गांधी के विरोधी : पहली किस्त

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नारायण देसाई (24 दिसंबर 1924 – 15 मार्च 2015)

— नारायण देसाई

तुलसीदास ने गाया है-

तुलसी इस संसार में भाँति-भाँति के लोग

सबसे हिलमिल चालिए नदी-नाव संजोग।

संसार में रहनेवाले हरेक इंसान का भाँति-भाँति के लोगों से पाला पड़ता है। जिस आदमी ने 79 साल जितनी लंबी आयु बितायी हो, उसका तो तरह-तरह के लोगों के साथ संपर्क होना ही है। तिस पर जिसने आधी से ज्यादा जिंदगी राजनीति में सक्रिय रूप से बितायी हो, कदम-कदम पर जिसे अन्याय का प्रतिकार करना पड़ा हो, अखबारों में वाद-विवाद में उतरना पड़ा हो, प्रतिनिधिमंडल ले जाना पड़ा हो, समझौता वार्ताएँ करनी पड़ी हों, जुलूस निकालने पड़े हों, यात्राएँ और कूच करने पड़े हों, युद्ध का विरोध भी करना पड़ा हो, लंबे-लंबे विचार-विमर्श या करार करने पड़े हों, गालियाँ सुननी पड़ी हों, काले झंडे देखने या अंडे, पत्थर या ईंटों की मार से गुजरना पड़ा हो, उसका तो पूछना ही क्या? गांधीजी को यह सब एक से अधिक बार अनुभव करना पड़ा था।

ऐसा करनेवाले विविध प्रकार के लोगों को अगर हम कोई सामान्य नाम दें तो उन्हें गांधी के विरोधी कह सकते हैं। जीवन के अलग-अलग मोड़ पर गांधी का सामना उपर्युक्त कोई एक या अधिक प्रकार के विरोधियों से हुआ। अहिंसा के व्रतधारी, अद्वैत को माननेवाले गांधीजी के लिए ऐसे सभी लोग उनकी अहिंसा की परीक्षा करनेवाले ही थे। ऐसे सब लोगों के साथ गांधीजी का संबंध कैसा था उसे समझने में सुविधा के लिए उनके सार्वजनिक जीवन के विरोधियों को अलग-अलग वर्ग में रखकर उन पर बारी-बारी से विचार करेंगे।

कुछ ईर्ष्यालु थे। गांधीजी का नाम अखबार में आए, दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों में उनकी कुछ कीर्ति फैले, यह मानो उनसे सहन नहीं होता था। वे ऐसे क्षुद्र लोग थे कि उनके नाम देकर हम उन्हें अमर नहीं करना चाहते। गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानियों को ध्यान में रखकर एक अखबार निकालने की सोच रहे थे तब उनमें से एक ने एलान किया कि वह ऐसा अखबार पहले से निकाल रहा है, पर उसका वह अखबार कभी वजूद में नहीं आया था। इंडियन ओपीनियन के लिए मददगार मिलता तो उसे उन्होंने अपनी तरफ खींच लेने का प्रयत्न किया, और सौंपने लायक कोई काम न सौंपे जाने पर भी उसे कर डाला। अलबत्ता इंडियन ओपीनियन प्रकाशित होने लगा तो एक-दो बार सरकारी नीति को समर्थन देकर उन्होंने सत्ताधारियों का लाडला बनने का प्रयास किया, पर सत्ताधारियों ने भी उनकी तरफ ध्यान देने के बदले इंडियन ओपीनियन को ही हिंदुस्तानी समुदाय की आवाज माना।

हिंदुस्तानी समुदाय का पक्ष रखने के लिए गांधीजी जब इंग्लैंड गये तब प्रतिनिधिमंडल के चयन में जिनकी पसंद नहीं ली गयी थी ऐसे एक-दो व्यक्तियों ने ब्रिटिश सरकार के मंत्रियों आदि को तार करके कहा था कि गांधी और उनके साथी सच्चे नुमाइंदे नहीं हैं। उपनिवेश-मंत्री खुद कुछ करने को तैयार नहीं थे, तो उक्त तार दिखाकर गांधीजी से कहा कि आप ही दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह कैसे मान लिया जाय? लेकिन गांधीजी के विरोधियों का इससे अधिक उपयोग अंग्रेज सरकार के लिए नहीं था। युवा गांधी ने उस समय यह साबित करने का प्रयास जरूर किया कि दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों के विभिन्न वर्गों का समर्थन उन्हें हासिल है, पर बाद में उन्हें ऐसा करने के बदले ऐसे विरोधियों की उपेक्षा करना ही ठीक लगा।

गांधीजी की नैतिकता को सभी मानते थे। जब वह सार्वजनिक कामों में नहीं पड़े थे तब भी कोर्ट में दूसरी तरफ का वकील यह सिद्ध करना चाहे कि गांधीजी झूठ बोलते हैं तो न्यायाधीश खुद यह कहकर रोक देता कि कौन सच्चा है कौन झूठा, इसे वह कहीं बेहतर समझते हैं। नीतिमय जीवन की बदौलत उत्पन्न हुई गांधीजी की तेजस्विता विरोधियों के तेजोद्वेष को धूमिल कर देती थी।

गांधी-विरोध के पीछे विरोधी का ईर्ष्यालु मन काम कर रहा हो, इसके उदाहरण उनके भारत आने के बाद भी जरूर देखने को मिलते हैं, पर ऐसे उदाहरणों में ईर्ष्या के अलावा सक्रिय विरोध के दूसरे प्रकार भी शामिल थे, इसलिए हम उस पर वैसा प्रसंग आने पर विचार करेंगे। यों भी किसी के कृत्य के पीछे ईर्ष्या का तत्त्व कितना काम कर रहा था इसका काजी बनने में हमें कोई दिलचस्पी नहीं है। हालाँकि यह भी आसानी से नहीं माना जा सकता कि गांधीजी के कुछ सार्वजनिक विरोधियों में ईर्ष्या का तत्त्व एकदम था ही नहीं। लेकिन सामान्य तौर पर हम यह कह सकते हैं कि गांधीजी ने जहाँ ईर्ष्यालुओं पर तरस न खाया हो, वहाँ उन्होंने उनकी उपेक्षा ही की थी।

गांधीजी का विरोध करनेवालों में ऐसे काफी थे जिनके हित उन हितों के खिलाफ पड़ते थे जिन हितों की नुमाइंदगी गांधीजी करते थे। ऐसे विरोधियों में हम मुख्य रूप से दक्षिण अफ्रीका के सत्ताधारियों और ब्रिटिश सत्ताधारियों या भारत में रहनेवाले उनके प्रतिनिधियों को मान सकते हैं। ऐसे विरोधी इक्के-दुक्के नहीं थे। उनके पूरे-के-पूरे वर्ग इसमें शामिल थे। फिर, गांधीजी की तरफ से होनेवाला विरोध भी किसी व्यक्ति का नहीं, पूरे तंत्र का विरोध था। फिर भी गांधीजी का रुख समझने के लिए हम कुछ व्यक्तिगत उदाहरण लेंगे।

यह अनुमान करने के पर्याप्त कारण हैं कि दक्षिण अफ्रीका में रहने के दरम्यान गांधीजी बीच में जब भारत जाकर कस्तूरबा, बेटे हरिलाल और मणिलाल तथा भानजे गोकुलदास के साथ वापस आ रहे थे तब डरबन बंदरगाह पर गांधीजी का जो सख्त विरोध हुआ उसे हैरी एस्कोम्ब ने परदे के पीछे रहकर पूरा समर्थन दिया था। गांधीजी अभी स्टीमर पर ही थे कि उनके साथ वायरलेस द्वारा माइक के माध्यम से समझौते की बातचीत करनेवालों में हैरी एस्कोम्ब आगे-आगे थे। अलबत्ता बाहर गांधीजी के खिलाफ जो गाली-गलौज या मारामारी हुई उसमें यह कुशल बैरिस्टर सीधे शामिल नहीं था, पर प्रदर्शकारियों को उसका समर्थन हासिल था और सरकार इसमें आड़े नहीं आएगी यह भरोसा दिलानेवाले भी हैरी एस्कोम्ब ही थे। दक्षिण अफ्रीका में, खासकर डरबन में, हिंदुस्तानी व्यापारियों के हितैषी वही हैं ऐसी छाप डालकर उनके वोट बटोरनेवाले और बाद में हिंदुस्तानियों के हितों के खिलाफ कानून बनानेवाले भी यही चतुर वकील (हैरी एस्कोम्ब) थे।

कुछ समय तक वह (एस्कोम्ब) नाताल की सरकार के प्रधानमंत्री भी रहे। डरबन में गांधीजी और उनके मकान एक ही सड़क पर आमने-सामने की पटरी पर थे। हैरी एस्कोम्ब ने डरबन बंदरगाह पर हुए विरोध-प्रदर्शन के समय ही देख लिया था कि गांधीजी ने उन पर हमला करनेवालों, उन्हें लहूलुहान करनेवालों को सजा दिलाने में तनिक भी साथ नहीं दिया। कितने ही मामलों में परस्पर विपरीत पक्ष में होते हुए भी गांधीजी बहुत बार डरबन से पीटरमैरित्जबर्ग तक एस्कोम्ब के साथ एक ही ट्रेन में, एक ही डिब्बे में यात्रा करते थे। गांधीजी के व्यवहार में एस्कोम्ब को कभी भी रत्ती-भर कड़वाहट नहीं दिखी।

बरसों बाद एक दिन गांधीजी अपने दफ्तर से घर आ रहे थे। तब उन्होंने देखा कि हैरी एस्कोम्ब सड़क की दूसरी तरफ थे और सड़क पार कर गांधीजी की तरफ आ रहे थे। नमस्कार के बाद गांधीजी के साथ कदम मिलाकर चलते हुए उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, मि. गांधी, मेरे दिल पर काफी समय से एक बोझ रहा है, उसे हल्का करना चाहता हूँ। आपकी कौम को समझने में मैंने भूल की है। आप लोगों में भी उदारता और क्षमा-भावना जैसे ईसाई गुण होंगे, यह मैं नहीं जानता था। लेकिन आप लोगों ने अपने आचरण के द्वारा यह सब सिद्ध कर दिया है। मन-ही-मन आपके प्रति ऐसा अन्याय करने का मुझे अफसोस है। गांधीजी ने कहा किइसे जरा-भी मन में न रखना। मैं तो उन सारी घटनाओं को उसी समय भुला चुका हूँ।दोनों जन अपने-अपने घर गये, पंद्रह मिनट भी नहीं बीते होंगे कि इतने में हैरी एस्कोम्ब के घर का नौकर दौड़ता हुआ आया और खबर दी कि दिल का दौरा पड़ने के कारण हैरी एस्कोम्ब गुजर गए!’ गांधीजी से क्षमा-याचना शायद हैरी एस्कोम्ब का आखिरी कृत्य था।

(जारी)

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