शिव बिना जन्म और बिना अंत के हैं। ईश्वर की तरह अनंत हैं लेकिन ईश्वर के विपरीत उनके जीवन की घटनाएँ समय क्रम में चलती हैं और विशेषताओं के साथ इसलिए वे ईश्वर से भी अधिक असीमित हैं। शायद केवल उनकी ही एकमात्र किंवदंती है जिसकी कोई सीमा नहीं है। इस मामले में उनका मुकाबला कोई और नहीं कर सकता। जब उन्होंने प्रेम के देवता, काम के ऊपर तृतीय नेत्र खोला और उसे राख कर दिया तो कामदेव की धर्म-पत्नी और प्रेम की देवी, रति, रोती हुई उनके पास गयी और अपने पति के पुनर्जीवन की याचना की।
निस्संदेह कामदेव ने एक गंभीर अपराध किया था, क्योंकि उसने महादेव शिव को उद्विग्न करने की कोशिश की जो बिना नाम और रूप तथा तृष्णा के ही मन से ध्यानावस्थित होते हैं। कामदेव ने अपनी सीमा के बाहर प्रयास किया और उसका अंत हुआ। लेकिन हमेशा चहकनेवाली रति पहली बार विधवा रूप में होने के कारण उदास दीख पड़ी। दुनिया का भाग्य अधर में लटका था। रति क्रीड़ा अब के बाद बिना प्रेम के होनेवाली थी। शिव माफ नहीं कर सकते थे। उन्होंने सजा उचित दी लेकिन रति परेशान थी। दुनिया के भाग्य के ऊपर करुणा या रति की उदासी ने शिव को डिगा दिया। उन्होंने कामदेव को जीवन तो दिया लेकिन बिना शरीर के। तब से कामदेव निराकार है। बिना शरीर के काम हर जगह पहुँचकर प्रभाव डाल सकता है और घुल-मिल सकता है।
ऐसा लगता है कि यह खेल शिव के ऊँचे पहाड़ी वासस्थान कैलाश पर हुआ होगा। मानसरोवर झील, जिसके पारदर्शी और निर्मल जल में हंस मोती चुगते हैं, और उतना ही महत्त्वपूर्ण, अथाह गहराई और अपूर्व छविवाले राक्षस ताल से लगा अजेय कैलाश, जहाँ बारहों महीने बर्फ जमी रहती है और जहाँ अखंड शांति का साम्राज्य छाया रहता है, हिंदू कथाओं के अनुसार धरती का सबसे रमणीक स्थल और केंद्रबिंदु है।
धर्म और राजनीति, ईश्वर और राष्ट्र या कौम हर जमाने में और हर जगह मिलकर चलते हैं। हिंदुस्तान में यह अधिक होता है। शिव के सबसे बड़े कारनामों में एक उनका पार्वती की मृत्यु पर शोक प्रकट करना है। मृत पार्वती का अंग-अंग गिरता रहा फिर भी शिव ने अंतिम अंग गिरने तक नहीं छोड़ा। किसी प्रेमी, देवता, असुर या किसी की भी साहचर्य निभाने की ऐसी पूर्ण और अनूठी कहानी नहीं मिलती। केवल इतना ही नहीं, शिव की यह कहानी हिंदुस्तान की अटूट और विलक्षण एकता की भी कहानी है। जहाँ पार्वती का एक अंग गिरा, वहाँ एक तीर्थ बना। बनारस में मणिकर्णिका घाट पर मणिकुंतल के साथ कान गिरा, जहाँ आज तक मृत व्यक्तियों को जलाए जाने पर निश्चित रूप से मुक्ति मिलने का विश्वास किया जाता है। हिंदुस्तान के पूर्वी किनारे पर कामरूप में एक हिस्सा गिरा जिसका पवित्र आकर्षण सैकड़ों पीढ़ियों तक चला आ रहा है और आज भी देश के भीतरी हिस्सों में बूढ़ी दादियाँ अपने बच्चों को पूरब की महिलाओं से बचने की चेतावनी देती हैं क्योंकि वे पुरुषों को मोह कर भेड़-बकरी बना देती हैं।
सर्जक ब्रह्मा और पालक विष्णु में एक बार बड़ाई-छुटाई पर झगड़ा हुआ। वे संहारक शिव के पास फैसले के लिए गए। उन्होंने दोनों को अपने छोर का पता लगाने के लिए कहा, एक को अपने सिर और दूसरे को पैर का, और कहा कि पता लगा कर पहले लौटनेवाला विजेता माना जाएगा। यह खोज सदियों तक चलती रही और दोनों निराश लौटे। शिव ने दोनों को अहंकार से बचने के लिए कहा। त्रिमूर्ति इस पर निर्णय कर खूब हँसे होंगे, और शायद दूसरे मौकों पर भी हँसते होंगे। विष्णु के बारे में यह बता देना जरूरी है, जैसा कोई दूसरी कहानियों से पता चलता है, कि वह भी अनंत निद्रा और अनंत आकार के माने जाते हैं जब तक शिव की लंबाई-चौड़ाई अनंत में तय न कर उसकी परिभाषा न दी जाए।
एक दूसरी कहानी उनके दो पुत्रों के बीच की है जो एक खूबसूरत औरत के लिए झगड़ रहे थे। इस बार भी इनाम उसको मिलनेवाला था जो सारी दुनिया को पहले नाप लेगा। कार्तिकेय स्वास्थ्य और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थे और एक पल नष्ट किए बिना दौड़ पर निकल पड़े। हाथी की सूँडवाले गणेश, लंबोदर, बैठे सोचते और बहुत देर तक मुँह बनाए बैठे रहे। कुछ देर में उनको रास्ता सूझा और उनकी आँखों में शरारत चमकी, गणेश उठे और धीमे-धीमे अपने पिता के चारों और घूमे और निर्णय उनके पक्ष में रहा। कथा के रूप में तो यह बिना सोचे और जल्दबाजी के बदले चिंतन, धीमे-धीमे सोच-विचार कर काम करने की सीख देती है। लेकिन मूल रूप से यह शिव की कथा है जो असीम हैं और साथ-साथ सात पगों में नापे जा सकते हैं। निस्संदेह, शरीर से भी शिव असीम हैं।
हाथी की सूँड़वाले गणेश का अपूर्व चरित्र है, पिता के हस्तकौशल के अलावा अपनी मंद यद्यपि तीक्ष्ण बुद्धिमानी के कारण। जब वह छोटे थे, उनकी माता ने उन्हें स्नानगृह के दरवाजे पर देखरेख करने और किसी को अंदर न आने देने के लिए कहा। प्रत्युत्पन्न क्रियावाले शिव उन्हें ढकेल कर अंदर जाने लगे, लेकिन आदेश से बँधे गणेश ने उन्हें रोका। पिता ने पुत्र का गला काट दिया। पार्वती को असीम वेदना हुई। उस रास्ते जो पहला जीव निकला वह एक हाथी था। शिव ने हाथी का सिर उड़ा दिया और गणेश के धड़ पर रख दिया। उस जमाने से आज तक गहरी बुद्धिवाले, मनुष्य की बुद्धि के साथ गज की स्वामी-भक्ति के रखनेवाले गणेश, हिंदू घरों में हर काम के शुरू में पूजे जाते हैं। उनकी पूजा से सफलता निश्चित हो जाती है।
मुझे कभी-कभी विस्मय होता है कि क्या शिव ने इस मामले में अपने चरित्र के खिलाफ काम नहीं किया। क्या यह काम उचित था? हालाँकि उन्होंने गणेश को पुनर्जीवित किया और इस तरह व्याकुल पार्वती को दुख से छुटकारा दिया। लेकिन उस हाथी के बच्चे की माँ का क्या हाल हुआ होगा, जिसकी जान गयी? लेकिन सवाल का जवाब खुद सवाल में ही मिल जाता है। नए गणेश से हाथी और पुराने गणेश दोनों में से कोई नहीं मरा। शाश्वत आनंद और बुद्धि का यह मेल कितना विचित्र है तथा हाथी और मनुष्य का मिश्रण कितना हास्यास्पद।
शिव का एक दूसरा भी काम है जिसका औचित्य साबित करना कठिन है। उन्होंने पार्वती के साथ नृत्य किया। एक-एक ताल पर पार्वती ने शिव को मात किया। तब उत्कर्ष आया। शिव ने एक थिरकन की और अपना पैर ऊपर उठाया। पार्वती स्तब्ध और विस्मयचकित खड़ी रहीं और वह नारी की मर्यादा के खिलाफ भंगिमा नहीं दरशा सकीं। अपने पति के इस अनुचित काम पर आश्चर्य प्रकट करती खड़ी रहीं। लेकिन जीवन का नृत्य ऐसे उतार-चढ़ाव से बनता है कि जिसे दुनिया के नाक-भौं चढ़ानेवाले अभद्र कहते हैं और जिससे नारी की मर्यादा बनाने की बात कहते हैं। पता नहीं शिव ने शक्ति की भंगिमा एक मुकाबले में, जिसमें वह कमजोर पड़ रहे थे, जीत हासिल करने के लिए प्रदर्शित की या सचमुच जीवन के नृत्य के चढ़ाव में कदम-कदम बढ़ते हुए वे उद्वेलित हो उठे थे।
शिव ने कोई भी ऐसा काम नहीं किया जिसका औचित्य उस काम से ही न ठहराया जा सके। आदमी की जानकारी में वह इस तरह के अकेले प्राणी हैं जिनके काम का औचित्य अपने-आप में था। किसी को भी उस काम के पहले कारण और न बाद में किसी काम का नतीजा ढूँढ़ने की आवश्यकता पड़ी और न औचित्य ही ढूँढ़ने की। जीवन कारण और कार्य की ऐसी लंबी श्रृंखला है कि देवता और मनुष्य दोनों को अपने कामों का औचित्य दूर तक जाकर ढूँढ़ना होता है। यह एक खतरनाक बात है। अनुचित कामों को ठीक ठहराने के लिए चतुराई से भरे, खीझ पैदा करनेवाले तर्क पेश किये जाते हैं। इस तरह झूठ को सच, गुलामी को आजादी और हत्या को जीवन करार दिया जाता है। इस तरह के दुष्टतापूर्ण तर्कों का एकमात्र इलाज है शिव का विचार, क्योंकि वह तात्कालिकता के सिद्धांत का प्रतीक है। उनका हर काम स्वयं में तात्कालिक औचित्य से भरा होता है और उसके लिए किसी पहले या बाद के काम को देखने की जरूरत नहीं होती।
असीम तात्कालिकता की इस महान किंवदंती ने बड़प्पन के दो और स्वप्न दुनिया को दिए हैं। जब देवों और असुरों ने समुद्र मथा तो अमृत के पहले विष निकला। किसी को यह विष पीना था। शिव ने उस देवासुर संग्राम में कोई हिस्सा नहीं लिया और न तो समुद्र-मंथन के सम्मिलित प्रयास में ही। लेकिन कहानी बढ़ाने के लिए वे विषपान कर गए। उन्होंने अपनी गर्दन में विष को रोक रखा और तब से वे नीलकंठ के नाम से जाने जाते हैं। दूसरा स्वप्न हर जमाने में हर जगह पूजने योग्य है। जब एक भक्त ने उनके बगल में पार्वती की पूजा करने से इनकार किया तो शिव ने आधा पुरुष आधा नारी, अर्धनारीश्वर रूप ग्रहण किया। मैंने आपाद-मस्तक इस रूप को अपने दिमाग में उतार पाने में दिक्कत महसूस की है, लेकिन उसमें बहुत आनंद मिलता है।
मेरा इरादा इन किंवदंतियों के क्रमश: ह्रास को दिखाने का नहीं है। शताब्दियों के बीच वे गिरावट का शिकार होती रही हैं। कभी-कभी ऐसा बीज जो समय पर निखरता है, वह विपरीत हालतों में सड़ भी जाता है। राम के भक्त समय-समय पर पत्नी निर्वासक, कृष्ण के भक्त दूसरों की बीवियाँ चुरानेवाले और शिव के भक्त अघोरपंथी हुए हैं। गिरावट और क्षतरूप की इस प्रक्रिया में मर्यादित पुरुष संकीर्ण हो जाता है, उन्मुक्त पुरुष दुराचारी हो जाता है, असीमित पुरुष प्रसंग-बद्ध और स्वरूपहीन हो जाता है। राम का गिरा हुआ रूप संकीर्ण व्यक्तित्व, कृष्ण का गिरा हुआ रूप दुराचारी व्यक्तित्व और शिव का गिरा हुआ रूप स्वरूपहीन व्यक्तित्व बन जाता है। राम के दो अस्तित्व हो जाते हैं, मर्यादित और संकीर्ण, कृष्ण के उन्मुक्त और क्षुद्र प्रेमी, शिव के असीमित और प्रसंगबद्ध। मैं कोई इलाज सुझाने की धृष्टता नहीं करूँगा और केवल इतना कहूँगा : हे भारतमाता, हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।
(अंग्रेजी मासिक मैनकाइंड, अगस्त 1955 से अनूदित)