरूल कार्यालय में नौकरी करने के दौरान वे यह समझ चुके थे कि नौकरी करते हुए अलग से कुछ नहीं किया जा सकता और उन्होंने नौकरी छोड़ अपनी प्रकाशन संस्था खोली थी। इसके बाद वे नौकरी करने के सर्वथा अनिच्छुक थे, परन्तु डॉ. सम्पूर्णानन्दजी के ज्ञानमंडल लि. का प्रकाशन दायित्व सँभालने के अनुरोध को वे टाल नहीं सकते थे और निरंतर 75वर्ष की आयु तक उन्होंने इस दायित्व को बखूबी निभाया।

इस कार्यकाल के दौरान ज्ञानमंडल से वृहत हिन्दी कोश, ज्ञान शब्दकोश, वृहत अंग्रेजी-हिन्दी कोश, पर्यायवाची कोश, भाषा विज्ञान कोश आदि महत्त्वपूर्ण कोशों के अलावा अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुईं। शंकरदत्त जी ने बताया कि वे चंदबरदाई से लेकर दिनकर तक की हिन्दी की ओज प्रधान परंपरा पर ‘चांद से सूरज तक’ पुस्तक लिखवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने आचार्य सीताराम चतुर्वेदी से अनुरोध भी किया परन्तु चतुर्वेदी जी उस समय नाट्यशास्त्र लिखने में व्यस्त थे तथा उन्होंने इस कार्य के पूर्ण होने पर पुस्तक लिखना स्वीकार भी कर लिया, परन्तु यह कार्य हो नहीं पाया। वे स्वयं हास्य का पुट लिये हुए एक उपन्यास लिखना चाहते थे, परन्तु यह इच्छा भी पूरी नहीं हो पायी।

उनकी अन्तिम कृति ‘स्मृति के पारिजात’ है, जिसे मृत्यु से एक वर्ष पूर्व आंखों से दिखायी न पड़ने के कारण उन्होंने दूसरे से बोल कर लिखवायी। श्री हनुमान साहित्यानुसंधान संस्थान, कलकत्ता से (सन् 1988) में प्रकाशित इस पुस्तिका में अपने गुरु गोविन्द नारायण मिश्र, महामना मालवीयजी, महात्मा गांधी, पुरुषोत्तमदास टंडन, आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. भगवानदास, लक्ष्मणनारायण गर्दे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, नाथूराम शंकर शर्मा, पद्मसिंह शर्मा, निराला जी, मूलचन्द अग्रवाल आदि 23 महान हस्तियों से संबन्धित संस्मरण लिखे हैं।

वे अखिल भारतीय हिन्दी प्रकाशक संघ के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे तथा दो बार लगातार अध्यक्ष चुने गये। प्रकाशक संघ के अध्यक्ष के रूप में वे प्रधानमंत्री नेहरूजी के पास शिष्टमंडल लेकर गये तथा उनसे अनुरोध किया कि पुस्तकों पर टेण्डर प्रणाली खत्म हो। इस शिष्टमंडल में सुमित्रानंदन पंत, वाचस्पति पाठक, रामचन्द्र टंडन, बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी आदि प्रमुख लोग थे। नेहरूजी पर द्विवेदीजी की बातों का बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने शिक्षा विभाग को प्रतिवेदन संस्तुत करके भेज दिया।

खड़ी बोली हिन्दी के विकास काल से लेकर सन 1988 में प्रकाशित ‘स्मृति के पारिजात’ नामक पुस्तक के प्रकाशन तक द्विवेदीजी ने हिन्दी साहित्य की करीब 75 वर्षों तक जो सेवा की है वह महज उनकी विशेषता नहींबल्कि उनके लेखन कार्य शुरू करने के काल की ही विशेषता रही।

हां! यह निश्चित रूप से उल्लेखनीय है कि द्विवेदीजी ने अपने प्रारम्भिक काल की इस परंपरा का पूरी निष्ठा के साथ पालन किया और शारीरिक रूप से असमर्थ होने के बावजूद अपनी स्मृतियों को दूसरों से लिखवाकर भी वे शरीर धारण करने का कर्तव्य निभाते रहे। शरीर छोड़ने के कुछ महीने पूर्व उनसे हुई मुलाकात, अंतिम हो गयी।

उस समय वे बहुत कमजोर हो गये थे, तथा थोड़ी दूर चलने में भी लड़खड़ा जाते थे, लेकिन दिमाग पूरी तरह सजग था और बिस्तर पर लेटे-लेटे ही वे कई आसन करते रहते थे। अंत में 28 नवम्बर 1989 को सतत गतिशील उनकी काया शांत हो गयी और साथ ही लगभग एक सदी की उनकी कर्ममय यात्रा को विराम मिला।

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