राजघाट का माहात्म्य

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— अरविन्द मोहन —

पंडित जवाहरलाल नेहरू के लिए गांधी की हत्या कैसा सदमा थी यह बताने की जरूरत नहीँ है। और वे ज्यादा कुछ नहीं तो गांधी का नाम बढ़िया स्मारक के माध्यम से भी जिन्दा रखना चाहते थे, देश-दुनिया के लोगों के लिए गांधी का स्मरण करानेवाला स्मारक चाहते थे। देश-दुनिया घूमे नेहरू को दुनिया भर के तब के ऐसे स्मारक भी ध्यान आ रहे थे लेकिन लेनिन की तरह का स्मारक बनना तो भारत मेँ सम्भव न था और दुनिया के बाकी स्मारकों में भी उनको वह चीज नजर नहीं आती थी जिसे वे गांधी के स्मारक मेँ देखना चाहते थे। समाधि स्थल पर तुलसी का बिरवा उनको कई स्मारकों से बढ़िया लगता था लेकिन वे इससे भी संतुष्ट न थे। सो कैबिनेट से जरूरी मंजूरी के बाद 1956 मेँ स्मारक का डिजाइन एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के माध्यम से माँगा गया। कई सौ प्रविष्टियों में से बीस का चुनाव हुआ और चुनाव करनेवालों में पंडित जी खुद भी एक थे बल्कि उनकी राय बाकियों पर भारी थी।

पंडित जी के अलावा इस परियोजना में सबसे ज्यादा दिलचस्पी केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के प्रमुख हबीबुर रहमान भी ले रहे थे जिनकी पढ़ाई मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी से हुई थी और जो वास्तु के मामले में माडर्निस्ट माने जाते थे। उनका एक और परिचय था, वह प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना इन्द्राणी रहमान के पति थे। जिन बीस प्रविष्टियों का चुनाव हुआ उनमें बम्बई के वास्तुकार वानु जी. भुता की प्रविष्टि को पहले नम्बर पर रखा गया था। बाकी प्रविष्टियों में अलग अलग शैली के मंदिरों और छतरियों के नीचे गांधी की अलग अलग तरह की प्रतिमाओं का प्रावधान था। किसी में सूत कातते गांधी तो किसी में मार्च वाले गांधी तो किसी मेँ प्रवचन करते गांधी। भुता एक नामी कम्पनी में साझीदार थे और खुद का काम भी करते थे। बम्बई मेँ विले पार्ले पर बना जीवन बीमा भवन और नरीमन प्वाइंट पर बना शिपिंग कार्पोरेशन ऑफ इंडिया का दफ्तर के अलावा दिल्ली का फिक्की भवन उनकी वास्तुकला के नमूने हैं। अंतिम चुनाव हो जाने के बाद भी उनके डिजाइन में बदलाव हुए लेकिन मूल बात बनी रही।

काले संगमरमर के चबूतरे पर गांधी के मुँह से निकले अंतिम शब्द ‘हे राम’ उकेरने की बात एक किस्म की सादगी और भव्यता, दोनों का एहसास कराते हैँ जो गांधी से जुड़ा मुख्य गुण था। बाहर एक बढ़िया लैम्पपोस्ट मेँ मशाल जलते रहने का आकार-प्रकार और पोजीशन बदला। मूल योजना कम ही लोगों को अन्दर आने देने और कम समय रहने देने की थी और बाकी किसी को ज्यादा समय गुजारना हो तो चारों तरफ बना ऊँचा घेरा समाधि, उसके सन्देश और मशाल सबके दर्शन ठीक से करा देता था। और इस घेरे की दीवारों पर गान्धी दर्शन और सिद्धांतों की लाइनें खुदी हैँ जिन्हें पास जानेवाला पढ़ सकता है। और चबूतरे तक पहुँचाने वाले पत्थर के पदचिह्न भी एक खास प्रभाव पैदा करते हैं, परिक्रमा का सन्देश चुपचाप देने के साथ ही।

यमुना का किनारा होने और खुली जगह होने के चलते पंडित जी बढ़िया लैंडस्केपिंग और हरियाली चाह्ते थे क्योंकि बापू का जुड़ाव भी प्रकृति से बहुत था। एक बार नक्शा पास होने के बाद इस पर अमल का मुख्य जिम्मा लोक निर्माण विभाग के मध्य जोन के कार्यकारी इंजीनियर टी.एस. वेदगिरि का हो गया। और हार्टिकल्चर विभाग के प्रमुख एलिक पर्सी लेंकेस्टर ने दिलचस्पी लेकर इसकी लैंडस्केपिंग की और पेड़-पौधों की सजावट करायी। कौन-कौन पेड़ लगें और कौन बाद में बोझ बन जाएँगे यह हिसाब रखा गया। यहाँ बताना जरूरी है कि एलिक उन गिनती के ब्रिटिश अधिकारियों में एक थे जो आजादी के बाद तक भारत सरकार की सेवा में बने रहे। हबीबुर रहमान भी अक्सर साइट पर दिखते थे और खुद पंडित जी भी प्रगति पर नियमित रूप से नजर रखते थे।

इस परिसर में सिर्फ गांधी से जुड़ी चीजों की प्रदर्शनी वाला संग्रहालय भी जोड़ा गया और सड़क के पार राष्ट्रीय गान्धी संग्रहालय बन जाने से जो भी राजघाट आए और गान्धी को जानना चाहे उसके लिए पर्याप्त सामग्री हो गयी। और बाद में तो गांधी स्मृति दर्शन का बड़ा परिसर भी जुड़ गया। पंडित जी की सोच और फैसले की सार्थकता आज दिखाई देती है क्योंकि आज देश-विदेश से लगभग दस हजार लोग रोज राजघाट आ रहे हैं। वे समाधि पर जाने के साथ वहाँ कुछ वक्त बिताते हैं, आजकल फोटो लेना भी चलन में है। और जिस किसी दिन किसी अति विशिष्ट मेहमान के आने या किसी अन्य कारण से (पिछले दिनोँ तो लगभग अकारण बन्द का नोटिस लगा दिया गया और कोई कार्रवाई नहीँ हुई) राजघाट कुछ घंटों के लिए भी बन्द रहता है तो भीड़ को सँभालना मुश्किल हो जाता है। सुबह दस से पाँच का समय भी एक कारण है। और विदेशी मेहमान आकर कोई स्मृति वृक्ष लगाते हैं जो अच्छी परम्परा है। अभी भी यहाँ हर शुक्रवार प्रार्थना की परम्परा चल रही है क्योंकि बापू की हत्या शुक्रवार को ही हुई थी।

लेकिन ऐसे करीब एक सौ अस्सी नये पेड़ आ जाने से पुराना रंग रूप बदलने लगा है। पेड़ों की छँटाई भी नियमित होती है क्योंकि एक बार राजीव गांधी पर हमला करनेवाला युवक कई दिन से पेड़ पर ही छुपा था। एक बार कांशीराम के समर्थक कुछ नौजवान भी यहाँ तोड़-फोड़ कर चुके हैँ। लेकिन सरकारी दखल भी उतना ही बदनुमा धब्बा छोड़ रहा है।

अभी हाल तक राजघाट को मूर्तियों से बचाये रखा गया था और जैसा पहले बताया गया है, मूर्ति वाला स्मारक न बनाने का फैसला बहुत सोच-समझकर लिया गया था। लेकिन पिछले दिनों 1.8 मीटर ऊँची एक मूर्ति और कई भवन बनाकर भी वहाँ के स्वरूप मेँ बदलाव कर दिया गया है। वीआईपी सुरक्षा के नाम पर हुए बदलाव भी स्मारक और गांधी के मूल स्वभाव से मेल नहीं खाते। लेकिन स्मारक का आकर्षण बना हुआ है।

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