सच में? क्या आप ये सोच रहे हैं कि बीजेपी को 2024 में हराया जा सकता है? भाई, मैंने तो हार मान ली है।’ आपस की बातचीत में एक वरिष्ठ राजनेता ने मुझसे ये कहा। अमूमन वे बड़े पते की बात कहते हैं, सार्वजनिक जीवन में उनकी बात ध्यान से सुनी जाती है।
‘मैं तो रोज ही सोचता हूँ कि कहीं विदेश चला जाऊँ और वहीं किस्मत आजमाऊँ। हम जैसों के लिए यहाँ अब बचा ही क्या है।’ ये कहना था हमारे कार्यकर्ताओं में से एक, सबसे नौजवान साथी का। इस साथी से मेरा लगाव है, उनके लिए दिल में प्रशंसा के भाव रहते हैं।
चिन्ता में डूबी ऐसी ग़मनाक बातें मुझे रोज ही सुनने को मिलती हैं और ऐसी बातें कहने वाले होते हैं वो जो एक उदारवादी, लोकतांत्रिक और संविधान के लिखाई के हिसाब से चलनेवाले भारत के पक्ष में खड़े हैं। ये बातें आपको कई शक्लों में सुनायी देती हैं, जैसे ये कि ‘कोई और विकल्प नहीं है’ या फिर यह कि ‘उनके पास धनबल, बाहुबल, मीडिया-बल सबकुछ ही तो है।’ ऐसी बातों का एक रूप ये भी है : ‘ऐसा तो पूरी ही दुनिया में हर जगह हो रहा है। ट्रंप, पुतिन, एरदोगन किसी को देख लीजिए…।’
हमारे सार्वजनिक जीवन में ही नहीं बल्कि समाज के अवचेतन में भी एक गहरी निराशा आ बैठी है और ये बातें उस निराशा को और ज्यादा गहरा बनाने का काम करती हैं। हम किसानों की जीत का जश्न मनाते हैं और किंचित अचरज के भाव से सोचते हैं कि क्या ये जीत टिकाऊ साबित होगी। पश्चिम बंगाल में मिली जीत पर हम बल्लियों उछलते हैं लेकिन फिर उत्तरप्रदेश में चुनाव की बारी आती है तो विश्वास डाँवाँडोल होने लगता है। हम सत्यपाल मलिक सरीखे किसी व्यक्ति के शब्दों में अपने विश्वास के लिए सहारा खोजने लगते हैं। यह संताप की दशा है, हम संतप्त हैं।
और, यही नरेन्द्र मोदी की राजनीति की असली जीत है। इस राजनीति ने अपने विरोधियों को नकारात्मकता के भँवर-जाल में फँसा दिया है, और भँवर के जाले एक पर एक और गहरे होते जाते हैं : आप नकार के स्वर में बातें करते हैं और आपके इस नकार को लोगों का इनकार मिलता है,इससे नाउम्मीदी और बढ़ती है जो आपको लोगों से और ज्यादा दूर ले जाती है। यों होता ये है कि खेल अभी शुरू भी नहीं हुआ होता कि नरेन्द्र मोदी की राजनीति अपने विरोधियों को मात दे देती है।
हम सब, जो इस गणतंत्र पर दावा जताने के हामी हैं—हमें नये साल की शुरुआत सकारात्मक राजनीति की ताकत की पहचान के साथ करनी होगी।
आगे की सोचनेवाली राजनीति
सकारात्मक राजनीति लोगों के बीच प्रचलित चलताऊ किस्म के मनोविज्ञान का कोई जुमला भर नहीं है। सकारात्मक राजनीति का मतलब ये नहीं होता कि दिल तोड़नेवाली सच्चाइयाँ आँखों के आगे खड़ी हों और हम उन्हें खुशफहमी के रंगीन चश्मे चढ़ाकर देखें। इसका मतलब ये भी नहीं होता कि हमारी आँखों के आगे जो रोज ही गणतंत्र को बनाये रखनेवाली चीजों की बखिया उधेड़ी जा रही है, उसकी तरफ से आँखें फेर लें। सकारात्मक राजनीति करने का मतलब यह भी नहीं कि हम इस खुशफहमी को हम पाले बैठें कि भारत के स्वधर्म को अगर अभी जबर्दस्त चुनौती मिल रही है तो आखिर को एक दिन ऐसा भी आएगा जब एकबारगी यह चुनौती खुद ही खत्म हो जाएगी। सकारात्मक राजनीति करने का ये मतलब कत्तई नहीं कि आँखों पर पट्टी बाँध लें और एक नामुमकिन सी जान पड़नेवाली लड़ाई के लिए कदम बढ़ा दें।
सकारात्मक राजनीति का मतलब होता है, आगे की फिक्र करना और आगे की सोचना, कर्म-कुशल होकर उन रचनात्मक राजनीतिक कामों की ओर कदम बढ़ाना जो हमें विरसे में मिली हैं और ऐसा पूरे आत्म-विश्वास, पूरी एकजुटता से करना।
सकारात्मक राजनीति का मतलब ही होता है अपनी नकारात्मकता से उबरना, उससे ऊपर उठना। हमें यों नहीं होना चाहिए कि लोगों को लगे, ‘अरे ये तो हैं ही हर बात में ना करने वाले’ या ‘ये तो हैं ही मोदी-विरोधी’। विपक्ष की राजनीति का मतलब ये नहीं होता कि हम सिर्फ उनकी राजनीति की मुखालफत करते रहें, आलोचना में लगे रहें, दोषारोपण करते और तोहमतें देतें रहे। बेशक सरकार कोविड से निपटने में नाकाम रही लेकिन विपक्ष को आगे आकर बताना होगा कि लोगों की सेहत की हिफाजत के लिए उसके पास एक वैकल्पिक खाका है। इससे भी ज्यादा अहम बात ये कि मोदी सरकार के आलोचकों को अपने ढीले-सीले से मोदीवाद-विरोध से बाज आना होगा। यह ढीला-सीला सा मोदीवाद-विरोध तो मोदी के सर्व-शक्तिमान होने की मिथ्या धारणा को और भी ज्यादा पुष्ट करता है।
सकारात्मक राजनीति का मतलब होता है, व्यावहारिकता की ठोस जमीन पर कदम रखकर उम्मीदें पालना, ऐसी उम्मीदें जो निकट भविष्य में फलवती हो सकती हैं। बीते वक्त और गुजर चुके रास्ते की तस्वीरें दिखानेवाले आईने में झाँकते हुए ऐसा करना संभव नहीं। जो गुजर चुका, सो तो गुजर चुका।
अब किसी नेहरुआई अतीत या फिर इंदिरा गांधी के शासन-काल की पक्षधरता के मोह में क्योंकर तर्क गढ़ना। आप अपने को इस बहस में उलझाये नहीं रख सकते कि मुगल भारत-भूमि में शरणार्थी थे या नहीं। हमारी राजनीति को आगे की सोचना होगा, उसमें लोगों के लिए एक आमंत्रण होना चाहिए कि वे आगे आएँ और भारत के भविष्य को सोच एक कथानक बुनें—एक ऐसा भविष्य जिसमें हर भारतीय के सपनों के साकार होने की गुंजाइश हो। झूठे और लोगों के बीच भेद पैदा करनेवाले इतिहास की काट सिर्फ सही-सही तथ्यों की खोजबीन से नहीं होनेवाली बल्कि ऐसे इतिहास की काट के लिए हमें साझे भविष्य के सपने बुनने होंगे।
सकारात्मक राजनीति कर्म-कुशल होनी चाहिए, उसमें सदा-सक्रिय होने का जज्बा होना चाहिए—सिर्फ प्रतिक्रिया में कदम उठाने से काम नहीं चलनेवाला।
बात चाहे कश्मीर की हो या काशी की—नरेन्द्र मोदी को बखूबी पता होता है कि एजेंडा कैसे सेट किया जाता है ताकि विरोधी उसमें उलझे रहें। हमें विपक्ष को उलझाये रखनेवाले ऐसे फाँस-फंदों से बचना होगा : काशी, मथुरा, समान नागरिक संहिता आदि ऐसे ही फाँस-फंदे हैं। याद रहे कि हमने चाहे जब और जैसे सरकार की तरफ से की जानेवाली पेशबंदियों से पंजा भिड़ाया है—मिसाल के लिए यहाँ शाहीन बाग या फिर किसान-मोर्चा के बारे में सोच सकते हैं—तो, हमें कामयाबी मिली है। अगर इस लकीर पर हम आगे सोचें तो साफ नजर आएगा कि बेरोजगारी और जीविका के सवाल पर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने सरीखा कदम उठाना बनता है।
संस्कृति और परंपरा के भीतर से उठें कदम
सकारात्मक राजनीति का अपने समाज और संस्कृति से एक सेहतमंद और नाभि-नालबद्ध रिश्ता होता है। आज हिन्दू धर्म और परंपरा के बचाव की दुहाइयों के साथ भारत के स्वधर्म पर जो हमले हो रहे हैं उसके पेशेनजर जरूरत बनती है कि हम अपनी परंपराओं तथा विविधवर्णी धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत से जोड़ बैठाएँ। अगर हमने इसकी तरफ से मुँह फेर लिया तो हम दक्षिणपंथी राजनीति के चंगुल में होंगे और हमारी राजनीति जड़-विहीन हो जाएगी।
हिन्दुत्व के पैरोकार चाहते भी यही हैं कि हमारे भीतर अपनी सभ्यता-संस्कृति से विलग ऐसा ही एक तेजहीन ‘आत्म’ आ बैठे। इसकी काट कारगर तरीके से करने का एक ही रास्ता है कि हम अपने दमदार सांस्कृतिक संसाधनों को अपनी बुनियाद बनाएँ। हमें अपनी भाषाओं की ओर मुड़ना होगा, शास्त्रीय परंपरा के अपने ग्रंथों और भारतीय आधुनिकता की कोख से उपजी किताबों को पढ़ना होगा। जनवरी की 12 तारीख यानी स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन ऐसे सांस्कृतिक और बौद्धिक पुनर्जागरण की शुरुआत का एक अच्छा प्रस्थान-बिन्दु साबित हो सकता है।
सकारात्मक राजनीति को आत्म-विश्वासी होना होता है, और ऐसे विश्वास पालने के हमारे पास पर्याप्त कारण हैं। अमूमन होता यही है कि अधिनायकवादी सरकारें देर या सबेर ढह जाती हैं। खासतौर पर देखें तो बीजेपी को 2024 में हराने का यज्ञ वैसा भी कठिन नहीं जितना कि वह प्रतीत होता है। यहाँ प्रशांत किशोर की बात याद करें जो कहते हैं कि बीजेपी जितनी ताकतवर है उससे कहीं ज्यादा ताकतवर अपने को दिखा ले जाने में कामयाब हो जाती है। बंगाल से लेकर केरल तक जो देश का तटवर्ती हिस्सा है, उसमें बीजेपी की मौजूदगी ऐसी नहीं कि उसे दमदार माना जाए। अपने उभार के चरमोत्कर्ष के समय भी इस इलाके में बीजेपी को हिन्दुओं की अधिसंख्य आबादी के वोट नहीं मिले।
संसद में बीजेपी के बहुमत का सिक्का अगर जमा नजर आता है तो इसलिए कि उसे हिन्दीपट्टी के राज्यों में भारी-भरकम जीत हासिल हुई है,यह बहुमत हिन्दीपट्टी के राज्यों में हासिल जीत के दम से कायम है। लड़ाई का मैदान चाहे चुनावों का हो या फिर धरना-प्रदर्शन और आंदोलनों का—जिसने भी काँटे की टक्कर दी है, चाहे वो ममता बनर्जी हों या फिर संयुक्त किसान मोर्चा—मौजूदा सत्तापक्ष उसको धूल चटाने में नाकाम रहा है। बेशक बीजेपी-आरएसएस को तमाम किस्म की राजकीय सरपरस्ती हासिल है तो भी इसके सांस्कृतिक संसाधन संविधान की हिफाजत की लड़ाई में लगे लोगों के संसाधनों की तुलना में ओछे हैं। बेशक बीजेपी का मुख्यधारा के मीडिया पर कब्जा है लेकिन अपनी सभ्यता और राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन की विरासत अब भी हमारे साथ है।
विचारधाराई शुद्धता के चक्कर में ना पड़ें
इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि सकारात्मक राजनीति एकजुटता कायम करने की राजनीति है। सत्तापक्ष तो हरचंद चाहेगा कि हम बँटे रहें। और, कमजोरी या फिर निराशा के किसी क्षण में जब हम अपने ही दोस्तों को ये कहते हुए निशाना बनाते हैं कि वे मिशन के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान नहीं तो दरअसल हम सत्तापक्ष की इसी कामना को पूरी कर रहे होते हैं।
लिहाजा, जो लोग भारत नाम के गणतंत्र पर फिर से दावा जताने के हामी हैं उन्हें किसान-आंदोलन से सबक लेना होगा। किसान-आंदोलन एक नामुमकिन से जान पड़ने वाले गठबंधन को बनाने और टिकाये रखने में कामयाब हुआ। सीधा-सादा सा सबक ये है कि प्रतिरोध का एक कामयाब मोर्चा रचने के लिए संविधान के मान-मूल्यों की हिफाजत में खड़े, जनशक्ति के तमाम रंगो-आब के ऊर्जाकणों को एकजुट करना होगा– इसमें खुद को कट्टर नास्तिक बतानेवालों से लेकर ईश्वर में घनघोर आस्था रखनेवाला तक, मुक्त बाजार के पैरोकार से लेकर बाजार को हरचंद शंका की निगाह से देखने वाला तक— हर कोई शामिल हो सकता है। विचारधाराई शुद्धता खोजने का मतलब है अपने सियासी विध्वंस को न्योता देना। सकारात्मक राजनीति का मतलब है, अपने सबको आश्वस्त करना कि हम अब अकेले नहीं हैं—कत्तई अकेले नहीं।
(द प्रिंट से साभार)