रामप्रकाश कुशवाहा की चार कविताएं

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1. ईश्वर के भरोसे

कुछ कहते हैं कि यह देश चल रहा ईश्वर के भरोसे
मैं कहता हूं कि नहीं अब भी इसे चला रहीं
करोड़ों परिवार संस्थाएं
उसी के ही जिम्मे है घर में जन्मे मानसिक विकलांगों
एवं पागलों का भी भरण-पोषण

वही पालती है देश में जन्मे बेरोजगारों को
घर, खेत संपत्ति बेचकर भी करती रहती है बीमारों का इलाज
कि अब भी बूढ़ों के लिए परिवार ही अंतिम शरणालय है
न कि हमारी ‘सरकारें …

अब भी बहुत से गाँव अँधेरे में डूबे हुए हैं
अब भी बहुत सी बस्तियों में सड़कें पहुंचना नहीं चाहतीं
अब भी बहुत से लोग अपनी जेब पर हाथ रखे
शांति से मर जाना पसंद करते हैं

महंगे अस्पतालों में इलाज के लिए जाने के स्थान पर
अब भी अभिभावक मरीज इलाज में मरते हुए घर को
बचाने के लिए
बिना किसी को बताए निकल भागते हैं घर के एकांत की ओर

अब भी सरकारों को मालूम नहीं है कि
परिवार संस्था के बजट में शामिल रहता है
घर के उन सारे निकम्मों और निठल्लों का भोजन
जिनका पंजीकरण सरकार के किसी भी रजिस्टर में नहीं रहता
सरकारों को अब भी नहीं मालूम कि
दिखती हुई आय के बावजूद गरीब हो सकता है
किसी घर का मुखिया

कि अमीरी सिर्फ रुपयों के आने से ही नहीं बल्कि
रुपयों के जाने से भी तय होनी चाहिए
तय होनी चाहिए अभिभावक आयकरदाता के दायित्वों
और उस परिवार के सदस्यों की संख्या के आधार पर भी

सड़क, बिजली, पानी, दवाएं और शिक्षा न दे पानेवाली ‘स’रकारें
मानतीं और जानतीं ही नहीं कि भारत में
परिवारों की ही होती है आय व्यक्ति की नहीं
और आय और व्यय के निर्धारण में
इन सांस्कृतिक-सामाजिक जमीनी सच्चाइयों को भी
शामिल करना चाहिए
न कि लागू करना चाहिए पश्चिम का व्यक्तिवादी अर्थशास्त्र!

अब तक की अपनी सारी जानकारी, समझदारी
प्राप्त शिक्षाओं और अर्जित उपाधियों के आधार पर
पूरी ईमानदारी और देशभक्ति के साथ
जनहित में मैं यह सत्यापित करता हूँ कि

अभी भी हमारा लोकतान्त्रिक शासन-तंत्र
जगह-जगह अनुपस्थित है और अनभिज्ञ है
अपने ही तमाम दायित्वों से

अभी हमारे ‘सर्वकार्यों’ को तो ठीक से ‘सर्वकार्य’ भी होना
नहीं आया ….
न ही वहां उपस्थित होना आया जहाँ उन्हें उपस्थित
होना ही चाहिए

2. बातें

कुछ चीजें सभी को पता नहीं होतीं
कुछ बातें सभी को बताई नहीं जा सकतीं
कुछ बातें कुछ बातें ही होती हैं
फिर भी होता है
सभी के पास जीवन का निजी सच
एक छोटी सी झूठी सी जिन्दगी में
सच की तरह!

3. कृषान

यह दुनिया उतनी अच्छी नहीं है जितनी कि होनी चाहिए
यह दुनिया एक भूखी नदी है
जो भरी हुई है मगरमच्छों से
यह दुनिया एक जंगल है
जिसमें शिकारी फैले हुए हैं चारों ओर

यह दुनिया सिर्फ हमारी फसलों का शिकार करना जानती है हमारी उपजों को
आहार बनाना जानती है
और दबाकर रखना चाहती है अपने पैरों के नीचे की मिट्टी में

बीज की तरह होते हैं हम
जिसे कुतरने के लिए
धरती में फैली हुई हैं चूहों की प्रजाति

पौधों की जड़ों में
अपने वजन से कई गुना अधिक
जरूरी पोषण पहुँचाते
गुबरैलों की प्रजाति की तरह गोबर का पहाड़ ठेलते हुए हम अंधकार में डूबे भविष्य के बीज हैं
हमारा होना इस बात की गारंटी है कि कोई भूखा नहीं मरेगा
और न ही सोएगा कोई भूखा

लेकिन दुनिया युद्धक विमानों और मिसाइलों से नहीं
हमें मारते हुए बंजर जमीन की तरह
ऊसर की तरह
और कुव्यवस्था जनित
अकाल की तरह खत्म होनी है ।

4. एक पंक्ति दूसरी पंक्ति को काटती है

एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को
अस्वीकार करता है
एक विचारधारा
दूसरी विचारधारा के विरुद्ध है

सब एक-दूसरे को
फालतू और बेमतलब
सत्यापित करने के लिए लड़ रहे हैं
कुछ इस प्रकार कि जैसे अनवरत
श्रेष्ठता के वरण के लिए
स्वयंवर मचा हुआ हो

जबकि यह दुनिया इतनी बड़ी है
इतनी देर तक और
दूर तक है
कि वे थक जाएँगे
पीढ़ियों की सीढ़ियों पर दौड़ते हुए

जबकि यह भी तय नहीं कि
किसे जीतेंगे
क्यों जीतेंगे
किसके लिए जीतेंगे
और किसे दिखाएंगे
या जीते हुओं को सिर्फ रोता हुआ छोड़कर
जीतने की अन्धी खुशी मनाएंगे!

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