1. हुसेन का जंगपुरा एक्सटेंशन 1968
जून महीने की तपती हुई बरसाती।
नीचे दोपहर की खाली सड़क
घेरे में लिये पूरी तरह वही बेहद तपती धूप
सारे आलम को
और तेज़ लू के थपेड़े।
लू और धूप में पार्क की हुई
वह पुरानी फिएट गाड़ी
रंगों भरी शाहकार
रंगों में नहलायी
चलती-दौड़ती कलाकृति
“अमर नाथ सहगल की कोठी से निकला एक बिगड़ा सा
अमीर कह रहा था :
“ये गाड़ी बेच दो मुझे। पूरे दस हज़ार देता हूँ अभी।
पुराना मॉडल है।
काम माँगती है।
इस पर मेरा काफ़ी ख़र्च आएगा।
नये सिरे से पेंट करवाना पड़ेगा…”
हुसेन के शांत चेहरे पर
मौसम रंग दिखाने लगा है।
तमतमाहट का रंग लाल है –
एकदम सुर्ख़।
“ऐसे बड़े मिलते हैं रोज़ाना।
भिखमंगा समझता है, उल्लू!”
“ईरॉस थियेटर में कौन सी फिल्म लगी हुई है?”
“पड़ोसन। किशोर कुमार, महमूद, सुनील दत्त, सायरा बानो…”
“पड़ोसन? देखते हैं।
हॉल के बाहर सोडा नींबू की
बढ़िया शर्बत मिलती है। पीते हैं…”
‘पड़ोसन’ से पहले एक छोटी फिल्म औ दिखाई जाएगी
–
“थ्रू पेंटर्स आइ”। मैंने बनाई है…”
“आप ने…?”
फिल्म पर्दे पर आयी।
आँखें गरमाने लगीं।
एक टूटी लालटेन।
चप्पल जूते शायद।
बाँझ लपलपाती ज़मीन पर चलती जाती एक औरत।
एक बकरी एक नक़ली बाघ।
तगड़ी मूँछों और दाढ़ी वाले लोग
सब कुछ गर्म, तपता हुआ।
कुछ ठंडा था तो हुसेन का सफ़ेद लिबास।
कुछ सोचकर उठे।
“अभी आता हूँ।”
लौट कर नहीं आए।
चिंता शायद सता रही थी उस गाड़ी रूपी शाहकार की
खामोश खड़ी थी बड़ी देर से
धधकती धूप में
सिंकती, तपती हुई
एक ही मौसम के अलग अलग मिज़ाज झेलती
जिस की फ़िक्र थी तो सिर्फ़
उस कलाकार को
जो हमेशा बेनियाज़ नहीं रह सकता
मौसम चाहे जो भी हो।
2. ख़ाक़ा
वह जिसे तुम नहीं देख पा रहे
है एक ख़ाक़ा नरसंहार का –
एक ब्लूप्रिंट सर्वनाश का!
कैसे जान पाओगे
ख़ाक़ा पूरा है कि नहीं?
पूछने की जरूरत नहीं,
एक बनता है
और फिर
एक के बाद एक बनता जाता है-
वही ख़ाक़ा जिसे तुमने देखा नहीं
जाना नहीं
जिस जिस जगह पर
लाल लाल मार्का सा नज़र आता है
वही वही हल्कः बन चुका है
रक्तरंजित, सिंचित पसीने से –
ख़ाक़ा एक नक़्शे का
जिसके लिए
किसी फ़ुट्टे, परकार या
पकड़ की ज़रूरत नहीं पड़ती
लेकिन अब बन चुका है पूरे का पूरा यह नक़्शा
तैयार पूरे का पूरा!
इसे अपने माथे पर चिपका लो!
3. तुम
अब तुम कोई एक
मौसम बन जाओ!
बहारों को फुसलाकर,
गुलों को खिला कर
हवाओं में ख़ुशबू फैलाओ।
देवेन्द्र मोहन की कविता, प्रयाग शुक्ल जी का रेखांकन : शिल्प भी,सौंदर्य भी, विचार का भोजन भी।