उत्तराखंड के वनवासी मतदाताओं की प्रत्याशियों से एक खुली अपील

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सम्मानपूर्वक जीवन, विकास और पर्यावरण के लिए वनाधिकार कानून लागू करो

ग्राम स्वराज की थाती -वन पंचायतों को सशक्त करो

सम्मानित मतदाता, आगामी 14 फरवरी को होने जा रहे राज्य के विधानसभा चुनाव मैं-आप महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं। आपका मत आगामी वर्षों के लिए राज्य की दशा और दिशा को नियत करेगा। जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय समाज के हकों के सवाल ने ही उत्तराखंड राज्य को जन्म दिया था, परंतु इतने संघर्षों के पश्चात प्राप्त राज्य में यह हक निरंतर घटते ही जा रहे हैं। पिछले कई दशकों से उत्तराखंड की स्वायत्त और ग्राम स्वराज की धुरी- वन पंचायतों के अधिकारों को एक एक करके खत्म किया जा रहा है। 2006 में आए वनाधिकार कानून को लागू करने से पहले जिन वन प्रबंधन मॉडलों का अध्ययन किया गया था, उसमें वन-पंचायत, उनके शुरुआती कानून और नियमावली भी एक हैं। जरूरत है वन पंचायतों को वनाधिकार कानून के तहत सामुदायिक अधिकार देने की और वन प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने की।

एक अध्ययन के अनुसार प्रदेश के 70 विधानसभा क्षेत्रों में से 54 में वनाधिकारों को मान्यता देना और प्रदेश की 13000 से अधिक वन पंचायतों को सामुदायिक वनाधिकार के तहत हक दिलवाना, प्रदेश के वनवासी मतदाताओं के विकास और उनके जीवन पर गहरा और अनुकूल प्रभाव डालेगा। 24 लाख वनवासी मतदाता प्रदेश के कुल वोटों का करीब 32 प्रतिशत हैं। ऐसे में इनके हित प्रदेश के विकास की किसी भी तस्वीर के लिए बेहद जरूरीरूरी हो जाते हैं। वन हमारे जीवन के केंद्र तो हैं ही। जरूरत है कि वन हमारी राजनीति का केंद्र भी हों।

हमारी प्रमुख मांगें हैं-

वन अधिकार है सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार

वन-गुर्जर और वनग्रामों या टोंगिया गाँवों या हरिनगर जैसी दलित बस्तियों में रहनेवाले सैकड़ों लोग आज भी अपने मताधिकार तक से वंचित हैं। इनके व्यक्तिगत और सामुदायिक वनाधिकारों को मान्य करने से इनके घर, जंगल और जमीन का हक इन्हें मिलेगा और वे सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर पाएंगे।

13 में से 11 जिलों में महिलाएं वन-पंचायतों में भागीदारी के जरिए वन प्रबंधन में आगे रहकर अपनी भूमिका अदा कर सकती हैं।

वन अधिकार है विकास का अधिकार

उत्तराखंड के 10,000 से अधिक पहाड़ी गाँवों में स्कूल, अस्पताल, बिजली जैसी सामान्य व्यवस्थाओं के लिए भी वनाधिकार कानून का प्रदेशस्तरीय अभियान के तौर पर कार्यान्वयन आवश्यक है जिससे कि वन पंचायतों और ग्रामसभाओं को न सिर्फ विकास कार्यों के लिए जमीन ढूंढ़ने में आसानी हो बल्कि गाँव के विकास की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए सरकारी योजनाओं से धन मुहैया कराना आसान हो पाए।

सामुदायिक वनाधिकार मिलने से वनोपज व्यापार पर भी वन पंचायतों और वनवासियों का नियंत्रण बढ़ जाएगा। इससे वनोपज, पारिस्थितिक सेवाओं, और एक-पर्यटन के जरिये न सिर्फ जीविकोपार्जन और रोजगार बढ़ाने में मदद मिलेगी बल्कि वन-पंचायतों और ग्राम सभाओं के लिए राजस्व इकट्ठा करने के नए रास्ते खुल जाएंगे। अध्ययन के अनुसार वनाधिकारों को मान्यता देने भर से वन पंचायतों को 3000 करोड़ की कमाई हो सकती है जो राशि गाँव के सर्वांगीण विकास में सीधे खर्च की जा सकती है।

वन अधिकार है पर्यावरण का अधिकार

वन पंचायतें जंगलों का प्रबंधन अपने समाज की आवश्यकताओं (जैसे चारे, वनोपज, पोषण आदि) और जैव विविधता के हित में करेंगी। समुदाय की भागीदारी होने से वह आपदा (जैसे जंगली आग, मनुष्य-जानवर की लड़ाई, भू-स्खलन आदि) की स्थिति में ज्यादा कारगर होंगी।

विकास परियोजनाओं को अनुमति देने में भी ग्राम सभाओं और वन पंचायतों की भूमिका होगी। खनन, पर्यटन जैसे उद्योगों पर उनका नियंत्रण होने से न सिर्फ स्थानीय रोजगार सृजन बेहतर होगा बल्कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाली गतिविधियों की रोकथाम हो सकेगी।

इन सपनों को पूरा करने के लिए हम चाहते हैं कि हमारे मतदाता और प्रत्याशी वनाधिकार कानून को लागू करने में अपनी पूरी और ठोस राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाएं और इसे एक खोखले वादे में न बदलें। सभी विभागों के बीच समन्वय स्थापित करके और वन पंचायत नेतृत्व को आगे करके एक अभियान के तहत वनाधिकार कानून का कार्यान्वयन हो और वन पंचायतों को इस कानून के तहत वनों का संरक्षण और संवर्धन करने का पूर्ण अधिकार मिले। वनों पर जिस हक को मानने के लिए अंग्रेजों को भी बाध्य होना पड़ा, आज हर उत्तराखंडी को उसी हक के लिए दोबारा लड़ना पड़ रहा है। आशा है कि आप सभी प्रत्याशी, मतदाता और राजनीतिक दल इन मुद्दों को अपनाएंगे और प्रदेश के बहुसंख्य वनों के नजदीक रहनेवाले पहाड़ी समाजों की आवाज बनेंगे। आइए हम संकल्प लें कि वन पंचायतों को अपनी वही पुरानी शान वापस लौटाएंगे।

निवेदक –
वन पंचायत संघर्ष मोर्चा
पहाड़

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