बहस नहीं संवाद

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राजकिशोर (2 जनवरी 1947 – 4 जून 2018)

— राजकिशोर —

हस मनुष्यता का बचपन है, संवाद उसकी वयस्कता। विडंबना यह है कि दोनों अकसर साथ बने रहते हैं। जीत-हार में जिनकी दिलचस्पी बनी हुई है, उनके दाढ़ी-मूँछ निकले भले ही कई दशक बीत चुके हों, उनका बचपन अभी बीता नहीं है। भारत में जब सभ्यता का विकास तेजी से हो रहा था, बहस नहीं, विचार हो रहा था। माना जाता है कि उपनिषदों के समय में हमारे यहाँ सर्वोत्कृष्ट चिंतन हुआ। आप कोई भी उपनिषद उठाकर देख लीजिए, उसमें जिज्ञासा मिलेगी, स्थापना मिलेगी, संवाद भी मिलेगा। जो नहीं मिलेगा, वह है बहस के माध्यम से किसी की त्रुटियाँ निकालने और उसे हराने या लज्जित करने- या, दोनों- की कुचेष्टा। गौतम बुद्ध और महावीर ने किसी से बहस नहीं की, अपनी राय जरूर रखी।

हमारे देश में बहस का सर्वोत्तम और निकृष्टतम रूप शास्त्रार्थ में दिखाई देता है। शास्त्रार्थों का समय क्या था? यह वह समय था, जब भारतीय मनीषा की रचनात्मकता कमजोर हो चुकी थी और विद्वानों में सामाजिक आचरण को प्रभावित करने के बजाय अपनी विद्वत्ता की धाक जमाने की इच्छा ज्यादा प्रबल हो चुकी थी। शास्त्रार्थ का एक लक्ष्य राजदरबार में पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी था। अकसर यह टेस्ट मैच जैसी कार्रवाई बन जाती थी, जिसमें यह देखा जाता है कि किसने कितना स्कोर बनाया। फुटबॉल का उदाहरण लें, तो सत्य भले ही गेंद की तरह इस पैर से उस पैर तक चक्करघिन्नी खाता घूमता रहे, पूजा उसकी होगी, जिसने सबसे ज्यादा गोल बनाये।

दरअसल, शास्त्रार्थ का लक्ष्य सत्य का संधान नहीं होता, तर्क-वितर्क के द्वारा अपने सत्य को प्रतिष्ठापित करना होता है। सत्य की इससे बड़ी ट्रेजेडी क्या हो सकती है कि वह किसी (एक) का सत्य होकर रह जाए। सत्य वही है, जिसमें सभी की साझेदारी हो सकती है। महात्मा गांधी ने अपना सत्य खोजने की कोशिश नहीं की थी। उन्होंने सत्य के प्रयोग किये थे। इसीलिए वे प्रयोग आज भी हमारे लिए मूल्यवान हैं। दयानंद के सत्यार्थ प्रकाश का सबसे खराब हिस्सा वह है जहाँ वे इस्लाम, ईसाइयत आदि दूसरे धर्मों पर पहलवान की तरह टूट पड़ते हैं। बहस सत्य के विनम्र और सुंदर संसार में मतों की पहलवानी है।

बहस का सबसे बुरा पक्ष यह है कि आप अपने प्रतिद्वंद्वी में कोई गुण नहीं देखना चाहते और अपनी किसी कमी को स्वीकार नहीं करना चाहते। यह विधि वकीलों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त और उपयोगी है, क्योंकि किसी भी वकील की रुचि इसमें बिलकुल नहीं होती कि अपराध किसने किया : प्रत्येक वकील यह साबित करना चाहता है कि उसका मुवक्किल हरगिज अपराधी नहीं है और उसका प्रतिद्वंद्वी वकील असत्य बोलकर अदालत को गुमराह कर रहा है। यह साबित करने के लिए वह प्रति घंटे के हिसाब से फीस लेता है। यही वजह है कि सबसे अच्छी बहस करने वाले वकील को सबसे ज्यादा फीस मिलती है। यानी, जो अभियुक्त पैसे की व्यवस्था नहीं कर सकता, उसकी ओर से कोई वकील खड़ा नहीं होगा। क्या यह दुनिया एक बड़ी-सी अदालत है, जिसमें हम सभी यह साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं कि गुनहगार हम नहीं हैं?

बहस की बदकिस्मती यह है कि इसके पीछे हमेशा लोभ या स्वार्थ नहीं होता। सात्विक उद्देश्यों से भी बहस की जाती है। शायद आंबेडकर ने गांधी से ऐसी ही बहस की थी। समाजवादी और मार्क्सवादी भी ऐसी ही बहस करते आए हैं। यह बहस कुछ हद तक उपयोगी होती है। ऐसे प्रसंगों में बहस की भूमिका उस सान की तरह है जो छुरे, कैंची या कटार की धार को तेज कर देता है। भोथरे औजारों से सब्जी तो कट नहीं सकती, दुनिया को क्या बदला जा सकेगा! लेकिन बुद्धि या तर्क की प्रखरता अपने आप में कहीं नहीं पहुँचाती। मुख्य बात प्रतिद्वंद्वी को गलत साबित करना नहीं, उसे और उसके जैसा मत रखनेवालों को अपनी बात से कायल करना है। इसके लिए तर्क की पर्याप्तता जितनी जरूरी है उतना ही आवश्यक है सद्भाव व पूर्णता।

सद्भाव-रहित तर्क हिंसा है और ऐसी हिंसा से किसी का भला नहीं हो सकता। ऐसा तर्क सबसे पहले तर्ककारी के हृदय और मस्तिष्क को ही प्रदूषित करता है। जब मामला दार्शनिक या वैचारिक नहीं रह जाता, राजनीतिक सत्ता से भी जुड़ जाता है, तो बहस को कटु होने से कौन बचा सकता है? यह कटुता, दरअसल, सत्ता द्वंद्व से पैदा होने वाली कड़वाहट है। शक के अलावा जिस दूसरी चीज की दवा हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी, वह यह कड़वाहट ही है। खारे पानी से धुलकर फल भी मीठे नहीं रह जाते।

जहाँ बहस अनावश्यक दूरी पैदा करती है, संवाद आवश्यक निकटता लाता है। मेरा यह विश्वास दिन-प्रतिदिन दृढ़ होता जाता है कि दो विपरीत ध्रुवों के बीच भी संवाद संभव है, बशर्ते उनमें से एक भी ध्रुव विनम्र और प्रेमिल हो सके। संवाद सत्य की ओर साझा सफर है। यह गुपचुप षड्यंत्र नहीं है, सार्वजनिक उपक्रम है। सफल संवाद की न्यूनतम शर्त यह है कि हम दूसरे की बात को समझने की ईमानदार कोशिश करें, अपने बारे में शक कर सकें और इरादा अपने को सही साबित करने या दूसरे को गलत साबित करने के स्थान पर यह पता लगाने का हो कि वास्तविकता, या समाधान, क्या है।

इस दृष्टि से सच्चा संवाद दो वैज्ञानिकों के बीच ही हो सकता है- क्योंकि विज्ञान में कोई निहित स्वार्थ हो ही नहीं सकता अथवा यों कहिए कि जहाँ निहित स्वार्थ है, वहाँ विज्ञान कहाँ? लेकिन क्या पदार्थ जगत की ही तरह जगत नाम के पदार्थ को समझने के लिए भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक तकनीक की भी एक निश्चित उपयोगिता नहीं है? इस सिलसिले में यह याद दिलाना उपयोगी प्रतीत होता है कि अध्यात्म को भी बहुत-से दार्शनिकों और संतों ने भी विज्ञान ही माना है। ज्ञान का संबंध तथ्यों से है, विज्ञान का संबंध सत्य से है।

यह यों ही नहीं था कि अलबर्ट आइंस्टीन की दिलचस्पी छुटपुट तथ्यों या पर्यवेक्षणों के बजाय सृष्टि के मूल रहस्य का पता लगाने में ज्यादा थी। वे ब्रह्मांड के ब्यौरों में उलझना नहीं चाहते थे, उसके मर्म में प्रवेश करना चाहते थे। शायद यही वजह है कि उनके जैसा सादा और विनम्र वैज्ञानिक शायद ही कोई और हुआ हो। आइंस्टीन और रवीन्द्रनाथ के संवाद में यह विनम्रता सुंदरतम रूप में प्रकट हुई है। आइंस्टीन अनेक मामलों में रवीन्द्रनाथ से असहमत थे, पर इसकी वजह से उनमें कोई कटुता नहीं थी। संवाद की सबसे बड़ी चुनौती शायद यही है कि हम अपनी बात को पूरी दृढ़ता से रखते हुए भी कितना विनम्र रह सकते हैं। निश्चय ही यह विनम्रता दिखावे की चीज या संतई की मुद्रा नहीं होनी चाहिए, अन्यथा आदमी और ज्यादा भद्दा तथा उबाऊ हो जाता है। ऐसी क्षुद्र विनम्रता से तो शायद दंभ ही बेहतर है, जो बनावटी तो नहीं होता। सत्य के साथ टकराव से भी किसी का भी दंभ चकनाचूर हो सकता है, पर ओढ़ी हुई विनम्रता सत्य की थोड़ी-सी भी धूप लगते ही अपने को और भारी लबादे में ढंक लेती है।

बहस में वीरता का तत्त्व दिखाई देता लगता है। लेकिन यह बाल-दृष्टि है। वीरता का स्थायी भाव उत्साह बताया गया है। उत्साह की परिभाषा क्या है? रामचंद्र शुक्ल कहते हैं, जिस आनंद से कर्म की उत्तेजना होती है और जो आनंद कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का नाम उत्साह है। स्पष्ट है कि उत्साह यानी वीरता की अभिव्यक्ति कर्म में ही होती है- कुकर्म में नहीं। किसी चोर या व्यभिचारी में भी कर्म की उत्तेजना हो सकती है, भारी स्फूर्ति भी दिखाई पड़ सकती है, लेकिन वह उत्साह नहीं, व्यग्रता है; आनंद नहीं छिछोरापन है। इराक में अमरीकी कार्रवाई वीरता का नहीं क्रूरता का उदाहरण है। वीरता के साथ कोई न कोई सदुद्देश्य नत्थी रहता है।

बहस का उद्देश्य अकसर किसी को नीचा दिखाना होता है। इसलिए बहस में न पड़ना ही अच्छा है, किसी वजह से पड़ गये तो जब भीसद्बुद्धि जाग उठे उससे बाहर आ जाना ही अच्छा है। पलायन कोई अच्छी चीज नहीं है। लेकिन एक जगह पलायन अच्छा ही नहीं, वीरता की भी अभिव्यक्ति है। वह जगह है वाग्युद्ध का मैदान। इस मैदान में अपनी गाड़ी तुरंत पीछे कर लेनी चाहिए, ताकि हठी प्रतिद्वन्द्वी की गाड़ी के लिए रास्ता बन सके। ट्रैफिक की तरह ही जीवन में भी अनावश्यक जाम या मुठभेड़, ऊर्जा तथा समय की बरबादी है।

विचारक, दार्शनिक और वैज्ञानिक बहस नहीं करते। वे विचार-विमर्श करते हैं। विचार-विमर्श एक लोकतांत्रिक उपक्रम है। इसमें सच्चा आदान-प्रदान होता है। यही संवाद है। इसके विपरीत, राजनेता बहस करते हैं। संसद में बहस होती है जिसका लक्ष्य होता है प्रतिद्वंद्वी दल की फजीहत करना। इसके पीछे सत्य की नहीं, सत्ता की चाहत होती है। इसीलिए राजनीति का एक बुरा पहलू यह है कि वह तू-तू मैं-मैं का मैदान बन जाती है। तू-तू मैं-मैं से राजनीति में सफाई आयी हो या कोई अच्छा उद्देश्य सिद्ध हुआ हो, यह अभी तक कहीं भी देखने में नहीं आया है। हाँ, संवाद से सभी पक्ष समृद्ध होते हैं- यह जरूर बराबर देखने को मिलता है।

यह दुर्भाग्य की बात है कि स्कूल-कॉलेजों में अभी भी वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। इससे विद्यार्थियों में तर्क-वितर्क की शक्ति बढ़ती है, उनमें सार्वजनिक वक्तृता की क्षमता आती और बढ़ती है, लेकिन गंभीर नुकसान यह होता है कि सत्य के एक पहलू को ही पूरा सत्य मान लेने का दुराग्रह पनप सकता है- अगर वाद-विवाद को खेल न समझा गया और गंभीरता से ले लिया गया। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन रचनात्मक तथा और ज्यादा उपयोगी इस तरह हो सकता है कि प्रत्येक प्रतिभागी को विषय के पक्ष में भी और विपक्ष में भी बोलने के लिए कहा जाए। तब तर्क-शक्ति बढ़ने के साथ-साथ किसी मामले की जड़ तक जाने की प्रवृत्ति विकसित हो सकती है। अभी तो विद्यार्थियों को जज नहीं, वकील बनाने का उपक्रम होता है। यह बच्चों को बच्चा बनाये रखने की कोशिश है- उपभोक्तावादी संस्कृति की तरह, जो एक दिन में भसक जाए, अगर लोग बच्चा बनने से इनकार कर दें और हर विज्ञापन तथा हर पण्य पर बालिग नजर डालना शुरू कर दें।

लेकिन संवाद क्या कोई आसान चीज है? दुनिया में शायद कठिनतम यही है। संवाद के नाम पर ज्यादातर होता यह है कि दो या उससे अधिक व्यक्ति एकालाप करते जाते हैं। मैं अपनी कहूँ, तू अपनी कह, जुड़ाव का बिंदु न आए। दो कैसेट प्लेयर एकसाथ चल रहे हों, तो यह संवाद की स्थिति नहीं होती। संवाद सिर्फ द्वंद्व का अभाव नहीं है, यह प्रेम का उत्कृष्टतम रूप है। जब हम संवाद में होते हैं, तो अपने को देते हुए ही दूसरे को ले सकते हैं। लेकिन संवाद का मतलब एक-दूसरे के कचरे से अपने को बारी बनाना नहीं है। एक-दूसरे का कचरा साफ करते हुए यथार्थ के लिए संयुक्त जगह बनाना है। इसके लिए आत्म-त्याग और संयम अपरिहार्य है। इसमें रचना की पीड़ा और रचना का आनंद, दोनों शामिल हैं। यह संवाद ही है, जिसमें दो और दो मिलकर पाँच हो सकते हैं। वह मंथन ही क्या, जिससे कुछ नया न निकले? कई बार मंथन से विष भी निकलता है, लेकिन जो अमृत की इच्छा रखते हैं, उनमें विषपायी होने की क्षमता होनी चाहिए।

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