गांधी और दलित : पाँचवीं किस्त

0


— पन्नालाल सुराणा —

 गांधी-आंबेडकर बहस

ह साल बाद गांधीजी तथा डॉ आंबेडकर में इस विषय को लेकर थोड़ा विवाद हुआ। सन् 1936 में जलंधर के जात-पात तोड़क मंडल ने एक सम्मेलन का आयोजन किया तथा डॉ. बी.आर. आंबेडकर को अध्यक्ष बनाया। आंबेडकर ने अपना अध्यक्षीय भाषण लिख भेजा। उसे पढ़ने के बाद स्वागत समिति ने पत्र भेजकर अनुरोध किया कि आंबेडकर अपना एक वाक्य निकाल दें, बाबासाहब के न कहने पर स्वागत समिति ने वह सम्मेलन न बुलाने का फैसला लिया। देश भर में बहुत बवंडर मचा। आंबेडकर ने अपना भाषण पुस्तक के रूप में छपवाकर वितरित किया ‘इनिहिल्वेशन ऑफ कास्ट के नाम से वह मशहूर है।

जात-पाँत खत्म करने के लिए क्या किया जाए, यह डॉ. आंबेडकर के भाषण का विषय था। अछूत प्रथा सहित जाति प्रथा को हिंदुओं के धर्मग्रंथ श्रुति-स्मृति यानी वेद तथा अन्य ग्रंथों में समर्थन है, ऐसा आम हिंदू मानता है। जन्म पर आधारित जाति प्रथा बुद्धि से मेल खानेवाली नहीं है। नैतिकता से भी वह विरोधी है। एक आदमी तथा दूसरे आदमी में श्रेष्ठ-कनिष्ठ भेदभाव करना सिखाना, यह अनैतिक है। अगर जाति प्रथा का सही मायने में यानी दिलोदिमाग से उन्मूलन करना हो तो उसका मूलाधार माने गये वेद आदि धर्मग्रंथों को नकारना होगा उन पर आधारित धर्म नष्ट करना होगा। अगर आप यह व्यवस्था नष्ट करना चाहते हैं तो विवेक-बुद्धि तथा नैतिकता से नाता तोड़े हुए वेद तथा शास्त्रों को ठिकाने लगाना होगा। श्रुति तथा स्मृति पर आधारित धर्म का विध्वंस आपको करना होगा। उसके बिना चलेगा नहीं। यह मेरा सोचा-समझा विचार है।

उसी भाषण में डॉक्टर साहब ने यह भी कहा कि हिंदुओं को दिया गया यह उनका आखिरी भाषण होगा।

सम्मेलन के सयोजकों ने बाबा साहब को सुझाया कि वे वेद शब्द उस वाक्य से हटा दें, तथा हिंदुओं के लिए यह उनका आखिरी भाषण होगा, यह भी निकाल दें, बाबासाहब ने मंजूर नहीं किया, तो सम्मेलन मुल्तवी कर दिया गया।

आंबेडकर ने गांधीजी को यह किताब भेजी। अपने हरिजन साप्ताहिक में गांधीजी ने 11 जुलाई, 17 जुलाई तथा 15 अगस्त 1936 को लेख में लिखा  “जात-पांत तोड़क सम्मेलन मुल्तवी करना अनुचित कदम था। डॉ. आंबेडकर पंडित हैं, उनके विचार सुनने का मौका जनता को मिलना चाहिए था।

गांधीजी ने आगे लिखा-  “वर्ण तथा जाति एक ही है, यह डा आंबेडकर का कहना ठीक नहीं। वेदों में वर्ण का उल्लेख केवल वे कौन काम-धंधे करें, इस संदर्भ में आया है। एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ है या दूसरा कनिष्ठ है- ऐसा तो कहीं भी नहीं कहा है। जाति प्रथा, खासकर अछूत प्रथा नष्ट होनी चाहिए, यह तो मैं भी मानता हूं। लेकिन उसके लिए वेद तथा स्मृति पर आधारित (हिंदू) धर्म को ही नष्ट करना चाहिए, इस विचार से मैं सहमत नहीं हूं। हिंदू धर्म का मूल तत्त्व यह है कि सत्य के रूप में ईश्वर एक ही है तथा मानवी परिवार को अहिंसा का कानून अपनाना चाहिए।

डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब में गांधीजी के तीन लेख छापे तथा उन्हें जवाब भी दिया। मैं कहता हूं वही धर्म या वेद का सही अर्थ है यह गांधीजी की हठवादिता बचपने जैसी है ऐसी टिप्पणी आंबेडकर ने की थी। जो हो, आंबेडकर ने अपनी किताब में गांधीजी के लेखों का शीर्षक दिया-  ‘ए विविडिकेशन ऑफ कॉस्ट बाई महात्मा गांधी’, इस कारण शायद कई दलित नेता तथा बुद्धिजीवी मानते होंगे कि गांधीजी जाति व्यवस्था के समर्थक थे। लेकिन गांधीजी के लेख में वैसा नहीं है।

गांधीजी ने आगे चलकर यह सवाल पूछा कि क्या चैतन्य, ज्ञानदेव, तुकाराम, तिरवहमदूवर, रामकृष्ण परमहंस, राजा राममोहन राय, महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर, विवेकानंद आदि अनेको ने जिसका प्रचार किया, वह धर्म इतना गया-बीता हो सकता है क्या?

वेद तथा स्मृति ने वर्णों में श्रेष्ठता-कनिष्ठता मानी है या नहीं, यह शब्दों का विवाद हो सकता है। हिंदू परंपरा या रूढ़ि ने श्रेष्ठता-कनिष्ठता चलायी है, यह हकीकत है। ऊंच-नीच या विषमता चलानेवाली जाति व्यवस्था एवं अछूत प्रथा नष्ट करना चाहिए, समता लानी चाहिए, इस पर गांधीजी तथा आंबेडकर दोनों की राय स्पष्ट थी। दोनों लगातार वह कार्य हिम्मत से करते रहे। वेदों को नष्ट करना है या नहीं, इतना ही मतभेद था। गांधीजी शायद मानते थे कि आंबेडकर की विचारधारा ज्यादा तर्कसंगत लगती है। तो सदियों से अपना माना हुआ धर्म छोड़ दो, ऐसा कहना लोगों को जँचेगा नहीं। वे अपना विचार तथा आचरण सुधारें, समता का विचार अपनाएं, ऐसा आह्वान करना ज्यादा प्रभावशाली होगा। जो भी हो, गांधीजी जाति व्यवस्था के रक्षक या समर्थक नहीं थे, यह बात तो माननी पड़ेगी।

अछूत प्रथा निर्मूलन का काम प्रभावशाली ढंग से करना हो तो वेद-स्मृति पर आधारित हिंदू धर्म को ध्वस्त करना चाहिए, यह एक तरीका हो सकता है। लेकिन जनसाधारण को उदात्तता की तथा नैतिकता की साधना करने को प्रवृत्त करने के लिए धर्म का इस्तेमाल करना तर्क-विसंगत नहीं। हिंदू धर्म में अद्वैत विचार भी महत्वपूर्ण माने गए हैं। संतों ने उसी का आधार लिया है। महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय में सोलहवीं सदी में पैठण के संत एकनाथ ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। वेदाध्ययन और पठन आदि करते थे। लेकिन मानवीय सहानुभूति की भावना को उन्होंने अधिक महत्व दिया।

अछूत का एक छोटा बालक नंगे पाँव चल रहा था। धूप के कारण उसके पाँव जलने लगे। एकनाथ ने उसे तड़पते देखकर अपने हाथों से उठाकर गोद में बैठा लिया। अपने पिता के श्राद्ध भोज के समय उच्च जाति के लोगों को आने में देर होने लगी, दलित पुरुष पहुंचकर राह देख रहे थे। संत एकनाथ ने उन्हीं को पहले परोसकर भोजन करवाया। ब्राह्मणों ने बहिष्कार किया तो डगमगाये नहीं। एकनाथ ने लोक संगीत के भारूद आदि माध्यम प्रकारों का सही कलात्मकता से प्रयोग किया है।

मतलब यह कि हिंदू धर्म को माननेवाले भी अछूत प्रथा निर्मूलन में हाथ बँटाते रहे हैं। उनका तरीका कारगर नहीं रहा, यह माना जा सकता है। तो आंबेडकर का तरीका भी बहुत फलदायी नहीं हो पाया, यह हकीकत है। हर कोई अपनी विवेक-बुद्धि से काम करे, एक विचार के लोग, दूसरे विचार वाले लोगों की ईमानदारी पर शक न करें, यही आंदोलन व्यापक बनाने का तरीका हो सकता है।

Leave a Comment