1. किसान और आत्महत्या
उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह प्रवहमान थे
उन्हीं की हलों के फाल से
संस्कृति की लकीरें खिंची चली आयी थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उज्जर था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह बरतते थे
वे जड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे बिचौलिए नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को
धरती अपनी संरक्षित ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वे क्यों करते आत्महत्या
जो पितरों के ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गये
जो आरुणि की तरह शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी में जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गये
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति
2. कविता और खेती
किसी सीमांत जोत का नाम भी हो सकता है कविता
कभी-कभी एक भूदान उदारता
हाथों में बंजरपन थमा जाती है
ऐसे में बंजरपन को हल की मूंठ थाम, उधेड़ कर
खाद-पानी से तुरपाई करना
कविताई ही है
शब्दों के लिए उनके कोठार तक जाना
धानी के अर्थ को रंग में ही नहीं आस्वाद में भी देखना
किसानी है
किसानी हो या कविताई
एक सलीका माँगती है
सलीका कहता है- बुआई ऐसी हो
कि चिड़िया चुग कर न ले जाए बोया हुआ श्रम
और जमते हुए को एक मृसण अस्तरपन मिले
सूख रही खेती के दिनों में
उठे हुए हाथ जो बुदबुदाएँ- कविता है
झुके हुए हाथ जो लिखें
वह किसानी है
बीज बोये जाएँ या फिर शब्द, कुछ ऐसा हो-
गेहूँ कपास वगैरह शब्द भर होकर न रह जाएँ
भूख, नग्नता आदि बस शब्द होकर रह जाएँ।